Birds of Passage in Hindi Short Stories by Devendra Kumar books and stories PDF | बर्डऑफ़ पैडेज

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बर्डऑफ़ पैडेज

 
बर्ड्स ऑफ़ पैसेज  
विदेश मंत्रालय की विदेश सेवा में राजनयिक बन कर जाना हमारे समय में सर्वोत्कृष्ट सर्विस माना जाता था| इसीलिये आईए.एस. की परीक्षा के फार्म भरते समय लगभग सभी उम्मीदवार अपनी ‘चॉइस लिखने के कॉलम  में पहले स्थान पर आई.ए.एस. चुनना पसंद करते थे| मेरिट लिस्ट में ऊपर रहने वाले लगभग सभी उम्मीदवार इसी को चुन कर विदेश सेवा में जाया करते थे| भारत के प्रथम प्रधान मंत्री विदेश मंत्रालय को हमेशा अपने पास  रखते थे, तथा दूतावास व हाई कमीशनों के राजदूतों को भारत की विदेशों में अच्छी छवि बनाने पर बहुत ज्यादा जोर देते थे! हमारे प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरु के समय विदेश मंत्रालय, और इसकी इंडियन फॉरेन सर्विस (आईएफएस) की सबसे ज्यादा तूती बोलती थी|
अब यह रूझान पूरा बदली होता जा रहा है, क्योंकि आजकल सिविल सर्विस में सफल उम्मीदवारों की पहली पसंद अब देश की आई|ए.एस हो गयी है, न कि आई.ए.एस. कारण शायद यह है वहां के ठाठ-बाट, मोटा फ़ोरेंन अलाउंस, रिप्रजेंटेशन अलाउंस, फ्री फर्निश्ड बढ़िया निवास स्थान, सरवेंट अलाउंस, डिप्लोमेटिक इम्युनिटी अभी भी मिलते हैं पर अब उम्मीदवारों को आकर्षक नहीं लगते| वैसे भी ‘जंगल में मोर नाचा किसने देखा’, वहां के ठाठबाट यहाँ कहाँ दिखते हैं| यहाँ सब को दिखने वाली आई.ए.एस. अधिकारियों की पॉवर और प्रतिष्ठा ज्यादा अच्छी लगती है| इसमें कोई शक भी नहीं हैं दोनों ही सर्विस बहुत ऊँचें दर्जे की हैं, विदेश सेवा बहुत ठाठ बाट की हैं पहले भी थी और अभी भी हैं| यह तो समय समय की बात है, जायके बदलते जा रहे हैं, परिस्थतियाँ बदलती जा रहीं है| पहले परिवार में, मोहल्ले पडौस में कोई कोई बिरला ही विदेश जाकर आया हुआ होता था, वह भी अधिकतर विलायती या ‘लंदन पलट’ कहलाने लगता था| विदेश के रोब के कारण लोगबाग शान में बच्चों के नाम विलायती राम या पंजाब में कई बार जर्मन जीत सिंह जैसे विचित्र नाम भी दे दिए जाते थे| यहाँ तक कि मेरे एक पंजाबी मित्र के ताया जी का नाम ‘लंदन तोड़ सिंह’ था| पर प्रयोग में इन नाम वाले अपने आप को जे|जे|सिंह या एल.टी.सिंह बताया करते थे| यह थी विदेश की महिमा| आजकल तो घर घर से बच्चे विदेश में हैं तथा यहाँ वाले भी खूब आते जाते रहते हैं| भारत से बाहर भारतीयों की संख्या बहुत तेजी से बढती जा रही हैं| विदेश और विदेश सेवा खास से आम हो गये हैं,
भारत में भी अब सरकारी सेवा में पे स्केल ऊँचे होते जा रहे हैं बहुत अच्छा वेतन मिलने लगा है| जो आधुनिक सुख सुविधा विदेशों में थी अब काफी कुछ यहाँ भी मौजूद हैं| कौन सी ऐसी चीज़ है जो विलायत में मिलती है यहाँ नहीं मिलती? सब कुछ यहाँ भी आसानी से मिल रहा है| दूसरे पहले विदेश में काम करना पढना या घूमना बड़े या महत्वपूर्ण लोगों की बपौती थी, आम भारतीय के लिये तो एक सपना या काल्पनिक लोक ही तो था|
बदली स्थिति में यदि अब यह कहें कि आईएफएस शान की सर्विस नहीं है, बिलकुल गलत होगा| निश्चित रूप से यह भी एक बहुत शानदार सर्विस है इसमें जो ठाठ बाट, बंगले, गाडी सुख सुविधा और इज्जत मिलती है, वह स्वदेश के सिविल सर्विस वालों को नहीं मिल पाती है, बस यह भी ठीक है ‘जंगल में मोर नाचा किसने देखा’ वाली बात है; जो दिखता है वह बिकता है”| जो आँखों से ओझल हो गए तो किस को क्या पता विदेश में कितने ठाठ कर रहे हैं, क्या रूतबा है? जो सामने दिखता है वही ज्यादा माना जाता है यही कारण है कि अधिकांश सिविल सर्विस उम्मीदवारों की पहली पसंद बदली हो कर आईएएस हो गयी है| लोगों को रूतबा तो यहाँ अपने देश मैं दिखाई देता है कि एस|डी|एम|,जिलाधीश या डिप्टी कमिश्नर, या कमिश्नर की अपने अपने क्षेत्र में कितनी पॉवर है और सम्मान है, लोग कितना आगे पीछे घूमते हैं, भले ही| आजकल लोकल एम.