Before the year 0000 in Hindi Fiction Stories by Rakesh books and stories PDF | साल 0000 से पहले

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साल 0000 से पहले

क्या आपने कभी गहराई से सोचा है कि उस युग की दुनिया कैसी रही होगी जब समय को मापने का कोई साधन ही नहीं था? ना कोई कैलेंडर था, ना घड़ी, ना ही तारीखों का कोई नामोनिशान। तब लोग कैसे तय करते होंगे कि किस दिन खेत में बीज बोना है और कब फसल काटनी है? कल्पना कीजिए एक ऐसा दौर जब इस धरती पर तारीख, साल और महीनों जैसे शब्द ही मौजूद नहीं थे। फिर भी कुछ लोग जानते थे कि कौन सा दिन शुभ है और कौन सा दिन अनिष्ट का संकेत देता है। क्या आपने कभी यह सवाल किया कि एक साल में ठीक 365 दिन ही क्यों होते हैं? 12 महीने ही क्यों बनाए गए? यह सवाल इतना सरल नहीं है जितना लगता है, क्योंकि इसका जवाब हमारे प्राचीन इतिहास और विज्ञान की गहरी परतों में छिपा है। इस रहस्यमयी यात्रा में हम समय को उल्टा मोड़ेंगे और बहुत पीछे जाएंगे—उस युग में जहां समय को देखा नहीं जाता था, बल्कि महसूस किया जाता था। यह सिर्फ समय की कहानी नहीं है; यह मानव की सोच, उसकी कल्पनाओं और उसके अस्तित्व का भी रहस्य है। लेकिन सावधान रहें, जो बातें आप आगे जानने जा रहे हैं, वे शायद आपके समय को लेकर अब तक के सारे विश्वासों को हिला दें।

ज़रा सोचिए, अगर आपकी आँखें एक ऐसे संसार में खुलें जहां ना कोई तारीख हो, ना सोमवार-मंगलवार का नाम, ना नया साल, ना घड़ी, और ना ही कैलेंडर। तो आपकी ज़िंदगी कैसी होगी? आप अपनी यात्राएं कब तय करेंगे? जन्मदिन या त्योहार किस दिन मनाएंगे? या फिर यह भी नहीं समझ पाएंगे कि आज कौन सा दिन चल रहा है? लेकिन अगर आप अपने आसपास के लोगों को देखें, तो पाएंगे कि बिना कैलेंडर और घड़ी के भी वे अपनी ज़िंदगी पूरी तरह जी रहे थे। खेतों में बुवाई हो रही थी, त्योहार मनाए जा रहे थे, युद्धों की तारीखें तय हो रही थीं, और भविष्य की योजनाएं बन रही थीं। 

अब बड़ा सवाल यह है: जब 1 जनवरी 0001 जैसी कोई तारीख अस्तित्व में ही नहीं थी, तब इंसान समय को कैसे समझता था? उनके पास ना कोई डिजिटल घड़ी थी, ना कैलेंडर, फिर भी वे जान जाते थे कि किस दिन कौन सा पर्व मनाना है। क्या यह संभव है कि उन्होंने सचमुच सितारों से संवाद किया हो? या फिर उनके पास कोई ऐसा रहस्यमय ज्ञान था जो आज के युग में हम खो चुके हैं? क्या आपने कभी महसूस किया कि घड़ी की टिक-टिक असल में आपकी आत्मा पर एक अदृश्य बंधन है? हम सोचते हैं कि हम समय को पकड़ते हैं, लेकिन क्या सच यह नहीं कि समय ही हमें पकड़कर रखता है?

हम मानते हैं कि समय की शुरुआत किसी 1 जनवरी से हुई थी। लेकिन यह तो बस वह पल था जब मनुष्य ने समय को सीमाओं में बांधने की कोशिश की। असल में, समय उससे बहुत पहले सांस ले रहा था, बस उसकी भाषा हम नहीं समझते थे। हजारों साल पहले, जब इंसान आसमान की ओर नजरें उठाता था, तो उसे बदलाव दिखाई देते थे—रात में चांद का आकार बदलना, दिन में सूरज का पूर्व से पश्चिम की ओर सफर करना, तारों का रात-दर-रात अपनी जगह बदलना। यही बदलाव उनके लिए समय की पहली अनुभूति थे। वे समझ चुके थे कि समय को महसूस किया जा सकता है, लेकिन उसे पकड़कर रखना असंभव है।

