एपिसोड 15 – संविधान सभा की राह
पूना पैक्ट के बाद की स्थिति
1932 का पूना पैक्ट अंबेडकर के जीवन का निर्णायक मोड़ था।
हालाँकि उन्होंने इसे दबाव में किया समझौता माना, लेकिन इसके बाद दलित समाज को राजनीति में आरक्षित सीटें मिलीं।
दलित समाज अब सिर्फ समाज सुधार आंदोलनों तक सीमित नहीं रहा, बल्कि राजनीतिक शक्ति की ओर बढ़ने लगा।
अंबेडकर ने इस अवसर को देखा और दलितों को एकजुट कर राजनीतिक संगठन खड़ा करने का निश्चय किया।
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डिप्रेस्ड क्लासेस फेडरेशन की स्थापना (1932–1936)
पूना पैक्ट के तुरंत बाद अंबेडकर ने दलितों को संगठित करने के लिए डिप्रेस्ड क्लासेस फेडरेशन (Depressed Classes Federation) नामक संगठन बनाया।
इसका उद्देश्य था –
दलितों को राजनीतिक रूप से जागरूक करना,
उनके अधिकारों के लिए चुनावों में भाग लेना,
और समाज में उनकी आवाज़ को मजबूत करना।
अब अंबेडकर केवल एक समाज सुधारक नहीं रहे, वे दलितों के राजनीतिक नेता बन गए।
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राजनीतिक संघर्ष और कांग्रेस से टकराव
कांग्रेस उस समय भारत की आज़ादी की मुख्य आवाज़ थी। लेकिन कांग्रेस ने दलितों के मुद्दों को हमेशा “हिंदू समाज का आंतरिक मामला” कहकर टालने की कोशिश की।
गांधी और कांग्रेस नेतृत्व मानते थे कि दलितों को अलग राजनीतिक पहचान देने से स्वतंत्रता आंदोलन कमजोर होगा।
अंबेडकर इससे असहमत थे। उनका मानना था –
“अगर दलितों को स्वतंत्रता के साथ बराबरी का दर्जा नहीं मिला, तो यह स्वतंत्रता अधूरी होगी।”
यही कारण था कि अंबेडकर और कांग्रेस के बीच टकराव लगातार बढ़ता गया।
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लाहौर अधिवेशन और स्वतंत्रता आंदोलन (1936–1939)
1936 में अंबेडकर ने Independent Labour Party (ILP) बनाई।
यह पार्टी सिर्फ दलितों की नहीं, बल्कि मजदूरों, किसानों और वंचित वर्गों की आवाज़ बनी।
1937 के चुनावों में ILP ने बॉम्बे प्रेसीडेंसी की 15 में से 14 सीटें जीतीं।
यह अंबेडकर की पहली बड़ी राजनीतिक सफलता थी।
उन्होंने मजदूरों के अधिकार, किसानों के कर्ज माफी और महिलाओं की बराबरी के लिए आवाज़ उठाई।
यह दौर दिखाता है कि अंबेडकर सिर्फ दलित नेता नहीं थे, बल्कि सर्वहारा वर्ग (labouring class) के बड़े नेता बन रहे थे।
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संविधान सभा की पृष्ठभूमि
द्वितीय विश्वयुद्ध (1939–1945) के दौरान ब्रिटेन कमजोर हो गया। भारत में स्वतंत्रता आंदोलन तेज़ हुआ।
1942 में भारत छोड़ो आंदोलन हुआ, लेकिन अंबेडकर ने इसका समर्थन नहीं किया क्योंकि इसमें दलितों के लिए कोई खास कार्यक्रम नहीं था।
1945 में युद्ध खत्म होने के बाद ब्रिटिश सरकार ने तय किया कि भारत को स्वतंत्रता देने के लिए संविधान सभा बनाई जाएगी।
यह सभा तय करेगी कि भारत किस तरह शासित होगा और उसका संविधान कैसा होगा।
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संविधान सभा के चुनाव (1946)
संविधान सभा के सदस्य सीधे जनता से नहीं चुने गए थे, बल्कि प्रांतीय विधानसभाओं से चुने गए थे।
कांग्रेस और मुस्लिम लीग सबसे बड़ी पार्टियाँ थीं।
अंबेडकर की पार्टी छोटी थी, इसलिए वे सीधे तौर पर संविधान सभा में नहीं पहुँच सके।
शुरुआत में वे हार गए और संविधान सभा के सदस्य नहीं बन पाए।
यह अंबेडकर के जीवन का दुखद क्षण था – वे जानते थे कि अगर वे संविधान सभा से बाहर रह गए, तो दलितों की आवाज़ दब जाएगी।
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बंगाल से प्रवेश (1946)
लेकिन किस्मत ने करवट ली।
बंगाल प्रेसीडेंसी में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच समझौते के चलते अंबेडकर को एक सीट मिल गई।
इस तरह वे संविधान सभा में पहुँच गए।
संविधान सभा में प्रवेश करते ही अंबेडकर ने साफ कहा –
“यहाँ मेरा उद्देश्य सिर्फ दलितों के लिए अधिकार लेना नहीं है, बल्कि पूरे भारत के लिए एक ऐसा संविधान बनाना है, जिसमें न्याय, समानता और स्वतंत्रता हर नागरिक का अधिकार हो।”
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अंबेडकर का प्रभाव
संविधान सभा में अंबेडकर की बुद्धिमत्ता, गहरी कानूनी समझ और ऐतिहासिक दृष्टि सब पर भारी पड़ी।
उन्होंने बार-बार कहा –
“भारत को सिर्फ राजनीतिक स्वतंत्रता नहीं चाहिए, बल्कि सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र भी चाहिए।”
उनके भाषणों ने विरोधियों को भी प्रभावित किया। धीरे-धीरे सभी ने मान लिया कि अंबेडकर ही संविधान बनाने के लिए सबसे उपयुक्त व्यक्ति हैं।
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ड्राफ्टिंग कमेटी का अध्यक्ष (1947)
15 अगस्त 1947 को भारत स्वतंत्र हुआ।
इसके कुछ दिन बाद संविधान सभा ने अंबेडकर को संविधान निर्माण समिति (Drafting Committee) का अध्यक्ष नियुक्त किया।
यह दलित समाज और भारत के लिए ऐतिहासिक क्षण था –
जो व्यक्ति कभी अछूत कहकर मंदिर में नहीं घुसने दिया गया, वही अब पूरे देश का संविधान लिखने वाला था।