एल.ए. ओर सांसद भी उनके सरकारी काम में, दखल डालते है और कभी कभी उनसे गलत ढ़ंग पेश आते हैं और तरह-तरह के जायज़-नाजायज़ दबाब डालते हैं| आई.एफ.एफ.अफसर तो भारत में पोस्टिंग के दौरान केवल मंत्रालय में ही कार्य कर सकते है, यहाँ तो पब्लिक के कुछ आम आदमियों के मतलब का नहीं है| बस यही सब कारण हैं कि पहले नवयुवक उम्मीदवार आई.एफ.एस. और अब आई.ए.एस. को वरीयता देने लगे है|
विदेश पोस्टिंग में कई तरह के देश में अलग अलग भाषाओं, संस्कृति, रिवाज़,विश्वास, खान पान और शासन प्रणालियों में रह कर अपना और अपने देश के हित का काम करना पड़ता है, जिसमें मजेदार घटनाओं और किस्से याद रहते हैं| उनके मजेदार अनुभवों का विवरण याद आता रहता है, और उनका आउटलुक या दृष्टिकोण बहुत विशद होता रहता है| मानसिकता भी अलग अलग देशों में कुछ कुछ सोख लेती है व्यक्तित्व का विकास होता रहता है|आत्म-विश्वास बढ़ता है| बहुत से राष्ट्राध्यक्ष लोगों से मिलना जुलना तथा बात करने का अवसर मिलता है| अधिकतर विदेश सेवा में रहे अधिकारी गण कई कई विदेशी भाषाएँ सीख जाते हैं दुनिया में क्या कुछ चल रहा है, कौन देश आगे बढ़ रहे है, कौन सा पोलिटिकल सिस्टम कहाँ चल रहा है आदि का ज्ञान बढ़ जाता| किन देशों की सरकारें मज़बूत हैं, कहाँ कमज़ोर, कहाँ डिक्टेटरशिप चल रही है, कहाँ का तख्ता पलटने वाला है का काफी ज्ञान हो जाता है| कहना चाहिए बाहर की, दींन दुनिया की जानकारी बढ़ जाती है अर्थात जियोपोलिटिकल ज्ञान और समझ होती है| साथ के सिविल सर्विस के आईएएस भारत से बाहर की दुनिया के ज्ञान में ‘कूपमंडूक रह जाते हैं|’ ऐसे ही आईएफएस इतना अधिक विदेशों में रह जाते हैं कि वे अपने देश में भी अलग तरह की सोच रखने लगते है, असुविधा महसूस करते हैं, उनके बच्चे यहाँ बिलकुल भी एडजस्ट नहीं हो पाते हैं और बाहर ही पढ़ते व सेटल होते हैं और रिटायर्ड माता पिता अंत समय भारत में गुजारते हैं,उन्हें तो बार बार नए देशों में पोस्टिंग में भी बहुत एडजस्टमेंट की आदत रहती है| जिसके बगैर गुजारा संभव नहीं है|
चलो अब असली विदेश सेवा के मुद्दें पर आकर वहां की आप बीती कुछ मनोरंजन घटनाओं का ज़िक्र कर लिया जाए| जब भी पहली विदेश पोस्टिंग मिलती है, बहुत एक्साइटमेंट या उतेज़ना मन में रहती है, दुनिया भर की तैयारियां करते हैं, उस देश के बारे में जितना पढ़ सकते उतना पढ़ते हैं,जैसे कंट्री नोट, वहां का रहन सहन, भाषा,बोली रिवाज़, बच्चों के स्कूल, कॉलेज, मौसम आदि आदि| विदेश मंत्रालय के स्कूल ऑफ़ लैंग्वेजेज से वहां की भाषा की बेसिक सिखलाई करते हैं| उन को आम नागरिक या सरकारी ऑफिसर से अलग एक डिप्लोमेट के तौर तरीके, एटिकेट सीखने होते हैं| फॉर्मल ड्रेस, डिप्लोमेटिक पार्टीज के तौर तरीके अपनाना सीखना पड़ता है क्योंकि आपको अपने देश का प्रतिनिधित्व करना होता है| मजाक में कहें तो मेंढक की लाइफ साइकिल में ‘टेडपोल से मेढक बनने की मेटामोरफ़ोसीस या कायापलट करनी पड़ती है| मन में एक नए देश और लाइफ की कल्पना बिलकुल नए तरह का डिप्लोमेटिक कार्य, दिल्ली के चाणक्यपुरी जैसी एम्बेसियों और लम्बी सी|डी|(कंट्री डिप्लोमेट) की नंबर प्लेट वाली गाड़ियां और उसमें हमेशा सूट और टाई वाले राजनयिक की तरह अपने आपको ढालना बड़ा रोमांटिक लगता है| एक दम देसी से विदेशी बनने की परिकल्पना ऐसी लग रही थी जैसे असली जीवन में नहीं बस जैसे फिल्म में एक्टिंग करना है| यही सब मुझे पहली पोस्टिंग के समय मेंरे साथ हुआ था| लगता था जैसे कोई दिमाग में बैठा कोई ढोलची ढोल बजा रहा हो, मुनादी कर रहा हो जिस से दिल की धड़कन भी थोडा बढ़ जाती थी, रोमांच होता था| हमें पहली बार लाल रंग का डिप्लोमेटिक पासपोर्ट दिया गया था, आम से ख़ास पासपोर्ट| बताया गया कि राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री भी इसी प्रकार का पास पोर्ट प्रयोग में लाते हैं|