इस असंभव को संभव बनाने की चाह में उन्होंने पहला तरीका खोजा—इंसान की पहली टाइम मशीन। अब यह मत सोचिए कि यह कोई धातु की घड़ी थी। यह कोई यांत्रिक यंत्र नहीं था। यह थे मात्र पत्थर। यह सुनकर आप चौंक सकते हैं। आखिर पत्थर समय कैसे माप सकते हैं? लेकिन यह सच है। प्राचीन सभ्यताओं ने ऐसे विशाल पत्थर खड़े किए, जिन्हें किसी दिशा में यूं ही नहीं रखा गया था, बल्कि सूरज की परछाइयों के हिसाब से व्यवस्थित किया गया था। हर दिन सूरज अलग कोण से उगता था, और उसकी छाया पत्थरों पर बदलती रहती थी। लेकिन साल के एक खास दिन, सूरज की किरणें ठीक उसी बिंदु पर पड़ती थीं जहां वे विशाल पत्थर खड़े थे। क्या यह केवल संयोग था, या इसके पीछे कोई अनदेखा रहस्य छिपा था?

ब्रिटेन का **स्टोनहेंज** इस रहस्य का सबसे बड़ा उदाहरण है। खुले मैदान में खड़े विशालकाय पत्थरों का यह अद्भुत घेरा आज भी दुनिया को चकित करता है। ये पत्थर यूं ही बेतरतीब नहीं रखे गए थे, बल्कि बेहद सूक्ष्म गणनाओं के आधार पर उनकी स्थिति तय की गई थी। हर साल 21 जून को सूरज की पहली किरण इन पत्थरों के बीच से निकलती है, और 21 दिसंबर को वही सूरज ठीक उसी बिंदु पर डूबता है। क्या यह केवल प्रकृति का खेल है, या इसके पीछे कोई ऐसा रहस्य है जो हमें समय की सच्ची परिभाषा तक पहुंचा सकता है? यह था उनका अनोखा तरीका मौसम और समय को समझने का—ना कोई घड़ी, ना कैलेंडर, बस सूरज और पत्थरों की रहस्यमयी भाषा।

2022 में हुई एक शोध में खुलासा हुआ कि स्टोनहेंज में खड़े विशाल पत्थर संभवतः साल के पूरे 365 दिनों का प्रतिनिधित्व करते थे, बिल्कुल आज के कैलेंडर की तरह। ऐसा लगता है जैसे हर पत्थर एक दिन या एक सप्ताह का पहरेदार हो, समय को चुपचाप दर्ज करता हुआ। इसलिए अगली बार जब आप स्टोनहेंज की तस्वीर देखें, तो उसे सिर्फ पत्थरों का ढांचा न समझें। यह एक प्राचीन वैज्ञानिक करिश्मा था—समय को पत्थरों में कैद करने वाला अद्भुत कैलेंडर।

लेकिन क्या आप जानते हैं कि भारत में भी ऐसे कई स्थल मौजूद हैं जहां हजारों साल पहले सूर्य के गणित का अद्भुत उपयोग किया गया था? हमारे यहां मंदिर सिर्फ पूजा स्थल नहीं थे, वे समय मापने के सबसे सटीक केंद्र भी थे। अब खुद से पूछिए, क्या ओडिशा का **कोणार्क सूर्य मंदिर** सिर्फ धार्मिक अनुष्ठानों के लिए बना था, या वह भी एक प्राचीन टाइम मशीन था जो ऋतुओं और वर्षों को गिन सकता था? समुद्र की लहरों से कुछ ही दूरी पर खड़ा यह अद्वितीय मंदिर सूर्य देव के रथ के रूप में जाना जाता है। इसकी वास्तुकला इतनी सटीक है कि साल के दो खास दिनों पर सूरज की किरणें सीधे इसके गर्भगृह में प्रवेश करती हैं, जैसे किसी वैज्ञानिक प्रयोगशाला में प्रकाश को नियंत्रित किया गया हो।

