इंतज़ार
बाबा चारपाई पर लेटे हैं और पिछले दो दिनों से उनका खाना-पीना भी बंद है। हालत इतनी खराब है कि वे बाथरूम-टॉयलेट भी नहीं जा पा रहे हैं।
ऐसे में सबसे बड़े साहब और छोटे बाबू दिल्ली में अपनी नौकरी और परिवार की जिम्मेदारियों में उलझे हुए हैं। तीसरा बेटा और एक पोता गांव में साथ रहते हुए भी लाचार हैं...
लाचारी इसलिए क्योंकि जो भी मिलने आता है, हर किसी के पास कोई न कोई सुझाव जरूर होता है, सिवाय डॉक्टर के पास ले जाने या अस्पताल में भर्ती कराने के। कोई कहता है कि अब उनका बचना नामुमकिन है और ये अंतिम समय है, इसलिए कहीं ले जाने का कोई फायदा नहीं। अधिकांश लोगों की राय यही है कि अस्पताल ले जाकर पैसे खर्च करने से अच्छा है... बस इंतज़ार करो (आज नहीं तो कल प्राण निकलने ही वाले हैं)। गांव में रहने वाले भी और बाहर शहर में रहने वाले बेटे भी, सभी सिर्फ एक खबर का इंतज़ार कर रहे हैं, ताकि उसके बाद बाकी क्रियाकर्म के बारे में सोचा जा सके।
बीच वाले बेटे की समस्या यह है कि उसे मवेशियों का ध्यान भी रखना है और खेती-बाड़ी की सारी जिम्मेदारी भी उसी पर है। ऐसा नहीं है कि उसे चिंता नहीं है—वो बाबा के लिए परेशान और दुखी बहुत है। अगर ऐसा नहीं होता तो हर शाम वो इतना ज़्यादा शराब पीकर हंगामा क्यों करता? बाबा के दुख से इतना परेशान है कि हमेशा नशे में ही रहता है। जो पोता गांव में है, वह सेवा तो कर ही रहा है, लेकिन सुना है कि उसके खुद के दो छोटे-छोटे बच्चे हैं और ऐसी हालत में बाबा को डॉक्टर या अस्पताल ले जाना उसके बस में नहीं है। फिर भी, घर पर रहकर हर संभव सेवा वह कर ही रहा है।
सबसे बड़े साहब और छोटे बाबू भी मजबूर हैं। करीब दो घंटे की टेली-कॉन्फ्रेंसिंग के बाद यह निर्णय लिया गया कि गांव कुछ पैसे भेज दिए जाएं। जब बाबा चल बसेंगे, तब तो जाना ही पड़ेगा, तो अभी इतनी हड़बड़ी में जाकर क्या फायदा। बार-बार छुट्टी भी नहीं मिलेगी और न ही इतना पैसा है। बड़ा पोता भी यही सोच रहा है कि दुकान बंद करके गांव जाने से जो नुकसान होगा, उससे बेहतर है कि घर की महिलाएं चली जाएं और मर्द यहीं रहकर कमाई करते रहें। इससे पैसों की भी दिक्कत नहीं होगी और अगर कोई दुखद समाचार आया, तो एक आदमी फ्लाइट से चला ही जाएगा। बात सही भी लगती है—अपनी रोज़ी-रोटी और रोजगार छोड़कर एक बूढ़े बाबा को देखने जाना शायद उतनी समझदारी नहीं है।
ऐसा लग रहा है कि ज़िंदगी जिस इंतज़ार से शुरू हुई थी, वहीं लौटकर उसी इंतज़ार पर आकर रुक गई है—बस, अब इंतज़ार के मायने बदल गए हैं। जब बड़े साहब होने वाले थे, तब बाबा बहुत बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे। घंटों इंतज़ार करने के बाद खबर आई कि प्रभु की कृपा से घर में एक चिराग आया है और पूरा परिवार ही नहीं, लगभग पूरा गांव खुशियों से झूम उठा।
यही इंतज़ार का सिलसिला शुरू होता है। (कहानी शायद बाबा की है, लेकिन हम सब इससे गुज़रे हैं या गुज़रेंगे)। हमारे घर औलाद आने वाली हो, उसका इंतज़ार, और हर संतान के समय वैसा ही इंतज़ार और फिर आनंद। जब बच्चा स्कूल जाने लगे, तो उसके लौटने का इंतज़ार। परिवार का कोई सदस्य थोड़ा भी बीमार हो जाए, तो उसके ठीक होने का इंतज़ार।
जब बाबा स्वस्थ थे, तो हर साल पूजा के समय उनके पूजा करने का इंतज़ार, उनके पुण्य प्रताप से सभी की मनोकामना पूर्ण होने का इंतज़ार। आज समय का चक्र देखकर हैरानी होती है कि दुर्गा पूजा के समय जिनका इंतज़ार घर-परिवार से लेकर बाहर वाले भी करते थे, आज उन्हीं के आख़िरी वक्त का सब इंतज़ार कर रहे हैं।
मैं बैठकर सोच रहा हूँ कि कोई उपाय करने या इंतज़ाम करने की जगह जिन बाबा के आख़िरी पल का इंतज़ार किया जा रहा है, उन्होंने पूरी ज़िंदगी में कितना और कैसे-कैसे इंतज़ार किया होगा—बेटों के सहारे लौटने का इंतज़ार, बहुओं और पोतों को देखने का इंतज़ार, पोती की शादी का इंतज़ार, दामाद, नाती और तीसरी पीढ़ी के बच्चों का इंतज़ार।
आज ऐसा लग रहा है कि यह ज़िंदगी इंतज़ार से शुरू होकर इंतज़ार पर ही खत्म हो रही है...
इंतज़ार...