इधर उधर की बातें छोड़ कर असली मुद्दे पर आते हैं, मुझे पहली डिप्लोमेटिक पोस्टिंग नामीबिया देश की मिली थी, जो अफ्रीका महाद्वीप में दक्षिणी भाग में अटलांटिक महासागर के किनारे किनारे पश्चिम छोर पर था| इसका पुराना नाम साउथ वेस्ट अफ्रीका था| मैंने जाने से पहले जितना सब कुछ उसके बारे मे पढ़ डाला था| पता अलग व भिन्न तरह का देश है, दुनिया के सबसे सूखे इलाके मे से एक, जिसमें प्रसिद्ध नामिब रेगिस्तान किनारे पर लम्बी दूरी तक अटलांटिक महासागर के साथ साथ चलता है| यहाँ की वनस्पति और पशुपक्षी अर्थात जंतु जगत व वनस्पति भी बहुत न्यारी हैं, बहुत अलग बायो-डाइवर्सिटी है| इस देश की जनसँख्या बहुत ही कम है, एरिया काफी विस्तृत है| अच्छी बात थी सरकारी काम-काज की भाषा अंग्रेजी थी| उस समय सीधी उड़ाने कम थी पहले दिल्ली से मुंबई गए, वहां से दूसरी फ्लाइट से जोहान्सबर्ग गए, पर पहुँचने से थोडी दूर पहले जोहान्सबर्ग से नामीबिया वाली फ्लाइट निकल चुकी थी| उतरते ही परिवार को सामान के पास बैठा कर एयर इंडिया काउंटर पर पहुंचा, एयर इंडिया का स्टाफ अपना काउंटर समेत रहा था, काउंटर पर बैठे इन्चार्ज से पूछने पर उसने लापरवाही से बताया “अगली फ्लाइट अब कल जायेगी तब आना| मैंने पूछा , “ अब हम कहाँ ठहरें आपकी फ्लाइट से आये हैं पूरा टिकेट एयर इंडिया से है| उसने कहा “यहीं लौंज या बाहर होटल में जहाँ बस आती जाती है|” मैंने समझाया मेरे पास साउथ अफ्रीका का वीसा नहीं है अतः मेरा यहीं अन्दर इंतजाम कर दीजिए| उसने इंकार कर दिया| मैंने अपने लाल डिप्लोमेटिक पासपोर्ट दिखा कर कहा,”एयर इंडिया के इंचार्ज को बुलाईये|” थोडी देर में इंचार्ज आया, समस्या बताते ही उसने माफ़ी मांगते हुए कहा “सॉरी एक्सेलेंसी,यहाँ बहुत कम एकोमेडेशन है, बहुत कम मिल पाती है मैं खुद जाकर आपके लिये लाता हूँ|” और कुछ ही देर में डबल बेड के दो रूम की चाबी लेकर सौंप दी और उसी स्टाफ को मदद के लिये भेजा| पहली बार जिंदगी में अपने लिये “एक्सेलेंसी” सुन कर विदेश में डिप्लोमेट और डिप्लोमेटिक पासपोर्ट की महिमा जानी वर्ना तो रात सामान के साथ और बच्चों के साथ जगे जगे लौंज में गुजारनी पड़ती | देखा जाये तो ऐसी स्थिति में एयर इंडिया को हर किसी अपने पैसेंजर को ऐसे ही मदद करना चाहिए| पर शायद हम भारतवासियों को ऐसी ही बीमारी है, मंदिरों में भी साधारण और विशेष दर्शनार्थी होते हैं या पूजा की थाली गरीब अमीर और पूजा का समय तथा अलग अलग सुविधा दी जाती है| शायद हमारा माइंड सेट ही ऐसा है|
अगले दिन पता लगा एयर इंडिया जोहान्सबर्ग ने मेरे अगले दिन आने के बारे में एयर इंडिया के नामीबिया ऑफिस को सूचित कर दिया था तथा एयर इंडिया नामीबिया ने इंडियन हाई कमीशन के हेड ऑफ़ चांसरी को भी सूचित कर दिया है| वहां पहुँचते ही नामीबिया के एयरपोर्ट पर इंडियन हाई कमीशन से एक लैंड क्रूजर गाडी और दो स्टाफ लेने के लिये आये हुए थे| उन्होंने हमें ले जाकर एक फाइव स्टार होटल जिसका नाम था कालाहारी सैंड होटल में चेक इन कराया| हाई कमीशन ने बुकिंग इसी होटल में की हुई थी| होटल में ही एक काफी बड़ा और शानदार मॉल भी था| मेरी अफ्रीका के लिये धारणा अलग थी कि लोग तथा रहन सहन काफी पिछड़े होंगे कुछ आदिम ढ़ंग के मकान, मुहल्ले होंगे, कम से कम थोडी बहुत झोंपड़ी या कच्चे अधपक्के मकान होंगे| विंडहुक,जो यहाँ की राजधानी है को देख कर अगर यह कहूं की दांतो के नीचे ऊँगली दबानी पड़ी थी तो अतिशयोक्ति नहीं होगी| कितनी साफ़ सुथरी चौडी