सूर्यदेव के इस पत्थर के रथ में 12 विशाल पहिए, सात घोड़े, और एक ऐसा रहस्य है जो सदियों से दुनिया को आकर्षित करता रहा है। हर पहिया साल के 12 महीनों को दर्शाता है, और हर पहिए की आठ तीलियां दिन के आठ पहरों को चिह्नित करती हैं। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि जिस तरह आज हम घंटे, मिनट, और सेकंड में समय गिनते हैं, उसी तरह प्राचीन भारत में हमारे पूर्वज समय को पहरों में मापते थे। इन पत्थरों पर पड़ने वाली सूरज की छाया बताती थी कि दिन का कौन सा पहर चल रहा है। सोचिए, जब दुनिया को घड़ी बनाने का विचार भी नहीं आया था, तब हमारे पूर्वज पत्थरों और सूरज की मदद से समय पढ़ रहे थे। यह सिर्फ कला नहीं थी, यह अद्भुत विज्ञान था—हमारी धरती पर जन्मी **टाइम इंजीनियरिंग**।

कल्पना कीजिए कि आप 5000 साल पहले के किसी कबीले का हिस्सा हैं। आपको बताया गया है कि जैसे ही सूरज की परछाई तीसरे पत्थर को छू लेगी, नई ऋतु की शुरुआत होगी। कोई घड़ी नहीं, कोई मोबाइल अलर्ट नहीं। बस एक परछाई, और उसी पर आपकी पूरी सभ्यता का भविष्य निर्भर करता है। सवाल यह है: क्या पत्थर उस समय सचमुच समय की भाषा बोलते थे? और अगर हां, तो क्या वह भाषा आज भी जीवित है? या हम मशीनों पर इतना निर्भर हो गए हैं कि उस ज्ञान को हमेशा के लिए खो चुके हैं?

जब प्राचीन मानव ने पहली बार आकाश की ओर नजरें उठाईं, तो उसने पाया कि एक और चीज रोज बदलती है—चांद। हर रात चांद का अलग रूप होता था। कभी पतली सी रेखा, कभी गोल चमकता गोला, और फिर धीरे-धीरे लुप्त हो जाना। यह सिर्फ सौंदर्य नहीं था; यह समय का सबसे पहला संकेत था। हजारों साल पहले, जब ना तारीखें थीं, ना घड़ियां, तब इंसानों ने चांद को समय मापने का साधन बना लिया। अमावस्या से पूर्णिमा और फिर पूर्णिमा से अमावस्या तक का 29 दिनों का चक्र—यही बना दुनिया का सबसे पहला कैलेंडर, जिसे हम आज **लूनर कैलेंडर** कहते हैं। 

भारत की **पंचांग प्रणाली** में तिथि और पक्ष जैसी अवधारणाएं चंद्रमा की गति से जुड़ी थीं। यह कैलेंडर केवल समय गिनने का साधन नहीं था, बल्कि सामाजिक, धार्मिक, और कृषि जीवन की धड़कन बन चुका था। त्योहार, व्रत, विवाह—सब कुछ चंद्रमा की स्थिति के अनुसार तय होता था। लेकिन चांद के साथ-साथ एक और खगोलीय शक्ति समय को माप रही थी—सूर्य। सूर्य का एक चक्र लगभग 365 दिनों का होता है, स्थिर और सटीक। यही कारण था कि मिस्र और रोमन सभ्यताओं ने सूर्य आधारित कैलेंडर को अपनाया। 

अब सोचने वाली बात यह है: एक ओर चांद था, जो 29 दिनों में अपना चक्र पूरा करता था, और दूसरी ओर सूर्य, जिसे ऋतुओं के पूरे चक्र को तय करने में 365 दिन लगते थे। ऐसे में कौन सा कैलेंडर अधिक प्राकृतिक था? भारत ने इस दुविधा का अद्भुत समाधान निकाला। उन्होंने चंद्र और सौर दोनों को मिलाकर एक संतुलित कैलेंडर रचा, जिसे **लूनिसोलर कैलेंडर** कहा गया। इस प्रणाली में हर 32.5 महीने में एक अतिरिक्त महीना जोड़ा जाता था, जिसे **अधिमास** कहा जाता है, ताकि चंद्र वर्ष और सौर वर्ष एक-दूसरे के साथ संतुलन में रह सकें। प्राचीन विद्वान यह सब समझने के लिए गहन खगोलीय गणनाओं का उपयोग करते थे। 

