अभय से
स्वामी अभयानंद तक…
(संसार, सन्यास और प्रेम)
स्वामी अभय आनंद
शुभकामनाएं
कभी-कभी हमारे व्यक्तिगत जीवन में ऐसा मुकाम आता है, जहां हम दो हिस्सों में बंट जाते हैं—एक वह, जो जीवन को खुलकर जीना चाहता है, और दूसरा वह, जो सामाजिक बंधनों और ज़िम्मेदारियों के साथ जीने को मजबूर होता है। लेकिन इस द्वंद्व में जीवन अधूरा सा लगने लगता है।
यहीं से एक तीसरे मार्ग का जन्म होता है, जो भौतिकता से परे है और हमें संन्यास की ओर प्रेरित करता है। कभी-कभी ऐसा महसूस होता है कि जीवन जीना भी एक योजना बन गई है—हम हर कार्य मुक्त भाव से नहीं कर पाते। इसी आंतरिक संघर्ष को दर्शाता है अभय आनंद का यह उपन्यास, जो सच्ची घटनाओं से प्रेरित है।
मेरी शुभकामनाएं!
संजय स्वराज
(बॉलीवुड और टेलीविजन अभिनेता)
शुभकामनाएं
Abhay ji ko unki kahani ko ek novel ke roop mai pathkon tak pahuchane ke liye bahut bahut badhai deti hun. asha hai isse padhne ke baad pathakon ko jeevan ke alag alag aayamon ki anubhuti hogi.
Shubhakamnaaye
Kunickaa sadanand
शुभकामनाएं
प्रिय अभय आनंद जी,
आशा है आप अच्छे होंगे मुझे पता चला कि आप अपनी आगामी पुस्तक 'अभय से स्वामी अभयानंद तक' का विमोचन करने जा रहे हैं। इस महान अवसर और आपके सभी भविष्य के प्रयासों के लिए आपको मेरी हार्दिक बधाई.. शुभकामनाएं
सम्मान
पूजा शर्मा (अध्यक्ष)
राष्ट्रीय न्याय और महिला सुरक्षा आयोग
शुभकामनाएं
अस्वीकरण
(Disclaimer)
यह पुस्तक सत्य घटनाओं पर आधारित है, किंतु गोपनीयता बनाए रखने हेतु इसमें वर्णित पात्रों के नाम, स्थान और कुछ प्रसंगों में आवश्यक परिवर्तन किए गए हैं। पुस्तक में प्रस्तुत सभी नाम, घटनाएँ एवं परिस्थितियाँ केवल संदर्भात्मक उद्देश्य से प्रयुक्त की गई हैं, ताकि किसी भी व्यक्ति, समुदाय अथवा संस्था की भावनाओं को ठेस न पहुँचे।
इस ग्रंथ का उद्देश्य किसी भी प्रकार की विवादास्पद स्थिति उत्पन्न करना नहीं है। यदि किसी भी व्यक्ति को इस पुस्तक में वर्णित घटनाओं से कोई आपत्ति होती है, तो उसे मात्र संयोग माना जाए।
किसी भी विवाद की स्थिति में न्यायिक क्षेत्र ग्रेटर नोएडा कोर्ट रहेगा।
लेखक की कलम से
जीवन ने मुझे अनगिनत रंग दिखाए हैं—खुशी के पल, गहरी निराशा, और आत्मा को झकझोर देने वाले अनुभव। संन्यास की शांति और संसार की हलचल, दोनों को मैंने अपनी आत्मा के हर कोने में महसूस किया है। अमीता के चले जाने के बाद और मेरे संन्यास के मार्ग पर चलने के बाद, सही और गलत के मायने गहराई से समझे। तब यह ख्याल आया कि मेरी कहानी, मेरी सच्चाई, एक पुस्तक के रूप में सामने आनी चाहिए।
यह कहानी सिर्फ मेरे लिए नहीं, बल्कि उन सभी के लिए है जो जीवन को समझना चाहते हैं। मेरे बच्चे, उनके बच्चे, या कोई और—यह किताब उनके लिए एक दर्पण होगी। जो लोग मुझे गलत समझते हैं, शायद वे भी इसे पढ़कर जान सकें कि मैंने क्या जिया, क्या महसूस किया, और कहां गलतियां कीं। मैंने अपने हिस्से की गलतियां की हैं—कभी अनजाने में, तो कभी अपनी कमजोरियों के कारण। लेकिन इन गलतियों ने ही मुझे एक बेहतर इंसान बनने की सीख दी।
