भाग 2 – संघर्ष और विरोध (लगभग 2000 शब्द
🌸 प्रस्तावना
मीरा बाई का जीवन केवल एक कवयित्री या भजन गायिका का जीवन नहीं था, बल्कि वह एक संघर्ष की गाथा थी। विवाह के बाद जब वे मेवाड़ की राजकुमारी बनीं, तो उनसे उम्मीद थी कि वे राजघराने की मर्यादा और परंपराओं का पालन करेंगी। लेकिन मीरा तो पहले से ही श्रीकृष्ण को अपना पति मान चुकी थीं। उन्होंने सांसारिक बंधनों से ऊपर उठकर केवल भक्ति को ही जीवन का आधार बनाया। यही कारण था कि उनके जीवन में लगातार विरोध और कठिनाइयाँ आती रहीं।
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🌸 महल का विरोध
चित्तौड़गढ़ के महल में आते ही मीरा का जीवन बदल गया। अब वे मेवाड़ की राजकुमारी थीं और उन पर सैकड़ों परंपराओं का पालन करने का दबाव था। उनसे उम्मीद थी कि वे अपने पति भोजराज के साथ राजनीति, धर्म और सामाजिक कार्यों में सहभागी बनेंगी। लेकिन मीरा का झुकाव किसी और ओर था—वे तो मंदिरों और भजन-कीर्तन में डूबी रहतीं।
शुरुआत में भोजराज ने इसे नज़रअंदाज़ किया, क्योंकि उन्हें लगा यह केवल धार्मिक प्रवृत्ति है। लेकिन धीरे-धीरे जब मीरा साधु-संतों के संग बैठकर कीर्तन करने लगीं, तब महल के अन्य लोग असहज हो गए। राजघराने के लिए यह अपमानजनक माना जाता था कि एक राजकुमारी महलों से निकलकर साधुओं और जनता के साथ बैठकर गाए-बजाए।
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🌸 “मेरे तो गिरधर गोपाल” का उद्घोष
मीरा के भजन और पद अक्सर महल के भीतर गूँजते थे। वे खुलकर गाती थीं—“मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरा न कोई।”
यह पद उनके जीवन का घोष बन गया। इसमें साफ झलकता है कि उनके लिए संसार के सारे रिश्ते, सारी परंपराएँ और सारी जिम्मेदारियाँ गौण थीं। वे केवल श्रीकृष्ण को ही अपना सब कुछ मानती थीं।
यही उद्घोष महलवालों को सबसे ज्यादा अखरता था। उनके ससुर और देवर यह मानते थे कि मीरा का यह आचरण राजघराने के सम्मान के विपरीत है।
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🌸 भोजराज का दृष्टिकोण
भोजराज स्वयं वीर और उदार शासक थे। शुरुआत में उन्होंने मीरा को समझाने का प्रयास किया कि वे भक्ति को महलों की मर्यादा के भीतर रखें। वे मीरा से प्रेम भी करते थे, लेकिन वे मीरा के हृदय को जीत नहीं सके।
मीरा का मन पहले ही कृष्ण में अर्पित हो चुका था।
कहा जाता है कि भोजराज ने एक बार मीरा से पूछा—
“क्या तुम्हें मुझसे प्रेम नहीं?”
मीरा ने शांत भाव से उत्तर दिया—
“प्रेम तो केवल एक से हो सकता है, और मेरा प्रेम तो गिरधर गोपाल से है।”
भोजराज इस उत्तर से आहत भी हुए और विवश भी।
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🌸 ससुराल में षड्यंत्र
समय बीतने के साथ मीरा का विरोध और बढ़ने लगा। भोजराज की मृत्यु के बाद उनके देवर और अन्य परिजन मीरा के और भी खिलाफ हो गए। वे समझते थे कि मीरा का आचरण मेवाड़ की प्रतिष्ठा को धूमिल कर रहा है।
मीरा को रोकने के लिए कई षड्यंत्र रचे गए। लोककथाओं और मीरा की जीवनी में ऐसे अनेक प्रसंग मिलते हैं—
1. विष का प्याला
– एक बार मीरा को विष पीने के लिए दिया गया। लेकिन कहा जाता है कि जैसे ही उन्होंने उसे श्रीकृष्ण को अर्पित करके पिया, वह अमृत में बदल गया।
2. विषधर नाग की टोकरी
– उन्हें उपहार के रूप में फूलों की टोकरी में साँप भेजा गया। लेकिन जब मीरा ने उसे खोला तो उसमें केवल सुंदर फूल थे।
3. काँटों की सेज
– मीरा को आराम देने के बजाय काँटों पर सुलाया गया, लेकिन वे कहते हैं कि जैसे ही मीरा ने कृष्ण का नाम लिया, वे काँटे फूल बन गए।
ये घटनाएँ ऐतिहासिक रूप से प्रमाणित हों या न हों, परंतु यह निश्चित है कि मीरा ने अपने जीवन में घोर विरोध और कठिनाईयों का सामना किया।
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🌸 समाज का विरोध
केवल महल ही नहीं, समाज भी मीरा के खिलाफ था।
राजस्थान का सामंती समाज यह मानता था कि स्त्री को केवल पति और परिवार के प्रति समर्पित रहना चाहिए। लेकिन मीरा ने पति को ठुकराकर ईश्वर को चुना। यह समाज के लिए अस्वीकार्य था।
उनका साधु-संतों के साथ बैठना, लोकगायन करना और महलों से बाहर निकलकर आम जन से घुलना, इन सबने उन्हें समाज की आलोचना का पात्र बना दिया।
लोग उन्हें ताने देते थे, लेकिन मीरा ने इसका उत्तर भी अपने भजनों के माध्यम से दिया—“साँस साँस सुमिरन करूँ, मीरा पिया मिलन की आस।
जो निंदा करे सो निंद करे, मैं तो हरि के रंग रचास।”
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🌸 मीरा का अडिग विश्वास
सभी बाधाओं और विरोधों के बावजूद मीरा का विश्वास कभी नहीं डगमगाया।
वे कहती थीं—“जाने दे लोग क्या कहेंगे, मैं तो श्याम के रंग में रंग गई हूँ।”
मीरा ने स्त्रियों की परंपरागत सीमाओं को तोड़ा और भक्ति को सर्वोपरि माना। वे समाज को यह संदेश दे रही थीं कि स्त्री भी पुरुष की तरह स्वतंत्र होकर अपने आराध्य को चुन सकती है।
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मीरा बाई का यह संघर्षमय जीवन हमें बताता है कि वे केवल भक्ति की मूर्ति नहीं थीं, बल्कि वे साहस और आत्मबल की भी प्रतीक थीं।
उन्होंने विष का प्याला पीकर भी मुस्कुराया, समाज के तानों को भी स्वीकार किया, लेकिन कभी अपने आराध्य कृष्ण को नहीं छोड़ा।
उनकी यह अडिग भक्ति ही उन्हें साधारण राजकुमारी से अमर संतकवि बना गई।