Gomti you keep flowing - 16 in Hindi Biography by Prafulla Kumar Tripathi books and stories PDF | गोमती तुम बहती रहना - 16

Featured Books
Categories
Share

गोमती तुम बहती रहना - 16

दगे  हुए कारतूसों के बीच जीवन का उत्तरार्ध बीत रहाहै। आप तो जानते ही हैं कि कारतूस दो तरह के होते हैं |एक जिंदा और दूसरा दगा हुआ जिसे प्राय: लोग खोखा भी कहते हैं |जिंदा और कार्यशील कारतूस में खोल , गोली ,प्रोपेलेंट यानी धमाका करने वाली सामग्री भरी होती है जिससे वह हमेशा फायरिंग के लिए तैयार रहता है |दगा हुआ कारतूस बेकार और निष्प्रभावी होता है |अक्सर इसका उपयोग कहावतों और मुहावरों के लिए होता चला आया है |मेरी आत्मकथा का यह रोचक प्रसंग भी मुख्यत: उसी कहावत से जुड़ा हुआ है |                   

मैं अपने जीवन के अंतिम पड़ाव के 75 वें वर्ष में जहां जिस कालोनी में रह रहा हूँ उसका नाम है विज्ञानपुरी |लखनऊ के पाश इलाके महानगर विस्तार में यह सुव्यवस्थित कालोनी है जिसकी स्थापना वर्ष 1960 में उ.प्र.पुलिस की सी.आई.डी.विभाग के अंतर्गत आने वाली इकाई एफ.एस.एल.के अधिकारियों ने की थी | इसमें अलग अलग साइज़ के लगभग 70 आवासीय परिसर, दो बड़े बड़े पार्क एक सामुदायिक केंद्र और एक 15 दुकानों वाला व्यावसायिक परिसर है |स्थापना के समय  पुलिस वालों की यह कालोनी थी लेकिन अब या तो वे रिटायर हो चले हैं या दिवंगत इसलिए अब कालोनी में गैर पुलिस वाले भी बसते चले जा रहे हैं |एक समय में या यह कहें कि अब भी इस कालोनी में पुलिस वालों का दबदबा रहता है | हालांकि साहब लोग रिटायर हो चले हैं और अब उनकी अगली पीढ़ी रह रही है लेकिन येन केन प्रकारेण अपनी हैसियत और दबदबा बनाए रखने को हर पल वे उद्यत रहते रहे हैं  |यह भी अजब संयोग था कि इसी कालोनी में दो दो पुलिस प्रमुखों (डीजीपी) का भी घर रहा है |                       मुझे यहाँ आने का अवसर पुलिस विभाग के एक छोटे कर्मचारी ने प्रदान किया |उसने 30x60 साइज़ का प्लॉट तो ले लिया था लेकिन वह मकान बनवाने में सक्षम नहीं था | उसने वह प्लॉट मुझे बेंच दिया  |मेरे साढ़ू स्व.ओ.पी.एम.त्रिपाठी,डिप्टी एस.पी., जो उन दिनों डी.जी.पी. के पी.आर.ओ.  हुआ करते थे और उसी कालोनी में रहते थे और उस सोसायटी के सचिव भी थे ने मध्यस्थता करके इसे दिलाया था | यह संयोग देखिए कि पिछले लगभग 12 वर्षों से मैं , इन दगे कारतूस वालों की कालोनी में ना केवल धाक से रह रहा हूँ बल्कि इस कालोनी की सोसायटी का सचिव हूँ | लखनऊ में इस जमीन की रजिस्ट्री आदि होने के समय हमलोग गोरखपुर रह रहे थे |वैसे लखनऊ में पहले से ही एक मकान रिंग रोड से सटे कल्याणपुर मुहल्ले में बना रखा था जो किराए पर था | जमीन पर कई लोगों की निगाहें थीं और जब उस सिपाही ने मुझे बेंच दिया तो स्वाभाविक था कि उनकी भृकुटी तन  जाए | वह जमीन उनको मिल जाती अगर वे अपनी पोस्ट का दबदबा बनाकर ना बात या सौदा करते |जमीन की रजिस्ट्री के एक महीने भी नहीं हुए थे कि उन दगे कारतूसों ने मुझ पर फायरिंग शुरू कर दी |सोसायटी को कंधा बना कर पत्र आने लगे कि जल्द से जल्द खाली जमीन पर मकान बना लिया जाए |मुझे तभी आशंका हो चली कि इन दगे कारतूसों के साथ रहना मुश्किल होगा |                   