मैंने जीवन में हर भूमिका निभाई है। एक बेटा, एक भाई, एक पति, और एक पिता बनने के बाद, अब मैं एक दार्शनिक और लेखक बन गया हूं। यह भी सच है कि मैंने ब्रह्मांड से जो मांगा, वह मुझे मिला। चाहे वह हमेशा मेरे पास रहा हो या नहीं, लेकिन ब्रह्मांड ने मेरी इच्छाओं को पूरा किया। मैंने जिन रास्तों पर चलना चाहा, जिन लोगों को चाहा, जिन सपनों को देखा—सब मुझे इस सृष्टि ने दिया।
हो सकता है कि मैं किसी के लिए अच्छा इंसान नहीं बन सका, और शायद लेखक के रूप में भी वह ऊंचाई न छू पाऊं, लेकिन मैं जीता जा रहा हूं। यही जीवन है—चलते रहना, अनुभव करना, और सृष्टि के रहस्यों को स्वीकार करना।
इस यात्रा में, मैंने संसार को जिया है और संन्यास को भी। मैंने एकांत का सुकून भी पाया और संसार के शोर में एक संन्यासी की तरह जीने का प्रयास भी किया। मैंने प्रेम की गहराइयों को छुआ और कई वर्षों तक प्रेम से अछूता भी रहा। त्याग का अनुभव किया, और समाधि की शांति का भी।
यह पुस्तक मेरे जीवन का आईना है—हर एहसास, हर गलती, हर उपलब्धि का। यह सिर्फ एक कहानी नहीं, बल्कि एक अनुभव है, जिसे मैं आने वाली पीढ़ियों के लिए छोड़ जाना चाहता हूं। मेरी कोशिश है कि यह किताब उन सभी को यह समझने में मदद करे कि जीवन को कैसे जिया और समझा जा सकता है।
….स्वामी अभय आनंद
लेखक परिचय
स्वामी अभय आनंद एक ऐसे लेखक हैं, जिनका जीवन सांसारिक जिम्मेदारियों और आध्यात्मिक खोज के बीच संतुलन बनाने की यात्रा रहा है। विज्ञान में स्नातक होने के बावजूद, उनका हृदय हमेशा आत्मज्ञान और ब्रह्मांड के रहस्यों की ओर आकर्षित रहा। उनकी यह पहली पुस्तक उनके जीवन की घटनाओं और अनुभवों पर आधारित है, जिसे उन्होंने अपने मित्रों के सहयोग से संकलित किया है।
लगभग 15 वर्ष पहले, सांसारिक जीवन के बीच उनके भीतर आध्यात्मिकता के प्रति एक अनोखी ललक जगी। ऋषिकेश से गहरा नाता होने के कारण, यह स्थान उनके लिए केवल एक तीर्थस्थल नहीं, बल्कि आत्मखोज की भूमि बन गया। गंगा की शुद्धता और हिमालय की ऊर्जाओं ने उनके अंतर्मन को झकझोर दिया। 2020 में, सांसारिक उलझनों से जूझते हुए, उन्होंने सन्यास की राह अपनाई और दो वर्षों तक हिमालय की गोद में एक संन्यासी की भाँति जीवन व्यतीत किया। लेकिन पारिवारिक जिम्मेदारियों और सांसारिक कर्तव्यों ने उन्हें पुनः समाज में लौटने के लिए बाध्य कर दिया।
हालाँकि, अब वे सांसारिक जीवन में रहते हुए भी एक संन्यासी की भाँति जीते हैं। ओशो के विचारों ने उनके जीवन को गहराई से प्रभावित किया, और पश्चिमी दर्शन (वेस्टर्न फिलॉसफी) अध्ययन ने उन्हें जीवन को एक नए दृष्टिकोण से देखने की प्रेरणा दी। वे विज्ञान और अध्यात्म के बीच संतुलन स्थापित करने में विश्वास रखते हैं—जहाँ एक ओर आधुनिक वैज्ञानिक उपलब्धियों को अपनाना आवश्यक है, वहीं आत्मा और ब्रह्मांड की ऊर्जाओं को भी स्वीकार करना उतना ही महत्वपूर्ण है।