सड़कें थी, इतना व्यवस्थित ट्रैफिक, प्रदूषण का कहीं नामोमोनिशान नहीं था| हाँ, वहां दिल्ली, मुम्बई जैसी ऊँची इमारतें नहीं थी, न हीं उतना बड़ा जन समूह| हाँ, यहाँ लोग बाग़ बहुत हँसते हंसाते, और एक दूसरे से मिल जुल रहे थे, मुझे था कि यहाँ के लोग आदिम ढ़ंग से रहते होंगे, देखने में खूंखार होंगे| हाँ मुझे जो भी मिलता अनजान होते हुए भी हंस कर गुड मोर्निंग कर रहा था, जाते जाते ‘हेव ऐ नाईस डे’ कह कर जाता था| अपने देश में तो रास्ते में केवल जानने वाले को ही ‘विश’ किया जाता है| यहाँ का हर आदमी बेफिक्र तथा खुश दिख रहा था, हम भारतीयों की तरह बिना मतलब भी गंभीर व चिन्तित नहीं दिख रहा था| यहाँ के लोग हँसते भी बड़ी जोर जोर से थे| बहुत से लोकल नामिबियन शरीर से काफी विशालकाय थे| एक सप्ताह बाद मुझे अपने डेजिगनेटेड या नामित निवास में भेज दिया गया था जो मुझ से पहले ऑफिसर के पास था जो रिलीव होकर अपने देश वापिस चले गये थे| होटल में रहते समय एक घटना हुई थी जो अभी तक याद है| मैं लिफ्ट में नीचे से ऊपर जा रहा था साथ में एक बहुत सुन्दर और लम्बी पतली यूरोपियन युवती ने मुझे विश किया और पूछा, “आप इंडिया से हैं, सुष्मिता सेन की कंट्री से?” मेरे हामी भरने पर बड़े खुश हो कर हाथ मिलाया और अपना नाम ‘मिशेल’ बताया| मुझे अगले दिन मेरे सहयोगी ने बताया गया कि मिशेल मेकलीन बहुत लोकप्रिय युवती है जो नामीबिया की एकमात्र मिस यूनिवर्स रह चुकी है तथा नामीबिया के कंट्री क्लब रिसोर्ट में 1995 का मिस यूनिवर्स का चुनाव होने जा रहा है, जिसमें भारतीय विश्व सुन्दरी सुश्ष्मिता सेन अपना मिस यूनिवर्स का ताज नई मिस यूनिवर्स को सोंपने आएँगी|
उस समय भारतीय निवासियों की नामीबिया में जनसँख्या बहुत ही कम थी, अगले सप्ताह ही नयी मिस यूनिवर्स के चुनाव का समारोह देखने के लिये आयोजक स्वयं इंडियन हाई कमीशन में आकर हमें आमंत्रित करने आये थे| इस तरह के आयोजन का मुझे पहली बार ही देखने का मौका मिला था, सुष्मिता सेन नामीबिया में काफी लोकप्रिय बन चुकी थी उसने ही इस प्रतियोगिता में नई मिस यूनिवर्स चुनी गयी यूएसए की चेल्सी स्मिथ को मिस यूनिवर्स का क्राउन पहनाया| भारत की मनप्रीत बरार को रनर अप घोषित किया गया देख कर बहुत अच्छा लगा कि भारत वर्ल्ड स्टेज पर छाया हुआ था, अगले दिन इंडियन हाई कमीशन में भी दोनों सुंदरियां आकर हमारे हाई कमिश्नर से मिली हम राजनयिकों से भी उनका परिचय हुआ था जो भारत में कहाँ संभव हो सकता था? अगले ही महीने जून 1995 में एक बहुत बड़ी विजिट होने वाली थी जिसमें भारत के महामहिम राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा अपने कई देशों की राजकीय यात्रा के बाद यहाँ पधारने वाले थे, यह विदेश सर्विस में एक बड़ा अनुभव मुझे होने वाला था और हुआ भी था, नामीबिया जैसे छोटे देश के लिये भी यह एक बहुत महत्वपूर्ण राजकीय यात्रा थी, भारत ने नामीबिया के स्वतंत्र होने की मुहीम में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, भारत ही सबसे पहला देश था जिसने नामीबिया को स्वतंत्र देश के लिये सबसे पहले मान्यता दी थी|
तीन दिन की इस राजकीय यात्रा में राष्ट्रपति जी की पत्नी, पत्नी की बहन तथा एक दो अन्य परिवार जन थे तथा ही एक काफी बड़ा डेलीगेशन का काफिला था| दिल्ली से विदेश राज्य मंत्री आर एल भाटिया, एक जॉइंट सेक्रेटरी तथा एक अन्य अधिकारी भी आये हुए थे| यात्रा की लम्बी चौड़ी बात न कर दो घटनाओं का ज़िक्र कर आगे बढ़ता हूँ, राष्ट्रपति जी को नामिबियन राष्ट्रपति सेम नुजुमा ने अपने ही निवास पर विशेष रूप से ठहराया था, हमारे राष्ट्रपति के लिये अलग से रसोई की व्यवस्था की गयी थी कुक और अन्य स्टाफ साथ चल रहा था, यात्रा के अंतिम दिन उनकी रसोई में दाल समाप्त हो गयी