Tere ishq mi ho jau fana - 49 in Hindi Love Stories by Sunita books and stories PDF | तेरे इश्क में हो जाऊं फना - 49

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तेरे इश्क में हो जाऊं फना - 49

माथूर हाउस

शाम के साए धीरे-धीरे गहराने लगे थे। समीरा अपने कमरे में टहल रही थी, हाथ में किताब थी, मगर उसका ध्यान पन्नों पर नहीं था। ठंडी हवा खिड़की से अंदर आकर उसकी बिखरी ज़ुल्फों से खेल रही थी, मानो कोई नटखट बच्चा अपनी शरारतों से उसे परेशान कर रहा हो।

तभी घर की घंटी बजी।

राधा रसोई में व्यस्त थी और अजय अभी तक ऑफिस से लौटा नहीं था।

"बेटा, ज़रा देखना दरवाजे पर कौन है? मेरे हाथ आटे में सने हैं," राधा की आवाज़ आई।

"ठीक है, माँ!" समीरा ने ज़ोर से जवाब दिया और किताब हाथ में पकड़े ही दरवाज़े की ओर बढ़ी।

दरवाज़ा खोलते ही सामने एक अजनबी नौजवान खड़ा था। उसके हाथों में ताजे गुलाबों का गुलदस्ता था। समीरा की नज़रें उन फूलों पर ठहर गईं, फिर उस लड़के पर गईं।

"तुम कौन हो? और ये फूल किसके लिए हैं?" समीरा ने भौंहें चढ़ाकर पूछा।

लड़के ने थोड़ा झिझकते हुए कहा, "आप ही समीरा जी हैं?"

"हाँ, लेकिन तुम कौन?" समीरा ने संदेह भरी निगाहों से उसे देखा।

"मैडम, मुझे दानिश सर ने भेजा है आपको ये फूल देने के लिए।"

दानिश का नाम सुनते ही समीरा के दिल की धड़कन थोड़ी तेज़ हो गई। चेहरे पर हल्की सी गुलाबी लाली दौड़ गई। वह सोचने लगी—'ये दानिश भी ना! क्या ज़रूरत थी ये फूल भेजने की?'

तभी रसोई से राधा की आवाज़ आई, "बेटा, कौन है दरवाज़े पर?"

समीरा का दिमाग़ तेजी से दौड़ने लगा। 'ओह, नहीं! माँ यहां आ गई तो बहुत गड़बड़ हो जाएगी।'

जल्दी से उसने लड़के के हाथ से फूल लिए और हल्की-सी मुस्कान के साथ कहा, "अच्छा ठीक है, धन्यवाद!" और फटाफट दरवाज़ा बंद कर लिया।

जैसे ही वह पलटी, उसकी सांसें तेज़ हो गईं। उसने राहत की सांस ली, मगर तभी...

"बेटा, कौन था?"

राधा उसके ठीक पीछे खड़ी थी।

समीरा घबरा गई। 'अब क्या करूं?'

उसने फौरन गुलदस्ता अपने पीछे छुपा लिया और झूठ-मूठ मुस्कुराते हुए कहा, "कोई नहीं, माँ! बस किसी को रास्ता पूछना था।"

राधा ने भौंहें टेढ़ी कीं। "अच्छा? फिर तू इतनी घबराई हुई क्यों लग रही है?"

"न-नहीं तो, माँ! मैं बिलकुल नॉर्मल हूं," समीरा ने बनावटी हंसी के साथ कहा।

राधा को कुछ अजीब सा लगा, लेकिन वह ज्यादा ध्यान नहीं दी और वापस किचन में चली गई।

जैसे ही राधा वहां से हटी, समीरा ने चैन की सांस ली। उसने धीरे से गुलदस्ते को नाक के पास लाकर फूलों की खुशबू को महसूस किया और हल्की सी मुस्कान उसके चेहरे पर बिखर गई।

"दानिश भी ना...!" उसने खुद से कहा और फूलों को अपने सीने से लगा लिया।

कमरे में जाकर उसने गुलदस्ते को मेज पर रखा और खुद को आईने में देखा। गालों की हल्की लाली ने उसे खुद ही शरमा दिया।

किताब वहीं पड़ी थी, मगर अब उसका मन पढ़ाई में नहीं लग रहा था। वह मुस्कुराते हुए खिड़की के पास जाकर बैठ गई और ठंडी हवा में दानिश के बारे में सोचने लगी।

समीरा खिड़की के पास बैठी थी। हल्की ठंडी हवा उसके बालों को सहला रही थी, और सामने टेबल पर रखे गुलदस्ते से गुलाबों की भीनी-भीनी खुशबू पूरे कमरे में फैल रही थी। वह एकटक उन फूलों को देख रही थी, जैसे उनसे कोई जवाब मांग रही हो।

"दानिश भी ना...!" वह धीमे से बुदबुदाई।

फूलों की कोमल पंखुड़ियों को उंगलियों से छूते हुए उसके चेहरे पर एक हल्की मुस्कान आ गई। मगर अगले ही पल वह जैसे किसी गहरी सोच में डूब गई। उसकी मुस्कान फीकी पड़ गई, और उसके मन में हलचल होने लगी।

"मैंने तो तय किया था कि मुझे दानिश से दूर रहना है..."