आज भले ही वैश्विक व्यापार और तकनीक के लिए सूर्य आधारित कैलेंडर की आवश्यकता हो, लेकिन हमारी आत्मा अब भी चंद्रमा की ओर झुकी है। यही कारण है कि होली, दीपावली जैसे त्योहार आज भी चंद्र तिथियों के अनुसार मनाए जाते हैं। जब पश्चिमी सभ्यताएं साल, महीने, और तारीखों की उलझन में थीं, तब भारत के ऋषि समय को युगों के विशाल चक्र में माप रहे थे। वे जानते थे कि समय केवल एक सीधी रेखा नहीं, बल्कि एक घूमता हुआ चक्र है। इसी चक्र को समझने के लिए उन्होंने **वेदांग ज्योतिष** की रचना की। यह केवल ज्योतिष शास्त्र नहीं था, बल्कि समय की गहन वैज्ञानिक व्याख्या थी। इसमें पृथ्वी की गति, सूर्य की स्थिति, चंद्रमा की कलाएं, और ग्रहों की चाल को जोड़कर एक जटिल लेकिन सटीक प्रणाली बनाई गई थी। आधुनिक विज्ञान ने भी बाद में इसकी कई गणनाओं को सही साबित किया। 

प्राचीन भारत के ऋषियों ने समय को सिर्फ पल नहीं माना, बल्कि उसे ऊर्जा का प्रवाह समझा। आज जब हम घड़ी की ओर देखते हैं, हमें सिर्फ संख्याएं दिखाई देती हैं। लेकिन जब वे आसमान की ओर देखते थे, उन्हें जीवन, मृत्यु, और पुनर्जन्म की लय को दर्शाता एक विशाल चक्र नजर आता था। 

आज हम हर वर्ष की शुरुआत 1 जनवरी को आतिशबाजी के साथ मनाते हैं, मानते हैं कि यह एक नया चक्र शुरू हो गया। लेकिन क्या आपने कभी सोचा कि यह तारीख आई कहां से? असल में, 46 ईसा पूर्व में, यानी 1 जनवरी 0001 से 46 वर्ष पहले, **जूलियस सीज़र** ने पाया कि रोमन कैलेंडर पूरी तरह अव्यवस्थित हो चुका था। खेती के मौसम बिगड़ रहे थे, धार्मिक आयोजन बिखर रहे थे। इस समस्या को हल करने के लिए उन्होंने एक नया कैलेंडर बनाया—**जूलियन कैलेंडर**। इसमें साल 365 दिन का था, और हर चौथे साल फरवरी में एक अतिरिक्त दिन जोड़कर **लीप ईयर** बनाया गया। लेकिन यह भी पूर्ण नहीं था। 

सबसे रोचक बात यह है कि सन 0 जैसा कोई वर्ष कभी अस्तित्व में था ही नहीं। सीधे 1 ईसवी से कैलेंडर की गिनती शुरू हुई, और 1 जनवरी को नए साल का आरंभ माना गया। कहा गया कि यह ईसा मसीह का जन्म वर्ष है, जबकि ऐतिहासिक प्रमाण बताते हैं कि उनका जन्म संभवतः इस कैलेंडर की शुरुआत से 4-6 वर्ष पहले हुआ था। तो क्या यह सिर्फ एक धार्मिक धारणा थी, जिसे दुनिया का सार्वभौमिक कैलेंडर बना दिया गया?

सदियों तक जूलियन कैलेंडर चलता रहा, लेकिन 1500 साल बाद इसमें 10 दिनों का अंतर आ गया। इसे सुधारने के लिए **पॉप ग्रेगरी XIII** ने एक साहसिक निर्णय लिया। अक्टूबर 1582 में, उन्होंने इतिहास से सीधे 10 दिन हटा दिए—4 अक्टूबर के बाद सीधे 15 अक्टूबर कर दिया गया। तब से लेकर आज तक हम **ग्रेगोरियन कैलेंडर** का पालन कर रहे हैं। 

लेकिन अब भी सवाल बाकी है: साल में ठीक 12 महीने ही क्यों होते हैं? एक महीना लगभग 30 दिनों का क्यों होता है? और जूलियन कैलेंडर में हर 4 साल में फरवरी को 29 दिन का क्यों कर दिया गया? इसका जवाब हमें खगोलीय पिंडों—चंद्र, सूर्य, और पृथ्वी की गति में मिलता है। 

चलिए, इस रहस्य को समझने के लिए अंतरिक्ष की ओर बढ़ते हैं। जब आप अंतरिक्ष से पृथ्वी को देखते हैं, तो साफ नजर आता है कि यह अपने अक्ष पर लगातार घूम रही है। हर 24 घंटे में पृथ्वी अपनी धुरी पर एक पूरा चक्कर लगाती है, जिसे हम एक दिन कहते हैं। लेकिन इसी दौरान चंद्रमा भी पृथ्वी की परिक्रमा कर रहा होता है। जब तक चंद्रमा पृथ्वी का एक चक्कर पूरा करता है, तब तक पृथ्वी अपनी धुरी पर लगभग 29 बार घूम चुकी होती है। यही 29 दिन मिलकर एक महीना बनाते हैं, जो लगभग 30 दिनों का होता है। 