वर्तमान में वे शारजाह, यूएई में निवास कर रहे हैं, जहाँ से वे अपने व्यापार और संन्यासी जीवन को एक संतुलित रूप देने का प्रयास कर रहे हैं। वे गोयनका के विपश्यना केंद्र में कई कोर्स कर चुके हैं और अनेक गुरुओं के सानिध्य में समय व्यतीत कर चुके हैं, किंतु अभी तक किसी एक गुरु को चुनने में असमर्थ हैं—उनकी यह खोज अभी भी जारी है।
उनकी यह पुस्तक न केवल उनके जीवन की कहानी है, बल्कि यह प्रेम, आध्यात्मिकता और आत्मखोज की गहरी यात्रा को भी दर्शाती है। यह उन सभी के लिए है, जो संसार में रहते हुए भी आत्मज्ञान और सत्य की खोज में हैं।
"Follow us on social media to stay connected, share your thoughts, and be part of our online community!"
: swamiabhayanand2020@gmail.com
: @swamiabhayanandindia
+919319931109 (India)
+971527392350 (UAE)
प्रस्तावना
यह पुस्तक मेरी अकेली की उपलब्धि नहीं है। इसके निर्माण में मेरे कई परिचित, मित्र और घनिष्ठ जनों का योगदान है। इनमें मेरे मित्र डॉक्टर अनुराग वार्ष्णेय और संतोष मिश्रा, स्वामी प्रेम अनुराग, रेखा जी, मनीष जी, और मेरी बेटी ट्विंकल शामिल हैं। इन सभी ने किसी न किसी रूप में, चाहे वह लेखन की बारीकिया हो या डिज़ाइन हो, सामग्री का संयोजन हो, या मार्केटिंग, हर कदम पर मेरा साथ दिया है।
मेरा विशेष आभार मेरे बड़े भाई समान और पिता तुल्य मित्र, अनिल चौधरी जी के प्रति है। यदि वे नहीं होते, तो शायद मैं इस पुस्तक को कभी साकार न कर पाता। उन्होंने न केवल मुझे मार्गदर्शन दिया, बल्कि मेरे जीवन की मुश्किल घड़ियों में मेरा हौसला भी बढ़ाया।
मेरा लेखन कभी उत्कृष्ट नहीं रहा, लेकिन इन सभी के प्रयासों और सहयोग से यह पुस्तक आपके सामने आ सकी है। इसमें मेरी जीवन-यात्रा, मेरे विचार, और मेरी भावनाओं का एक सजीव चित्रण है।
अंतरराष्ट्रीय यात्रा की शुरुआत
इस पुस्तक को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ले जाने की जिम्मेदारी मेरे दुबई के मित्र विनीश भाटिया जी ने संभाली है। वे इसे दुबई में अरबी ,फारसी और अंग्रेजी भाषा में अनुवाद करके हमारे पाकिस्तानी और विदेशी मित्रों के लिए उपलब्ध करवायेंगे ,यह कदम उन लोगों के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, जो हिंदी को समझते तो हैं, लेकिन पढ़ने में सक्षम नहीं हैं। मुझे गर्व है कि यह पुस्तक उनके दिलों तक पहुंचने का माध्यम बनेगी।
प्रेरणा और मार्गदर्शन
सबसे बड़ा धन्यवाद मैं जाने-माने टीवी और फिल्म अभिनेता संजय स्वराज जी को देना चाहूंगा। उन्होंने न केवल इस पुस्तक के विमोचन में मदद की, बल्कि मुझे यह भरोसा भी दिलाया कि यह मात्र एक साधारण कहानी नहीं, बल्कि एक ऐसी कथा है जो पढ़ने वालों को प्रेरित करेगी। मैंने तो इसके विमोचन का ख्याल ही छोड़ दिया था, उनके प्रोत्साहन के बिना, शायद यह पुस्तक कभी प्रकाशित नहीं हो पाती।
श्रद्धांजलि
यह पुस्तक मेरे स्वर्गीय पिता के लिए एक श्रद्धांजलि है। उन्होंने मुझे हमेशा सिखाया कि सच के मार्ग पर चलना चाहिए। उनके शब्द अब भी मेरे दिल में गूंजते हैं: "जीवन में कुछ भी बनना या न बनना, पर सच का साथ कभी मत छोड़ना।
