* जीवन की दूसरी पारी खेलते हुए रामेश्वरी नादान के लिखे “दूसरी पारी” उपन्यास को पढ़ना - एक सुखद अनुभव से गुजरना है। जैसा मैं पहले भी एकाधिक बार बता चुका हूँ कि नए या पुराने लेखकों की पुस्तकें पढ़ना मेरा शौक है | उम्र की पचहत्तरवीं पायदान पर हूँ , शरीर के ढेर सारे ऑपरेशनों से गुजर चुका हूँ इसलिए बहुत ज्यादा तो पढ़ नहीं पाता हूँ किन्तु.. दिल है कि मानता नहीं ! इस पुस्तक को मैंने उस दौर में पढ़ा है और इसकी समीक्षा लिख रहा हूँ जब साहित्य जगत के सर्वोच्च माने जाने वाले ज्यादातर लोग नए लेखकों के नाम से ही बिदक रहे हैं, उनके लिखे को पढ़ना या उन पर अभिमत देना तो दूर | उदाहरण के लिए मैं वरिष्ठ साहित्यकार श्री शंभूनाथ शुक्ला की उस पोस्ट को साझा कर रहा हूँ जो इस बारे में है। पहले आप उसे पढिए जो इस प्रकार है । " ऐसी पुस्तकें लिखने का क्या लाभ ! पहले पुस्तक लिखेंगे फिर बाँटेंगे और इसके बाद जुगाड़ लगायेंगे कि पुरुस्कार मिल जाए। आप ऐसी पुस्तकें लिखिए जो उपयोगी हों, जानकारी देती हों और पाठक उन्हें पढ़ने को उद्यत हो। हर वर्ष पुस्तक मेले से मैं पुस्तकें लाता हूँ। पढ़ता हूँ और रख देता हूँ। लेकिन जो पुस्तकें लोग भेजते हैं, उनको पढ़ने का नंबर नहीं आता। किंतु अगले दिन से लोग दबाव डालने लगते हैं, मेरी पुस्तक पर लिखिए। आज भी एक फ़ोन आया, मुझे रुखाई से जवाब देना पड़ा। कृपया पुस्तकें न भेजें न उनकी समीक्षा का आग्रह करें। मुझे पसंद आयेगी तो मैं स्वयं ख़रीद लाऊँगा। मैं ज़िन्दगी को स्वान्तः सुखाय मानता हूँ। और आप भी पुस्तकें अपने निज के सुख के लिए लिख रहे हैं लोकोपकार के लिए नहीं। "
इस पुस्तक की लेखिका ने बड़े साफ़ शब्दों में फ़ेसबुक पर पाठकों को आमंत्रण दिया था कि आप मेरी पुस्तक नि:शुल्क पढ़ सकते हैं और यदि ठीक लगे तो उसका मूल्य अदा कर सकते हैं |उनकी यह साफ़गोई मुझे अच्छी लगी थी और मैंने उनकी यह पुस्तक मँगवा ली | यह पुस्तक इतनी रोचक लगी कि कुल 108 पृष्ठों की इस पुस्तक को मैंने पढ़ना जिस दिन शुरू किया उसी दिन मैंने इसे समाप्त भी कर लिया | हालांकि कथावस्तु के यकायक संदर्भ परिवर्तन ने थोड़ी मुसीबत पैदा की जिसकी चर्चा मैं आगे करूंगा |और हाँ,यह भी बताना चाहूँगा कि बहुत उत्सुकता से इस पुस्तक का वाचन मुझसे पहले मेरी शिक्षिका पत्नी ने कर डाला |पुस्तकों को अमूमन वे कम ही हाथ लगाती हैं लेकिन लगता है पुस्तक के ‘कैची’ टाइटिल और लेखिका के महिला होने ने उन्हें आकर्षित कर डाला था |