वर्ष 2003 में जब मेरी पत्नी और मैंने  लखनऊ पोस्टिंग पाई तो अपने लखनऊ के उसी कल्याणपुर के मकान को अपने रहने का ठिकाना बनाया | लेकिन अब मानो विज्ञानपुरी भी बुलाने लगा था |जमीन तो थी लेकिन मकान निर्माण के लिए समस्या अर्थ जुटाने की प्रमुख थी |उधर भवन निर्माण के लिए सोसायटी के पत्र लगातार आ रहे थे | मेरी पत्नी का भरसक प्रयत्न रहा कि किसी न किसी तरह हमलोग जल्द से जल्द मकान बनवा कर उसमें शिफ्ट हो जाएं |    मकान निर्माण की कल्पना अब साकार होने लगी थी |एक अच्छे इंजीनियर और मकान बनवाने के लिए सिविल इंजीनियर कम कॉन्ट्रैक्टर की  तलाश शुरू हुई |पारिवारिक मित्र श्री अविनाश चंद्र वैश्य और किरण वैश्य आगे बढ़ कर इंजीनियर अजय गुप्ता को नक्शा बनाने के लिए ले  आए तो निर्माण के लिए सिविल इंजीनियर अपने एक रिश्तेदार राजेन्द्र गुप्ता को लाए |नक्शा बन गया और साढ़ू साहब के एप्रोच से  एल.डी. ए.से पास होकर आ भी गया |अब सामने उपस्थित हो गया यक्ष प्रश्न कि मकान बनवाने के लिए पैसे कहाँ से आएंगे ? संभावनाएं तलाशी जाने लगीं |दोनों बेटों से अभी कोई सहयोग मिलना संभव नहीं था |एक एन. डी. ए.  पुणे में ट्रेनिंग कर रहे थे और दूसरे अभी अभी कमीशन  पाकर कारगिल  में पोस्टेड थे |हमने अपना अपना बैंक खाता खंगाला तो दोनों के खातों में मुश्किल से दो ढाई लाख |भगवान की कृपया से अब एक बार फिर वही पारिवारिक मित्र मदद करने के लिए आगे आए | कोई और रास्ता ना देख कर झिझकते हुए हमने उनका ऑफर स्वीकार कर लिया और मकान बनवाने का श्रीगणेश हो गया |                     

भूमि पूजन मेरे छोटे बेटे यश ने किया |इंजीनियर अजय गुप्ता ने बहुत सुंदर नक्शा बनाया था और उस दौर में मकान निर्माण में लागत लगभग 20 लाख आने की संभावना उन्होंने व्यक्त की थी |मेरे घरवालों का कोई आर्थिक सहयोग मिलने का सवाल ही नहीं था |उन सभी की दृष्टि में मैं  आर्थिक रूप से बहुत सम्पन्न व्यक्ति था | उनको यह बात भी खटकती थी कि हम दोनों कमाते हैं | इसके अलावे एक  मनोवैज्ञानिक कारण यह था कि परंपराओं में जकड़े वे लोग गाड़ी, मकान, फ्रिज,ए. सी., कलर टी. वी.  आदि को विलासिता की सामग्री समझ कर उससे परहेज कर रहे थे और मैं इन सभी को जीवन के लिए आवश्यक समझ कर खर्च में संयम और बचत करके खरीदता जा रहा था |इसीलिए घर में सबसे पहले ये सारी चीजें हमने जुटाईं थीं और इससे उन्हें लगने लगा था  कि हमलोग आर्थिक रुप से बहुत सुदृढ़ हैं |बहरहाल विज्ञानपुरी के आशियाने को बनाने का हमारा प्रयास जारी रहा |हमने पाँच लाख का लोन भारतीय स्टेट  बैंक से उठाया |लगभग इतनी ही धनराशि हमें वैश्य परिवार ने उधार दे दी | अब मकान बनने लगा | वह अजीब दौर था |दोनों बेटे बाहर , मैं अपनी हिप ज्वाइंट की बीमारी के चलते अस्वस्थ |पत्नी की नौकरी | उन दिनों का अपना रहायशी मकान भी लगभग दो किलोमीटर दूर |ऐसा भी नहीं कि सुबह शाम आकर देख लें |                     