आज, इस सफर में मैंने देखा है कि सच बोलने वालों का रास्ता अकेला हो सकता है। दोस्त कम होते हैं, लेकिन मैंने अपनी मित्रता केवल उन्हीं लोगों से बनाई है जो सच को समझते हैं, उसे महत्व देते हैं, और बिना किसी भय के सच सुनने और कहने का साहस रखते हैं।
मेरे साथ रहने वाले लोग भले ही कम हैं, लेकिन वे सच्चे हैं। वे मेरी इस यात्रा का हिस्सा हैं क्योंकि वे भी सत्य और ईमानदारी को अपने जीवन में स्थान देते हैं। यह पुस्तक उनके लिए भी है, जिन्होंने सच को अपने जीवन का मूल बनाया है।
ओशो का प्रभाव
इस पुस्तक में ओशो की शिक्षाओं का भी उल्लेख है। यदि मैंने ओशो को नहीं पढ़ा होता, तो शायद मैं आज जीवित न होता। ओशो ने मुझे समस्याओं से जूझने और जीवन को समझने का मार्ग दिखाया। उन्होंने मुझे सिखाया कि जीवन क्या है, और कठिनाइयों के बीच कैसे खड़ा होना है। उनकी शिक्षाओं ने मुझे आत्महत्या जैसे नकारात्मक विचारों से बचाया और जीवन को एक नई दृष्टि से देखने का साहस दिया।
आज के समय में, जब समाज में तनाव, उत्पीड़न, और आत्महत्या के मामले बढ़ रहे हैं, ओशो का संदेश और भी प्रासंगिक हो जाता है। उनके शब्द मेरे जीवन की रोशनी बने, और यही रोशनी मैं इस पुस्तक के माध्यम से आप तक पहुंचाना चाहता हूं।
यह पुस्तक आजकल के सामाजिक परिवार, मेरे बच्चों, और उनकी आने वाली पीढ़ियों के लिए एक दर्पण होगी, इसमें वे देख पाएंगे कि मैंने अपने जीवन में किन संघर्षों, सुख-दुख, और अनुभवों का सामना किया। मेरी असफलताएं, मेरी उपलब्धियां, मेरी गलतियां, और मेरे अनुभव। आशा है कि इसे पढ़ने वाले इसके पन्नों में अपनी कहानी भी ढूंढ पाएंगे।
ज़िन्दगी की उथल पुथल में सागर सा अशांत मन जब सुक़ून की तलाश में निकला तो जैसे रात के सन्नाटे में सफ़ेद लिबास में लिपटी शांति सी, सुक़ून सी ये कौन थी जिसने दिल के दरवाज़े पर दस्तक दे दी पता ही ना चला।
अभय ने नाम पूछा
तो जवाब मिला........ अमीता।
पर मन का ये सुक़ून कब ज़हन और रूह तक उतर गया अंदाज़ा ही नहीं हुआ। वो जैसे जीवन की उदासी में सुक़ून भरा जश्न थी।
पर किसी एक के लिए जश्न किसी दूसरे के लिए सर दर्द की वजह भी बन जाता है।
अमीता अभय के लिए सुकून बनती जा रही थी और रीमा के लिए आने वाला तूफ़ान। जिसकी रीमा को ज़रा भी आहट महसूस ना हुई। अभय ने रीमा से सात फेरों के साथ जो वचन लिए थे वो शायद उदासी और अशांति की चादर में लपेट कर किसी संदूक में बंद सहेज कर रख दिए गए थे।
शायद शादी के एल्बम की तरह कुछ रिश्ते भी कुछ वक़्त के बाद सिर्फ़ रखने भर के लिए रह जाते हैं। जो बस हैं, इसलिए सहेज कर रखे गए हैं। पर उन्हें एक प्यार भरी नज़र का सिर्फ़ इंतज़ार रह जाता है उम्र भर।
शायद रीमा और अभय को भी अब उसी एक प्यार भरी नज़र का इंतज़ार था।
किसी स्त्री के लिए किसी पुरुष के साथ ऐसा रिश्ता जो उसे सुरक्षित महसूस कराता हो बेहद ख़ास होता है। वो सुरक्षा का भाव उसे पिता से मिले, पति से मिले, भाई से या फिर किसी पुरुष मित्र से। ठीक ऐसे ही किसी पुरुष के लिए प्रेम और अपनत्व वो चाहे माँ से मिले, बहन से मिले, पत्नी से या किसी महिला मित्र से, हमेशा अहम होता है।