रामेश्वरी जी की इससे पहले मैने कोई पुस्तक नहीं पढ़ी जब कि उनका कहना है कि अब तक उनकी तेरह पुस्तकें आ चुकी हैं | और यह भी कि इस पुस्तक का दूसरा संस्करण मेरी नज़रों से गुजरा |इनका तखल्लुस मात्र ‘नादान’ है लेकिन ये पूरी तरह सज्ञान हैं और इनकी सिद्ध हस्तता दिखाई दे रही है इनकी समृद्धशाली भाषा ,भाव कथ्य और प्रस्तुतीकरण में |इनका यह स्वीकारना कि “ हर बार कुछ न कुछ नादानियाँ कर जाती हूँ “ यद्यपि इस उपन्यास को पढ़ते हुए मान्य नहीं है और अगर मान्य हो भी तो उनका यह लिखना या स्वीकारना इनके बड़प्पन का प्रतीक है | पचासोत्तर स्त्री पुरुष संबंधों में प्रेम पाने और प्रेम देने की इच्छा का बना रहना अस्वाभाविक नहीं है |प्रेम एक जीवंत भाव है जिसमें उतार चढ़ाव आ सकता है लेकिन वह शाश्वत भाव है और वह आत्मा की तरह कभी मरता नहीं है |वह अदृश्य हो सकता है अथवा शांत हो सकता है ,व्यक्ति-स्थान अथवा केंद्र भी बदल सकता है लेकिन शरीरांत बना रहता है | यदि आपमें थोड़ी भी संवेदना या भावनाओं की सम्पन्नता हो तो आपकी इससे (प्रेम से ) मुलाकात अवश्य ही होती है, कभी जीवन के पूर्वार्द्ध में तो कभी मध्य या उत्तरार्ध में |कुछ लोग प्रेम और शारीरिक संबंधों को गड्ड मड्ड करके देखते या महसूस करते हैं जब कि मेरी दृष्टि में ऐसा नहीं है |पति, पत्नी या प्रेयसी का सच्चा प्रेमी होना आवश्यक नहीं |इस दौर में तो कत्तई नहीं |शरीर (सेक्स) और प्रेम दोनों पाना मुश्किल काम होता है,बहुत मुश्किल |जितना कौशल्यपूर्ण बिस्तर सुख एक बाजारू औरत दे सकती है ,पत्नी या प्रेयसी शायद नहीं |लेकिन पत्नी पत्नी है , वह अर्धांगिनी है और मान्यतानुसार जन्म जन्म की संगिनी भी |वह आपसे या आप उससे सच्चे दिल से प्यार/प्रेम करते हो अथवा नहीं यह और बात है | मेरी दृष्टि में हम सबका उत्तरार्धी जीवन तो और ज्यादा प्रेम पिपासु होता है और अगर दुर्भाग्यवश पति ,प्रेमी ,प्रेयसी या पत्नी के जीवन में असमय पतझर आ गया साथी बिछड़ गया तब तो और भी आवश्यक |इस दूसरी पारी के प्रेम में (जैसा कि वरिष्ठ साहित्यकार रमेश चंद्र घिल्डियाल ने आमुख में लिखा है ) “उतावलापन नहीं , पारिवारिक दायित्व बोध के साथ एक गरिमामय परिपक्वता होती है |” “दूसरी पारी” का कथ्य हमारे जीवन की संध्या के ऐसे ही सुखांत पक्ष का आईना है |
लेखिका सरस्वती , सागर, पार्वती और शर्मा जी को पात्र बना कर अपने उपन्यास का रोचक ताना बाना तैयार करती है|“अतीत की परछाइयाँ “ शीर्षक भाग एक में उत्तरार्ध और एकाकी जीवन में घर की चार दीवारों का चार सहेलियाँ होना स्वाभाविक है |इसमें पहले पैरा के बाद दूसरे पैरा में सरस्वती के शुरुआती जीवन का प्रसंग अचानक आ जुड़ता है जिसका कोई प्रतीक होना चाहिए था | आगे भी जगह जगह यह चूक हुई है जो खटक रही है |इसी अध्याय में पृष्ठ 17 पर सरस्वती के पति का सुहाग रात में किसी भूखे भेड़िए की तरह टूट पड़ने और किसी एनी का नाम लेने के प्रकरण