मेरे इंजीनियर बहुत सूझ बूझ वाले निकले |अगल बगल के साहिबों के बात व्यवहार से , उनकी सहूलियतों से वाकिफ़ होते रहे ले और उसी के अनुकूल मकान बनवाने का काम कराने लगे | मौरंग या इंटें सड़क पर क्यों फैली है-इन्हें  हटाओ, देखो तुम्हारी बाउंड्री वाल सड़क कवर कर रही है -पीछे ले जाओ या तुम लोग शोर  बहुत मचाते रहते हो जैसी आपत्तियों का सामना करते- करते  अंतत: वे भी हारने लगे | उनका धैर्य,उनकी सूझ बूझ डिगने लगी |एक दिन तो एक साहब ने भोर में टहलने जाते हुए तीन चार रद्दे की बाउंड्री वाल पैर से ठोकरें मार कर गिरा डालीं | प्रत्यक्ष या परोक्ष मुझे  इन दगे हुए कारतूसों से जो मुकाबला करना पड़ रहा था ! मैं नया होने, गैर पुलिस वाला (सिविलियन )होने के नाते और भी इनके निशाने पर लगातार बनता  रहा और उनसे मोर्चा मेरे इंजीनियर संभाल रहे थे |उधर पड़ोसी को यह चिंता कि मेरे मकान की कुर्सी ऊंची ना होने पाए अथवा कहीं सीलन उनके मकान को ग्रास ना बना ले तो सामने वाले नकली ठाकुर सर नेम लिखने वाले सज्जन (हालांकि बेहतर हो उनको दुर्जन कहूँ )जो पहले से सड़क का पाँच फिट हिस्सा हड़प चुके थे चाहते थे कि एक भी इंच मेरी बाउंड्री सड़क को ना छूने पाए | चालाक इतने कि सामने वाले के घर से लगी और अपने बगल की हीवेट पॉलिटेकनिक की खाली जमीन का लगभग एक एकड़ हिस्सा भी कब्जा कर बैठे थे |जब नौकरी पानी हो या प्रमोशन तो दलित बन जाया करते थे |बहरहाल भूमि पूजन,नींव पूजन  और गृह निर्माण के दौरान ही इस कालोनी के नाज़ ओ नखरे उठाना शुरू हो गया |और हाँ , यह तो बताना भूल ही गया कि नकली ठाकुर और उनके दगे हुए कारतूस पर मैंने एक कहानी भी लिखी थी जो बहुत चर्चित हुई थी – “काली गाड़ी लाल सवार |”