अभय बचपन से माँ का लाडला तो था , पर चार छोटी बहनों के बाद वो लाड़ प्यार शायद अभय को उतना नहीं मिल पाता था जितना हमेशा मिला करता था। बड़ा होने के नाते माँ के प्यार से थोड़ा कम ही धनी रहा था अभय। और उस प्रेम को उसने अपनी जीवन संगिनी रीमा में खोजना चाहा था।
पर प्रेम विवाह की शुरुआत जितने प्रेम से हुई थी समय के साथ साथ शायद उसकी मिठास कुछ कम होती जा रही थी। ये रिश्ता भी घर की छत पर टंगे किसी सूती वस्त्र की तरह, जिसे गलती से कोई संभालना भूल गया था, धूप और बारिश की मार झेल कर बदरंग हो चुका था। और किसी को इसे सँभालने की याद आती उससे पहले इसकी चमक और खूबसूरती कहीं खो चुकी थी।
ऐसा नहीं था की अभय रीमा से प्यार नहीं करता था, पर इन दोनों के रिश्ते में दूरियों की वजह ना चाहते हुए भी रीमा ख़ुद ही बनती जा रही थी। अभय के सामने रीमा अक़्सर अपनी बहन और बहनोई की ख़ूब तारीफ़ें किया करती थी। अपने साथ उनकी तुलना अभय को कभी अच्छी नहीं लगी। पर अभय के बार बार मना करने के बाद भी रीमा ने ये सब बंद नहीं किया।
कभी कभी हम अपने रिश्तों और अपने लोगों की अच्छाई देख ही नहीं पाते। हमें तो, जो दूसरों के पास है वो बेहतरीन लगता है। शायद साथ चलने वालों की ख़ूबसूरती हमें उतनी साफ़ तौर पर नज़र नहीं आती जितनी सामने खड़े व्यक्ति की। क्योंकि हमने कभी नज़र घुमाकर अपने साथ चल रहे लोगों को देखा ही नहीं। चलते हुए नज़र बस सामने ही लगी रही।
यही नहीं रीमा का बच्चों के साथ उनके हर झूठ में खड़े होना, उनकी ग़लत बातों पर भी उनका साथ देना, अभय से बच्चों के गलतियाँ छिपाना अभय को पसंद नहीं था। घर का माहौल अशांत ना हो इसलिए रीमा बहुत सी बातें अभय से छिपा जाती थी। और अभय को लगता था की ये सब बच्चों के बिगड़ने की वजह बन रहा है। वो नहीं चाहता था की बदलते दौर का कोई भी बुरा प्रभाव बच्चों पर पड़े। वहीँ रीमा बच्चों को एक मॉडर्न लाइफ़ देना चाहती थी। उसे लगता था की कान्वेंट स्कूल की पढ़ाई के साथ बच्चों में बदलते माहौल का असर तो आएगा ही। वो बच्चों को बिगाड़ना नहीं चाहती थी पर उन्हें एक खुले वातावरण में दुनिया के साथ चलने से रोकना भी नहीं चाहती थी।
कोई भी माता पिता नहीं चाहते की उनके बच्चे ग़लत रास्ते चलें। आख़िर हर माँ बाप यही तो चाहते हैं की उनके बच्चे दुनिया से क़दम ताल करें, वो कहीं पीछे न रहें। पर अगर बच्चे इस आज़ादी का ग़लत इस्तेमाल करें तो सारा दोष माता पिता को ही दिया जाता है। उनकी परवरिश में ही कमी ढूंढी जाती है।
रीमा - आपको तो हमेशा ही हम सब से दिक़्क़त रहती है अभय। आख़िर लड़कों से दोस्ती या देर रात तक पार्टी इसमें बुरा क्या है ?बच्चों को आज कल के माहौल से दूर रखना कहाँ तक सही है? दुनिया कहाँ जा रही है बच्चों को दुनिया के साथ तो चलना ही होगा। इस तरह रोकते रहे तो हमारे ही बच्चे पिछड़ कर रह जायेंगे।
अभय - पर तुम्हें पता है की मुझे ये सब पसंद नहीं। क्या तुम जानती नहीं माहौल कितना ख़राब है। लड़कियों का देर रात तक पार्टियों में बाहर रहना ठीक नहीं है। क्या तुम्हे नहीं दिखता ?