और राष्ट्रपति जी के पीने के लिये अनार का रस भी, उनकी दाल तो अपने घर से मैं दे पाया था पर सब जगह ढूंढने पर भी अनार कहीं नहीं मिल पाया था| दूसरी घटना यह थी कुछ घंटे के लिये उन्हें प्रसिद्ध नामिब डेजर्ट दिखाने के लिये मुझे उनकी कार में साथ जाने की ड्यूटी मिली थी जो मेरे लिये बहुत बड़े सोभाग्य की बात थी| वे लगभग चार घंटे मेरे लिये बहुत महत्व पूर्ण साबित हुए, जिसमें सबसे ज्यादा मैं उनकी सरलता व सादगी से प्रभावित हुआ, पूरी देर आराम से बात ऐसे करते रहे थे व पूछते रहे थे जैसे अपने घर का कोई बड़ा बुज़ुर्ग करता है, वहां उन्होंने एक तरफ अथाह समुद्र जल से लबालब जल राशि तथा दूसरी तरफ वनस्पति विहिन रेत के टीलों की तरफ इंगित करते हुए कहा “देखिये कुदरत का खेल एक तरफ जल ही जल और दूसरी तरफ सूखा ही सूखा|” बात सही थी तभी तो इसी इलाके में आकर यूरोप से भारत की खोज के लिये निकले खोजी पुर्तगाली व अन्य यूरोपियन जहाजी ख़राब मौसम| मीठा पानी तथा किनारे के कुछ भी खाने पीने की सामग्री न मिल पाने के कारण मर खप जाते थे तथा उनके व बरबाद जहाजों के कंकालों के कारण वह एरिया ‘स्केलटन कोस्ट’ कहलाता है| रास्ते में किनारे पर लैगून में फ्लेमिंगो देख कर राष्ट्रपति जी ने गाडी रूकवा कर उनको निहारने का समय निकाला, फिर एक स्थान पर समुद्र में तीन चार डोल्फिन दिखाई दी जिन्हें दो तीन लोग देख रहे थे, वहां भी गाडी से उतर कर काफी देर तक उनकी चहल कूद देखी, फिर सैंड ड्युन्स या बालू के विशाल टीले देखते और वनस्पति व आयुर्वेद की बात बताते रहे तथा उन्होंने बाते करते हुए बताया कि उनके पिता एक बहुत अच्छे वैद्य थे तथा नेचर और वनस्पति का ज्ञान उन्हें विरासत में पिता से मिला हुआ था, मुझे मालूम था वे बड़ी उच्च कोटि के विद्वान हैं और उन्हें बहुत सी भाषाओँ का ज्ञान है पर इतने सरल और सहज देख कर बहुत आनंद की अनुभूति हुई थी, विद्या ददाति विनयम की जीती जागती मूर्ति के साथ बितायें क्षण मेरे लिये बहुत अमूल्य अनुभव हैं| पहली पोस्टिंग नामीबिया के तीन साल में आसपास के कई देश साउथ अफ्रीका, ज़ाम्बिया, ज़िम्बाब्वे| अंगोला, बोत्स्वाना व केन्या में घूमने का अवसर मिला, विश्व के सबसे विशाल विक्टोरिया फाल्स समेत अनेक नई चीज़े देखने को मिली|
यहाँ रहते विश्व के कई बड़े नेताओं को निकट से मिलने, देखने, व् सुनने का अवसर मिला था जैसे साउथ अफ्रीका के राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला, चीन के राष्ट्रपति जियांग ज़ेमीन, इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुहार्तो, अमेरिका के उप राष्ट्रपति अल गोर, केन्या के राष्ट्रपति डेनियल अराप मोई, ज़िम्बाब्वे के रोबर्ट मुगाबे आदि| इसके इनके अलावा मशहूर हस्तियाँ जैसे तत्कालीन यू|एन| सेक्रेटरी जनरल कोफ़ी अनान,जगत प्रसिद्ध डांसर माइकल जैक्सन, साउथ अफ्रीका के आर्किबिशप डेस्मंड टूटू,प्रोफसर जेफरी साच्स हार्वर्ड यूनिवर्सिटी आदि को भी सुनने का अवसर मिला| इन्ही सब कारणों से तो विदेश सेवा में सोचने समझने का दायरा बड़ा होता जाता है| अफ्रीका में बिताये तीन साल एक बड़े महाद्वीप अफ्रीका के ज्ञान को काफी बढ़ा देते हैं’ तीन वर्ष का समय इतनी जल्दी समाप्त हुआ और दूसरी पोस्टिंग हो गयी थी वह भी दुनिया की अदालत द हैग में हुई और आदेश था सीधे वहीँ पर ज्वाइन करना है|इस अंतर्राष्ट्रीय नगरी द हैग का विश्व में अपना विशेष स्थान है| नीदरलैंड एक डच नगर है जहाँ पर सेकंड वर्ल्ड वॉर के बाद 1945 के यू|एन| चार्टर के अनुसार इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस (आईसीजे) की स्थापना की गयी थी, इस तरह यह विश्व की सबसे बड़ी अदालत बन गयी है|यहाँ और भी बड़ी अदालतें जैसे परमानेंट कोर्ट ऑफ़ आर्बिट्रेशन,इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस आदि अनेक अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के हेड क्वार्टर भी यहीं हैं| यहाँ हर रोज किसी न किसी देश के डेलीगेशन, प्रतिनिधि, आते हे रहते थे यहाँ से बड़ा इंटरनेशनल एक्सपोज़र या वैश्विक अनुभव होना मुश्किल होता है| वैसे तो नीदरलैंड की भाषा डच है पर अंग्रेजी भी खूब उपयोग में आती हैं,यहाँ के कुछ लोग एक खिचड़ी भाषा का उपयोग भी कर रहे थे जिसका नाम अफ्रीकान है, दरअसल बोअर युद्ध में डच लोग साउथ अफ्रीका गए थे, वहां डच और लोकल भाषा की खिचड़ी ही अफ्रीकान भाषा है| इसी तरह वहां बहुत से सूरीनामी भारतीय भी थे जो देखने में भारतीय व बोलने में डच भाषा का उपयोग् करते थे, ये सूरीनाम दक्षिण अमेरिका से आये लोग हैं जो पहले डच कॉलोनी हुआ करती थी, इनके पुरखे बिहार से खेत मजदूर बन कर वहां गए थे, सूरीनाम को स्वतंत्रता मिलने पर ये नीदरलैंड में आ बस गए थे| यहाँ की पोस्टिंग बड़ी उपयोगी साबित हुई विभिन्न देशों के लोगों के डिप्लोमेट्स तथा बड़े राज प्रमुख देखने को जानने को मिले, उनके देशों के क्या-क्या विवाद चल रहे हैं उनको जानने का बड़ा उत्तम अवसर मिला|
विकसित देश है पर स्वास्थ्य का ध्यान रखने के कारण यहाँ साइकिलों का बहुत उपयोग और चलन है जो देख कर बहुत अच्छा लगा| एक वहां कि विंड-मिल्स जो ग्रीन एनर्जी का बड़ा साधन हैं|यहाँ की अच्छी पोस्टिंग के बाद दिल्ली हेड क्वार्टर में पोस्टिंग से स्वदेश जाने की ख़ुशी थी| तीन साल का कार्य काल दिल्ली में गुज़रा| यहाँ का काम बिलकुल अलग तरह का था| दिल्ली अब वह दिल्ली नहीं थी बहुत कुछ बदली हो गया था| पर एडजस्ट हो गए थे|यह समय बाबूगिरी का था साथ वाले आईऐएस डी|एम| कलेक्टर या डिप्टी कमिश्नर थे, उनकी शान और ठाठ अलग थी| खैर तुलना करना तो बेकार था, दूसरे की थाली में घी सदा ज्यादा दिखता है| वह वाली बात मन में आ रही थी| तीन साल बाद बाद अगली पोस्टिंग ताइवान में हुई जिसके लिये पहले चीनी भाषा मंडेरीन का एक क्रेश कोर्स करना कठिन चीनी भाषा का सीखना भी कौन आसन काम था| तीन साल वहां बिलकुल अलग जीवन और अलग कल्चर रीति रिवाज़ में ढालना पड़ा था| यहाँ भी बहुत नया सीखने को मिला था| वहीँ से अगली पोस्टिंग में मेनलैंड चाइना अर्थात डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ़ चाइना में हुयी जो जनसँख्या की दृष्टि से उस समय दुनिया का सबसे बड़ा देश हुआ करता था| में तीन वर्ष रही| यह पोस्टिंग बड़ी महत्वपूर्ण मानी जाती है| यहाँ का दूतावास बहुत बड़ा था| उस समय चीन बड़ी तेज़ी से तरक्की कर रहा था| ये छ वर्ष बिलकुल अलग तरह का जीवन अलग तरह की कल्चर, रिवाज और बहुत सारे बंधन के साथ था| भारत की तरह यह भी एक पुरानी सभ्यता है, अलग संस्कृति है| तीन वर्ष बाद फिर दिल्ली में साउथ ब्लाक में कार्य किया|
इस स्वदेश पोस्टिंग के दौरान परिवार को बहुत कुछ अलग लगा| इतने दिन बाहर रह कर परिवार के सब सदस्य भारत में ही अजनबी होने लगे थे, उन्हें यहाँ की भीड़, सड़क का बेतरतीब ट्रैफिक और लगे जाम, शोर शराबा, सडक, बाज़ार और हर जगह घूमते, भोंकते आवारा कुत्ते जिनके काटने का डर भी रहता था| घूमती फिरती गायें अन्य पशु, सड़क पर पड़े कूड़े के ढेर पर मुंह मारते हुए या सडक पर ही बैठ कर जुगाली करते हुए| घरों में मक्खी, मच्छर, बालकोनी में घुसे कबूतर उनकी बीटें,कभी-कभी बंदरों के झुण्ड का रिहायसी घरों में विजिट अब यह सब ज्यादा ही खलता था| पहले इन चीज़ों की आदत थी अब नहीं रही थी| कुछ महीनों को छोड़ कर राजधानी दिल्ली के प्रदूषण का लेवल भी बहुत ऊँचा रहने लगा था| बरसात के बाद डेंगू और मलेरिया का प्रकोप होता था|थोड़े दिन अपने देश में अच्छा लगता फिर विदेश जाने का इंतजार होने लगता| मन में बुरा लगता कि