एपिसोड 11 – नया धर्म, नई पहचान : बौद्ध धम्म की ओर
थका हुआ मन, टूटा हुआ विश्वास
संविधान निर्माण का महान कार्य पूरा करने के बाद भी बाबासाहेब अंबेडकर के मन में एक टीस बनी रही।
उन्होंने सोचा था कि संविधान लागू होने के बाद दलित समाज को बराबरी का हक़ मिलेगा, लेकिन हकीकत अलग थी।
गाँवों में अभी भी अस्पृश्यता ज़िंदा थी।
दलितों को कुएँ से पानी लेने नहीं दिया जाता, मंदिरों के द्वार उनके लिए बंद थे, और ऊँची जातियों का व्यवहार पहले जैसा ही था।
बाबासाहेब कहते—
“मैंने संविधान से बराबरी दिला दी, लेकिन समाज ने उसे स्वीकार नहीं किया। अगर हिंदू धर्म हमें बराबरी नहीं दे सकता, तो हमें इस धर्म में क्यों रहना चाहिए?”
धर्म परिवर्तन का संकल्प
अंबेडकर ने 1935 में ही घोषणा कर दी थी—
“मैं हिंदू पैदा हुआ हूँ, लेकिन हिंदू के रूप में मरूँगा नहीं।”
लेकिन धर्म परिवर्तन उनके लिए आसान नहीं था।
वह कोई भावनात्मक या जल्दबाज़ी का निर्णय नहीं लेना चाहते थे।
वे चाहते थे कि उनका समाज किसी ऐसे धर्म को अपनाए, जो उन्हें सम्मान और बराबरी दे।
उन्होंने कई साल तक बौद्ध धर्म, ईसाई धर्म, इस्लाम और सिख धर्म का गहन अध्ययन किया।
उन्होंने हर धर्म की किताबें पढ़ीं, विद्वानों से मुलाकात की, और अपने समुदाय से विचार-विमर्श किया।
बौद्ध धर्म की राह
आख़िरकार, उन्हें बौद्ध धर्म ही सबसे उपयुक्त लगा।
क्योंकि—
इसमें जाति का भेदभाव नहीं था।
बुद्ध का संदेश करुणा, समानता और अहिंसा पर आधारित था।
यह धर्म भारत की ही मिट्टी से निकला था।
बाबासाहेब ने कहा—
“बौद्ध धर्म हमारे लिए विदेशी नहीं है, यह हमारे पूर्वजों का धर्म है। हम केवल अपने घर वापस लौटेंगे।”
नागपुर का ऐतिहासिक दिन
14 अक्टूबर 1956 – नागपुर के दीक्षा भूमि मैदान पर इतिहास लिखा जाने वाला था।
सैकड़ों एकड़ का मैदान लाखों लोगों से भरा हुआ था।
हर तरफ़ नीले झंडे लहरा रहे थे।
जब बाबासाहेब मंच पर पहुँचे, तो नारा गूंजा—
“जय भीम! जय बुद्ध!”
धर्म दीक्षा का क्षण
बाबासाहेब और उनकी पत्नी डॉ. सावित्रीबाई अंबेडकर सबसे पहले मंच पर बैठे।
बौद्ध भिक्षु चंद्रमणि महास्थविर ने उन्हें त्रिशरण और * पंचशील* की दीक्षा दी।
उन्होंने बुद्ध, धम्म और संघ को शरण लेने की प्रतिज्ञा ली।
फिर उन्होंने पाँच वचन लिए—
हत्या नहीं करेंगे।
चोरी नहीं करेंगे।
झूठ नहीं बोलेंगे।
शराब और नशे से दूर रहेंगे।
अनैतिक आचरण नहीं करेंगे।
इसके बाद बाबासाहेब ने हाथ उठाकर कहा—
“आज से मैं बौद्ध हूँ। आज से मेरे लाखों साथी बौद्ध हैं। हम हिंदू धर्म की अन्यायपूर्ण व्यवस्था को छोड़ रहे हैं। हम समानता, बंधुत्व और करुणा का मार्ग अपना रहे हैं।”
लाखों अनुयायियों की दीक्षा
बाबासाहेब के बाद लगभग 5 लाख लोगों ने एक साथ बौद्ध धर्म की दीक्षा ली।
इतिहास में यह दुनिया का सबसे बड़ा सामूहिक धर्म परिवर्तन था।
लोग खुशी से झूम उठे।
उनके चेहरे पर गर्व और आँसुओं का मिला-जुला भाव था।
सदियों से दबा हुआ समाज आज पहली बार खुद को आज़ाद महसूस कर रहा था।
21 प्रतिज्ञाएँ
बाबासाहेब ने केवल बौद्ध धर्म की शिक्षा ही नहीं दी, बल्कि 21 प्रतिज्ञाएँ भी दिलाईं।
इनमें प्रमुख थीं—
मैं ब्राह्मणों के देवताओं में विश्वास नहीं करूँगा।
मैं ग़ुलामी की किसी भी व्यवस्था को स्वीकार नहीं करूँगा।
मैं जाति व्यवस्था को मानने वाले हिंदू धर्म को छोड़ चुका हूँ।
मैं अपने बच्चों को समानता और शिक्षा का मार्ग सिखाऊँगा।
इन प्रतिज्ञाओं ने उनके अनुयायियों के जीवन की दिशा बदल दी।
एक नई पहचान
उस दिन से बाबा साहेब केवल भारत के संविधान निर्माता नहीं रहे, बल्कि वे आधुनिक भारत के बौद्ध आंदोलन के जनक बन गए।
दलित समाज अब कह सकता था—
“हम अब हिंदू धर्म की जंजीरों में नहीं बंधे हैं। हम बुद्ध के अनुयायी हैं।”
व्यक्तिगत पीड़ा
लेकिन यह खुशी बाबासाहेब के जीवन में देर से आई।
धर्म परिवर्तन के मात्र दो महीने बाद ही उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा।
लंबे संघर्ष, निरंतर मेहनत और बीमारियों ने उनके शरीर को कमजोर कर दिया था।
फिर भी वे संतुष्ट थे।
वे कहते—
“मैंने अपने लोगों को नया जीवन दिया। अब चाहे मेरा जीवन छोटा हो, मुझे कोई दुख नहीं है।”
एपिसोड का समापन
नागपुर का वह दिन केवल एक धार्मिक घटना नहीं था, बल्कि यह सामाजिक क्रांति का महोत्सव था।
जिस समाज ने सदियों तक अपमान सहा था, उसने उस दिन एक नई पहचान और नया धर्म अपनाया।
बाबासाहेब अंबेडकर ने केवल संविधान नहीं लिखा, बल्कि उन्होंने अपने समाज को नए जीवन की किताब भी थमा दी।