रीमा - बच्चों को कान्वेंट स्कूल में पढ़ा रहे हैं तो ये सब तो होगा ही। लड़कों से दोस्ती में आख़िर बुरा क्या है ? बच्चों को ज़्यादा रोकना टोकना भी ठीक नहीं। आप समझते क्यों नहीं?
अभय – हाँ, मैं नहीं समझता और समझना भी नहीं चाहता। अगर बच्चों के साथ कुछ ग़लत हुआ, तो इसका ज़िम्मेदार कौन होगा बोलो ?
रीमा - मैं माँ हूँ उनकी, दुश्मन नहीं। मुझे भी पता है क्या सही है और क्या ग़लत है उनके लिए।
बच्चों को लेकर इस तरह की बहस अक़्सर रीमा और अभय के बीच शुरू होती और झगड़े में बदल जाती। पर ना रीमा अभय की बात से सहमत होती और ना ही अभय रीमा की बात से। शायद दोनों अपनी अपनी बात एक दूसरे को समझा ही नहीं पा रहे थे। विचारों का ये मतभेद दोनों में दूरियों की वजह बनता जा रहा था। और यही वजह थी की अभय रीमा से दिन दिन और दूर होता जा रहा था।
अभय की नज़र में रीमा ग़लत बनती जा रही थी और घर का माहौल अशांत हो रहा था। जिसका परिणाम ये हुआ की अभय रीमा से दूर रहकर ज़्यादा सुक़ून महसूस करने लगा। एक दूसरे को प्यार ना दे पाना कब दूरियों में बदल गया दोनों को समझ नहीं आया। अभय का मन जब भी अशांत होता वो घर से निकल जाता। कहीं भी एकांत की तलाश में अक़्सर वो किसी भी गेस्ट हाउस में एक दो दिन बिताता और घर लौट आता।
कुछ सालों बाद तो ये आम बात हो गयी। कई बार तो हफ़्ते भर भी अभय अपने परिवार से दूर रहता। पत्नी के कहने पर भी घर वापस ना आता। रीमा को कभी कभी शक़ होता की शायद अभय की ज़िन्दगी में कोई और है, और वो अभय का पता लगाकर उसे मिलने भी जाती पर अभय किसी भी गेस्ट हाउस में कुछ भी खाकर अकेला रहता, अपनी ही दुनिया में खोया हुआ। और तलाश थी सिर्फ़ मानसिक और आत्मिक शांति की।
रीमा – (गुस्से में) अभय कहाँ हैं आप ? घर क्यों नहीं आये।
अभय –( झुंझलाते हुए ) मन नहीं था घर आने का तुम मेरा इंतज़ार मत करो सो जाओ जब मन करेगा आ जाऊँगा ।
रीमा -लगता है कोई और है जिसके साथ वक़्त बिताया जा रहा है। तो घर आने का मन क्यों करेगा।
अभय - तुम्हे जो सोचना है सोचो।
रीमा -तो बताते क्यों नहीं ? हो कहाँ ?