जैसे चंद्रमा पृथ्वी की परिक्रमा करता है, वैसे ही पृथ्वी भी सूर्य के चारों ओर घूमती है। जब तक पृथ्वी सूर्य का एक पूरा चक्कर लगाती है, तब तक वह अपनी धुरी पर 365 बार घूम चुकी होती है, और चांद पृथ्वी की लगभग 12 बार परिक्रमा कर चुका होता है। इसी कारण एक वर्ष में 12 महीने होते हैं, और कुल 365 दिन गिने जाते हैं। लेकिन इसमें एक मोड़ है—पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमते हुए 365 दिन में नहीं, बल्कि लगभग 365.25 दिन में चक्कर पूरा करती है। 4 साल में यह अतिरिक्त समय मिलकर एक पूरे दिन के बराबर हो जाता है। इस एक अतिरिक्त दिन को कैलेंडर में संतुलित करने के लिए हर 4 साल में **लीप ईयर** जोड़ा जाता है, जिसमें फरवरी का महीना 29 दिनों का होता है। 

आपको यह भी जानना चाहिए कि **हिंदू पंचांग**, जो आज भी हमारे संस्कारों में गहराई से जुड़ा है, चंद्रमा की गति पर आधारित है। चंद्रमा 29 दिनों में अपना एक पूरा चक्र पूरा करता है, और इस तरह 12 चक्र मिलकर एक वर्ष बनाते हैं। इस हिसाब से पंचांग का एक साल लगभग 354 दिनों का होता है। लेकिन सौर वर्ष 365.25 दिनों का होता है। इन दोनों में संतुलन बनाने के लिए हर ढाई से तीन साल में पंचांग में एक अतिरिक्त महीना जोड़ा जाता है, जिसे **अधिक मास** कहा जाता है। यह लीप ईयर जैसा ही है, फर्क सिर्फ इतना है कि इसमें एक दिन नहीं, बल्कि पूरा एक महीना बढ़ाया जाता है। 

आज हम आधुनिक तकनीक की मदद से इन खगोलीय घटनाओं की सटीक गणना कर सकते हैं। लेकिन कल्पना कीजिए कि हमारे पूर्वजों ने हजारों साल पहले, बिना किसी मशीन के, यह सब समझ लिया था। यह दिखाता है कि उनका खगोल विज्ञान कितना गहरा और अद्भुत था। समय, जो कभी ऋषियों के लिए ब्रह्मांड की धड़कन था, आज कागज पर लिखे कुछ अंकों में सिमट गया है। हमने उसे इतना बांध दिया कि यह भूल गए कि समय बाहर से ज्यादा भीतर बहता है। 

तो अगली बार जब आप घड़ी पर नजर डालें या कैलेंडर में 1 जनवरी को नया साल मानकर जश्न मनाएं, तो एक पल के लिए ठहरें। खुद से पूछें: क्या आप सचमुच समय को महसूस कर रहे हैं, या केवल किसी और के बनाए नियमों का पालन कर रहे हैं? क्योंकि सच यह है कि समय कभी शुरू नहीं हुआ था, और शायद कभी खत्म भी नहीं होगा। उसकी असली भाषा आज भी सितारों में छुपी है—चंद्रमा की चाल में, सूर्य की गर्मी में, और आपकी धड़कनों में। 

1 जनवरी 0001 बस एक तारीख थी। लेकिन समय उससे कहीं अधिक प्राचीन और अनंत है। भारत में पंचांग, जूलियन कैलेंडर के अस्तित्व में आने से हजारों साल पहले ही विकसित हो चुका था। आश्चर्य की बात यह है कि यह प्रणाली आज भी उतनी ही सटीक है, जितनी हजारों साल पहले थी। समय की धारा 1 जनवरी 0001 से ना तो शुरू हुई थी, ना ही वह कभी रुकी। वह तब भी बह रही थी, और आज भी बह रही है। सवाल सिर्फ इतना है: क्या आप उसकी धड़कन सुन पा रहे हैं? या आप समय को पकड़ने की कोशिश में खुद उसी में खो चुके हैं? शायद असली सवाल यह है: क्या आप भी बस अपने सही समय का इंतजार कर रहे हैं?