यह सोचते ही उसकी उंगलियां सख्त हो गईं, और गुलाब की एक नाजुक पंखुड़ी उसकी पकड़ में आकर मुरझा गई। समीरा ने झट से हाथ पीछे कर लिया, मानो किसी गलती का एहसास हुआ हो।

पर धीरे-धीरे समीरा को एहसास हुआ कि वह दानिश के बहुत करीब आ रही है। एक ऐसी नजदीकी, जो उसे डराने लगी थी।

"नहीं... मुझे खुद को रोकना होगा," उसने खुद से कहा था।

वजह साफ थी—उसका परिवार, उसके पिता, उसके अपने सपने। वह जानती थी कि उसके पिता कभी नहीं चाहेंगी कि वह किसी रिश्ते में पड़े। वे हमेशा यही कहते हैं—

"पहले अपना करियर बनाओ, फिर किसी और चीज़ के बारे में सोचना।"

और यही सोचकर उसने फैसला किया था कि वह दानिश से दूर रहेगी।

अंदर का संघर्ष

लेकिन आज... इन फूलों को देखकर वह फैसला कमजोर पड़ रहा था।

"क्या यह सही है?" समीरा ने खुद से पूछा।

वह खुद को समझाने की कोशिश कर रही थी कि ये सिर्फ फूल हैं, कुछ खास नहीं। लेकिन उसके दिल की धड़कनें उसे झूठा साबित कर रही थीं।

मन का द्वंद्व

लेकिन क्या उसने सही कर रही है, ऐसे ख्याल उसे परेशान कर रहे थे |

"नहीं, मुझे अपने फैसले पर कायम रहना होगा," उसने खुद को याद दिलाया।

समीरा ने गुलदस्ते को उठाया और कुछ देर तक उसे घूरती रही। फिर अचानक उसने खिड़की खोली और फूलों को बाहर फेंकने के लिए हाथ बढ़ाया... लेकिन वह रुक गई।

उसका दिल नहीं माना।

आखिर वह गुलाब थे—खूबसूरत, कोमल, स्नेह भरे। इन्हें फेंककर वह क्या साबित कर पाएगी?

"शायद, मुझे खुद को थोड़ा और समय देना चाहिए..." उसने धीरे से कहा और गुलदस्ते को वापस टेबल पर रख दिया।

वह खिड़की के पास बैठ गई, और ठंडी हवा में एक बार फिर खो गई—इस बार खुद से और अपनी भावनाओं से लड़ते हुए।

माथूर हाउस – एक नया मोड़

शाम का अंधेरा धीरे-धीरे घिरने लगा था। रसोई में काम खत्म करने के बाद राधा ने एक कप चाय बनाई और उसे लेकर ड्राइंग रूम में आ गई। माथूर हाउस में एक अजीब-सी शांति पसरी हुई थी, लेकिन राधा के मन में कुछ हलचल मची हुई थी।

वह सोफे पर बैठी ही थी कि दरवाजे पर दस्तक हुई।

"लगता है अजय आ गए," राधा ने खुद से कहा और जल्दी से उठकर दरवाजा खोला।

सामने अजय माथुर खड़े थे, माथे पर दिनभर की थकान के निशान लिए हुए। उनके हाथ में ऑफिस का बैग था, और चेहरे पर हमेशा की तरह गंभीरता झलक रही थी।

"आ गए आप?" राधा ने मुस्कुराते हुए कहा और बैग लेने के लिए हाथ बढ़ाया।

"हां, आज ऑफिस में कुछ ज्यादा ही काम था," अजय ने अंदर कदम रखते हुए कहा।

राधा उनके लिए चाय लेने किचन की तरफ मुड़ ही रही थी कि अचानक कुछ सोचकर ठिठक गई। फिर वापस उनकी ओर मुड़ी और गंभीर स्वर में बोली, "अजय, एक बात करनी थी आपसे।"

अजय ने उसकी तरफ देखा, "हम्म, कहो। क्या हुआ?"

राधा ने चारों तरफ देखा, यह सुनिश्चित करने के लिए कि समीरा आसपास तो नहीं थी। फिर उसने धीमे स्वर में कहा, "आज घर पर एक अजनबी आया था।"

अजय की भौहें तन गईं, "अजनबी? कौन?"

राधा ने धीरे से सिर हिलाया, "पता नहीं, समीरा ने दरवाजा खोला था वो कुछ देर बाद करी फिर चला गया। जब मैंने समीरा से पूछा, तो उसने कहा कि वह बस रास्ता पूछ रहा था। लेकिन उसकी हरकतें... मुझे कुछ अजीब लगीं।"