अभय -मैं एक गेस्ट हाउस में रुका हूँ, अब यहाँ तो मुझे शांति से रहने दो।
रीमा -कौन सा गेस्ट हाउस ? पता दो मुझे, वहीँ आती हूँ। मैं भी तो देखूँ की आख़िर कहाँ और कौन सी शांति की खोज में भटक रहे हैं आप।
अभय -ठीक है ले लो पता, और देख लो आकर।
रीमा ने अभय का पता लिया और पहुँच गयी उसे देखने की वो कहाँ है। और ये जानने की जो पता उसने दिया वो सच में वहाँ है, या कहीं और। जब रीमा वहाँ पहुँची तो अभय गेस्ट हाउस में रुखा सूखा खाकर रह रहा था।
रीमा -तो ये है आपकी सुकून भरी दुनिया। ये रुखा सूखा खाकर ही पेट भरो। घर में सबके साथ अच्छे से खाना नहीं भाता आपको? ये सूखी रोटियाँ खाकर ही खुश हैं आप ?
अभय - रोटी की परवाह नहीं मुझे, पर यहाँ रोज़ रोज़ की बहस और अशांति तो नहीं हैना। मैं यहाँ ज़्यादा ठीक हूँ।
सच है की अशांत माहौल में जो स्वाद पकवान में भी नहीं आता वो अगर माहौल सुक़ून भरा हो तो सूखी रोटी में भी आ जाता है।
कभी कभी तो अभय का मन करता की वो दुनियादारी से दूर किसी पहाड़ पर जाकर एकांत में रहना शुरू कर दे। और वो ऐसा करता भी। ऋषिकेश जाकर किसी आश्रम में वो ठहरता और अकेला रहकर फिर कुछ दिन में वापस लौट आता। उसे मालूम था की परिवार के प्रति भी उसके कुछ दायित्व हैं जिनसे वो मुँह नहीं मोड़ सकता।
शांति की तलाश उसे एकांत की तरफ़ ले जाती तो परिवार का दायित्व वापस घर ले आता।
अजीब कश्मकश में गुज़र रहा था अभय का जीवन। रीमा के साथ वैवाहिक जीवन की शुरुआत अभय ने जिस उम्मीद से की थी वो उसे कभी पूरी होती नहीं दिखी। रीमा का स्वभाव गुस्सैल तो शादी से पहले भी बहुत था। पर अभय ने जब तक इस बात पर ध्यान दिया तब तक युवा प्रेम का ये रिश्ता सामाजिक दायरों से कहीं आगे बढ़ चुका था। इतना आगे की वहाँ से लौटना अभय को रीमा के साथ धोखा करने जैसा लग रहा था।
प्रेम भले युवावस्था का था पर अभय को इसकी गंभीरता का पूरा एहसास था।
दरअसल अभय और रीमा की मुलाक़ात एक दोस्त की बहन की शादी में हुई थी। वैसे तो अभय बचपन से ही माता पिता से दूर अपने चाचा चाची के पास ऋषिकेश में रहता था। चार और बेटियों के पालन पोषण की ज़िम्मेदारी के चलते अभय के माता पिता ने अभय को उसके चाचा चाची के घर भेज दिया था, ताकि उसकी परवरिश ठीक से हो सके। लेकिन यशोधा बन पाना हर किसी के लिए इतना आसान नहीं। पराये बच्चे को अपने की तरह प्यार दे पाना सबके बस की बात नहीं। चाचा का प्यार तो मिला अभय को पर चाची का बर्ताव बेहद रूखा था। माँ से दूर रहकर माँ के प्यार को तो तरस ही रहा था अभय अब चाची का रूखापन भी उसे भीतर ही भीतर कचोट रहा था।
किसी तरह बारहवीं की पढ़ाई पूरी कर अभय अपने पैतृक घर के पास ही आगरा शहर में पढ़ने आ गया। और अक़्सर छुट्टी के दिन या जब कभी भी फ़ुर्सत मिलती वो अपने माता पिता से मिलने पहुँच जाता।