अपना देश ही क्यों विराना लगने लगा है| बच्चों को नाते रिश्तेदारी में ज्यादा लगाव नहीं रहता मौसी, बुआ की जगह नाम के साथ आंटी और मामा, चाचा ताऊ, मौसा|सब अंकल, उन्हें मौसी, मौसा आदि ‘टू कोम्प्लीकेटेड़’ लगने लगे थे, दादा दादी, नाना नानी से तो काम चला लेते थे, शायद बूढ़े और बच्चे आपस की बात अच्छी समझ लेते थे, या उनसे बच्चों को प्यार ज्यादा मिलता रहा था, वे उनके पास रह कर आते जाते रहे थे| उनके पास बच्चों के लिये समय ही समय था| मेरा तो विदेश मंत्रालय में कुछ वर्ष का समय प्रतिनियुक्ति पर था उसका बताया, अब अपने एक मित्र के बारे में बता देता हूँ जिसने पूरे अड़तीस वर्ष विदेश सेवा की,जो असली ‘बर्ड्स ऑफ़ पैसेज’ थे| यह तो सब कुछ आप बीती लिख डाली जग् देखी पर भी बात करली जाए|हमारे विद्यालय समय के सीनियर मित्र थे, नाम था भुल्लन सिंह, काफी साधारण क्या गरीब बेकग्राउंड से पर असाधारण मेधावी थे| रोजाना अपने गाँव से साइकिल पर पढने आते थे, गणित में हमेशा पूरे ही अंक लाते दूसरे सभी विषयों में भी खूब आगे रहते थे, अध्यापक भी मानते थे कि ऐसा तेज़ विद्यार्थी तो कभी कभी विद्यालय में आता है| हाई स्कूल में बोर्ड परीक्षा में पूरे उत्तरप्रदेश में दूसरा स्थान आया था, मेरिट स्कॉलरशिप भी हमेशा उसे मिली,और भी कई पुरस्कार भी, पर बाकी बच्चों में वह ज्यादा घुल मिल नहीं पाता था| इंटर में तो पूरे यूoपीo बोर्ड में सर्व प्रथम आने का गौरव उसे मिला था|
वह आगे की पढाई के लिये वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय में चला गया था|फिर कई साल बाद अपने छोटे शहर जाने पर पता चला था कि भुल्लन सिंह आईएफएस हो गया है और अब वह बी|एस|भारद्वाज नाम से जाना जाता है न कि भुल्लन सिंह| हमलोग सोचा करते थे कि वह एक जाना माना वैज्ञानिक या प्रोफेसर बनेगा| उसके पुराने मित्रो को भी लगा कि उसने आईएफएस में जाकर अपना गलत फैसला लिया है, सरकारी तंत्र में आकर एक बार चुने जाने के बाद घोड़े गधे एक से हो जाते हैं, वे डॉ अब्दुल कलाम का उदाहरण देते थे कि अगर वे एयरफोर्स में चले जाते, जैसा उन्होंने प्रयास किया भी था तब वे क्या इतना बड़ा कार्य कर पाते जो वे कर गये वे शायद विंग कमांडर या ग्रुप कैप्टेन या अन्य किसी रैंक तक पहुँच कर रिटायर हो जाते अपनी टैलेंट का इस्तेमाल नहीं कर पाते| जितनी ऊँचाई उन्होंने हासिल की मिसाइल मेन कहलाये और राष्ट्रपति पद सुशोभित किया| हमारे भुल्लन सिंह में भी बुद्धि की क्षमता अद्भुत थी वे पैसे से गरीब थे पर बुद्धि में अद्भुत थे, विज्ञान के क्षेत्र, कुछ बड़ी उपलब्धि अवश्य करते, उनका कार्य क्षेत्र दुनिया की बड़ी यूनिवर्सिटी या प्रयोगशाला होना चाहिए था, पर उन दिनों इलाहबाद बाद आइऐएस की नर्सरी मानी जाती थी, वहां के वातावरण और पीयरग्रुप के प्रभाव से बनना कुछ था बन कुछ गए थे|
भुल्लन सिंह नहीं बी एस भारद्वाज कहिये विदेश सेवा में चले गए तथा उन्ही के एक प्रोफेसर की बहुत सुन्दर कन्या जो पूरे विश्वविद्यालय मे तितली समझी जाती थी तथा जिसके पढ़ते समय बहुत दीवाने हुआ करते थे, के साथ उसका पाणिग्रहण हो गया था| भुल्लन सिंह व माता पिता व् एक भाई शादी में तो इलाहाबाद आकर शामिल हो गए पर दुल्हन गाँव में न जाकर सीधे दिल्ली उसके सरकारी क्वार्टर में गयी थी| इसमें घरवाले निराश हुए और भुल्लन सिंह को दोषी मानते थे कि वह अपनी पत्नी को अपने गाँव और अपनी गरीबी नहीं दिखाना चाहता था| सीधे सच्चे माँ,पिता छोटे भाई बहन व अन्य रिश्तेदार बस मन मसोस कर रह गए थे| कुछ ही महीनों बाद वह अपनी पढ़ी लिखी आधुनिक पत्नी को लेकर अपनी पहली पोस्टिंग पर फ्रांस में पेरिस ले कर चला गया था| पेरिस के बाद उसकी पोस्टिंग पुर्तगाल हुई और उसके बाद एक और अच्छी पोस्टिंग न्यूयॉर्क में स्थित