5 मई 2005 को हमारा गृह प्रवेश हुआ और उसके उपलक्ष्य में 8 मई को हमने सभी परिचित अपरिचित कालोनीवासियों को दोपहर भोज दिया | कुछ आए कुछ आने में अपनी तौहीन समझ कर नहीं आए |आश्चर्य  यह कि पीठ पीछे मुझे या मेरे कारिंदों को तंग करने वाले भी व्हाइट कॉलर लिए आए |अब धीरे धीरे वे मुझको और मैं उनको जानने समझने लगा |दगे कारतूस वाले जान चुके थे कि बंदा अब डट  कर रहेगा ,भागने वाला नहीं है |कालोनी में सबसे हट कर सुंदर दिखने वाले इस मकान के बनने और उसमें रहने से मेरे साढ़ू का परिवार , वैश्य परिवार और मेरे बच्चे बहुत खुश थे |एक और मजेदार बात बताऊँ ?गृह प्रवेश समारोह का कार्ड पाकर मेरे परिजन चौंक चौंक  गए,लगभग सदमें में आ गए और उन्हें कुछ ना सूझा तो मिल कर इसका बहिष्कार कर दिए |बाद में कारण पूछने पर मुझे बताया गया कि मकान बनने की सूचना उनसे पहले क्यों नहीं शेयर की गई थी इस बात से वे नाराज थे |मैंने बताया कि हम उन सभी  को सरप्राइज़ देना चाहते थे |आगे के वर्षों में यही मकान उन सभी के लिए  समय समय पर आश्रय स्थल बनता रहा | उन सभी के (मेरी सगी सुसम्पन्न घर में ब्याही , बड़ी बहन डा. विजया उपाध्याय) के लिए भी जिनने पिता जी की मृत्यु के बाद मधुमेह से अस्वस्थ चल रही अम्मा की  सेवा सुश्रूषा के बदले गोरखपुर में मेरी लगातार अनुपस्थिति का लाभ उठा कर अम्मा से एक ऐसी रजिस्टर्ड वसीयत लिखवा ली थी जिसमें मुझे गोरखपुर के मकान में हिस्से पाने से वंचित हो जाना पड़  सकता था | बड़ी बहन के इस शर्मनाक व्यवहार पर आज भी उनको कतई शर्म नहीं आती है जब कि मुझे मेरे मन को अब भी ग्लानि होती है कि एक गृहस्थ सद पुरुष (मेरे पिता आचार्य प्रतापादित्य जी ) के घर में अपनों द्वारा अपनों के लिए कुत्सित राजनीति की बिसातें क्यों कर बिछती रहीं ? क्या पालन पोषण में दोष था ?दोष था तो कहाँ और क्यों ?ये मेरी वही माँ सदृश बड़ी बहन विजया थीं  जो हिन्दी में पी. एच. डी.  के लिए शोध करते समय मुझे लेकर अपने गाइड प्रोफेसर परमानन्द श्रीवास्तव तो कभी विभागाध्यक्ष तिवारी जी तो कभी रीडर प्रोफेसर भगवती प्रसाद सिंह तो कभी एक्सपर्ट बन कर आए प्रोफेसर नामवर सिंह से मिलने जाती रहीं |आज मुझे वर्ष 1972 में  अपने सम्पादन में गोरखपुर विश्वविद्यालय से पहली बार छपी “छात्रसंघ पत्रिका “ में प्रकाशित उनकी एक लंबी कविता “शून्य के अपर्याप्त दांतों के नीचे“ की याद आ रही है जिसमें उन्होंने लिखा था-“समस्याएं , बादलों की तरह उमड़ कर घेर लेती हैं मुझे और ,उनका अंत होता  है शून्य के अपर्याप्त दांतों के नीचे !”मुझे आश्चर्य है बहन कि तब से अब तक लगभग तीस सालों में आपके ये अपर्याप्त दांत कितनी पूर्णता पा लिए कि मुझे ही चबा डालने की मंशा लेकर आप मेरे अस्तित्व से ही खिलवाड़ कर बैठीं ?पारिवारिक खून के रिश्तों के रक्त रंजित हो सकने वाले इस संदर्भ को फिलहाल बाद में उठाऊँगा , उसकी रोमांचक और शर्मनाक कहानी आगे , फिर कभी | और हां इन दगे हुए  कारतूसों के बीच व्यतीत दिनों की कुछ और रोचक कहानियां आगे फिर कभी ।(क्रमशः )।