ने उनके वैवाहिक जीवन में प्रेम को जन्म ही नहीं लेने दिया है |आगे एक ऐक्सीडेंट में उसका गुजर जाना दाम्पत्य जीवन का ‘ दि एंड’ हो जाना होता है |लेकिन सनातन संस्कार सरस्वती के साथ चिपका हुआ है और वह पति के कर्मकांड को करती रहती है और बेटे को भी उसमें शरीक करती है |उधर एनी आधुनिक युग की नारी है उसको दूसरा ब्वाय फ्रेंड मिल गया |फिर सरस्वती के जीवन में विधुर सागर आते हैं और अंतत: अपनी अपनी पारिवारिक ज़िम्मेदारियाँ निभाते हुए जीवन की दूसरी पारी में ये दोनों एक हो जाते हैं |
उधर कमला और शर्मा जी का उत्तर जीवन आजकल के बुजुर्गों की तरह चल रहा है जिसमें बेटे बहू उनका भावनात्मक शोषण कर रहे होते हैं|शर्मा जी की शादी कम उम्र में ही हो गई थी |वे अपने सद्यः जन्म लिए पोते को देखने वार्ड में जा रहे होते हैं कि एक महिला स्वर उनको चौंका देता है |वह महिला कोई और नहीं बल्कि उनकी युवावस्था की प्रेमिका पारो है |पारो,अपने पति और दो बच्चों के परिवार वाली |दोनों अपनी ज़िंदगी में खुश थे फिर भी कुछ तो था जो उन्हें एक दूसरे की तरफ सालों बाद भी खींच रहा था |ये दोनों आधुनिक विचार के थे और ये भी अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियाँ बखूबी निभाते हुए पूरे होशो हवास में अपने अधूरे प्रेम को पराकाष्ठा तक पहुंचाना चाहते हैं |और यह अवसर आ ही जाता है |पृष्ठ 68 पर लेखिका इसे इस वाक्य से व्यक्त करती हैं-“इस बार पार्वती ने खड़े होते हुए अपनी दोनों बाहें फैला दीं |शर्मा जी एक बार फिर से गले लग गए | पर इस बार मर्यादित थे |कोई आतुरता न थी |खुद पर पूरा कंट्रोल कर चुके थे |” उनकी प्रेम की यह पारी देर से ही सही पूरी होकर अनेक रोचक पारिवारिक घटनाक्रमों से होते हुए प्रेम को दोस्ती में बदलते हुए दोस्ती की दूसरी पारी शुरू होती है |
उपन्यास यह संदेश देते हुए समाप्त होता है कि “हर इंसान के जीवन में दूसरी पारी आती है खुशियां लेकर|बस उसे आगे बढ़ कर उस दूसरी पारी को खेलने के लिए, जीतने के लिए खुद को तैयार करना चाहिए |”
अब पुस्तक के लिए कुछ सुधारपूर्ण विचार भी |उपन्यास में जगह जगह चन्द्रबिन्दु और अशुद्ध वर्तनी की कमियाँ दिखी हैं जैसे ‘साझा’ की जगह ‘सांझा’ | ‘डोर बेल’ की जगह ‘डोर बैल’ | बेशक़ की जगह वेशक | हो सकता है ठीक से प्रूफ रीडिंग न हो पाने की वज़ह से जिसे अगले संस्करण में सुधार लिया जा सकता है |पुस्तक के प्रकाशक हैं रावत डिजिटल बुक पब्लिशिंग हाउस और इस पुस्तक का मूल्य दो सौ पचास रुपये है |इसके बारे में लेखिका को बधाई देते हुए मैं इतना अवश्य कहना चाहूँगा कि यह वरिष्ठ नागरिकों को पढ़ने योग्य रोचक उपन्यास है |इसे अमेज़न और फ्लिपकार्ट से भी मंगाया जा सकता है।