परमानेंट मिशन ऑफ़ इंडिया टू द यूनाइटेड नेशन में हो गयी| अतः पहले ही झटके में वह तीन बहुत विकसित देशों की पोस्टिंग पाकर स्वदेश आया था| हाँ उसने एक बात बहुत अच्छी की थी कि अपने छोटे भाई बहन और माता पिता के लिये पढाई और खर्चे के लिये हर महीने पैसा भेजता रहा था, उसका छोटा भाई भी रूडकी यूनिवर्सिटी से इंजीनियरिंग करने के बाद यूoपीo में सहायक अभियंता पद पर नियुक्त हो गया था तथा घर की स्थिति काफी बदल गयी थी फिर भी भुल्लन सिंह की पत्नी और दोनों छोटे बच्चे उसके परिवार के अन्य सदस्यों के साथ तालमेल नहीं बैठा पाए इतना अंतर आ गया था| उसकी पत्नी में बड़ा सुपीरियररिटी काम्प्लेक्स था जो खूब स्पष्ट दिखने लगता था, भुल्लन सिंह को भी अपना भुल्लन कह्लाना बिलकुल अच्छा नहीं लगता था, बीवी सबके सामने उसे ‘बीएस’ और प्राइवेट में ‘हनी’ कहती|
गाँव का होते हुए भी वह अब गाँव का नहीं रह गया था न ही गाँव में उसकी अब उसकी रुचि थी| समय जाते देर थोडे ही लगती है कुछ वर्ष भारत में और कुछ वर्ष बाद विदेशों में सर्विस करने के बाद वह रिटायर हो गया था| कभी भी वह स्थिर नहीं रह पाया, रिटायर होने तक उसके बेटा बेटी ने न केवल अच्छी पढाई की, शुरू में दोनों ने अच्छा जॉब भी किया पर बेटे को उसकी ड्रग की आदत ने धीरे-धीरे बरबाद कर दिया,पहले जब जॉब छूटा उसे डी-एडिक्शन सेंटर में भर्ती किया गया उससे लाभ भी हुआ पर कुछ दिनों के बाद फिर से उसका ड्रग लेना शुरू हो गया था| इस तरह कई बार हुआ मगर अच्छा खासा बेटा ठीक नहीं हो पाया| इस विषय को लेकर भुल्लन सिंह जो अब एम्बेसडर भारद्वाज थे बड़े निराश थे तथा अपनी पत्नी को दोष देते कि बेटे को लाड से तथा ज्यादा मॉडर्न बनाने के चक्कर में यह हुआ है, उसको बिगाड़ने और शुरू से उसकी गलतियों को छिपाने का दोष अपनी पत्नी को देते थे| बेटी अच्छा जॉब कैलिफ़ोर्निया में करती थी तथा भारद्वाज परिवार ने न्यू जर्सी में एडिशन नामक नगर में अपना शानदार निवास स्थान बनाया था| यहाँ भी भुल्लन सिंह का मन नहीं लगता था, उन्हें एडजस्टमेंट करने में दिक्कत हो रही थी|जितनी उम्र बढती रही उन्हें अहसास होता कि ज्यादा अच्छा होता उन्होंने विदेश सेवा न भारत जाकर सेटल होना चाहा पर उसने वीटो कर दिया था| उसे भारत बैकवर्ड लगता था| जब भी वे नील आसमान में पंछियों को आसमान में उड़ते हुए देखते तो देखते रहते तब तक वे आँख से ओझल न हो जाएँ और मन ही मन कहते कि वह भी तो एक साधारण गाँव बसेडे से उड़ कर कितनी जगह उड़ता उड़ता फिरा पर अब अपने स्थान पर लौटने की क्षमता नहीं बची है, सच में भी वह कुछ नहीं है ‘बर्ड्स ऑफ़ पैसेज’ की तरह है... बस चलते रहो... चलते रहो... कहीं भी कोई ठिकाने पर बस थोड़े दिन रूकना और बस आगे बढ़ जाना|
पर वे इसमें अपना भी दोष मानने लगे थे कि उनके बहुत सहयोगी हैं जो पहले उसी की तरह यायावर रहे फिर अपने देश में ठिकाना बना लिया|उसी के पूर्व बॉस जिन के दो बेटियां थी सारी दुनिया में घूमें, कई जगह के एम्बेसडर रहे, लंदन में भी हाई कमिश्नर रहे, दोनों बेटियों ने भी आठ दस वर्ष टॉप जॉब विदेश में किये, पर अंत में उन्होंने दिल्ली में ही एक तीन मंजिला घर बनाया जिसमें ग्राउंड फ्लोर में स्वयं पत्नी के साथ रहते हैं, पहली मंजिल में बड़ी बेटी सपरिवार, दूसरी मंजिल में छोटी बेटी, माता पिता की बड़ी उम्र का ख्याल कर दोनों बेटियों ने विदेश की बड़ी नौकरियाँ छोड़ कर दिल्ली ही में जॉब ले लिया है सयुंक्त परिवार में रह रहें हैं, शाम का डिनर सब निचली मंजिल में माता पिता की बड़ी डाइनिंग टेबल पर करते हैं, वे भी ‘बर्ड्स ऑफ़ पैसेज’ रहे थे पर उन माइग्रेटरी बर्ड्स की तरह जो दूर दूर जाकर बाद में अपने ठिकानो पर लौट आती हैं, यह कहती हुए ‘देख लिया हमने जग सारा अपना घर है सबसे प्यारा’|