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उस शाम मैं अकेला ही सिनेमा हॉल की ओर चला गया था। ज़िंदगी के तमाम सवालों और उलझनों से थका हुआ मन किसी सहारे की तलाश में था। बाहर का आसमान अँधेरा था, लेकिन भीतर मेरे मन का आसमान और भी बोझिल। टिकट खिड़की से टिकट लिया और भीड़ के साथ हॉल में दाख़िल हो गया। भीड़ में सब अजनबी थे, लेकिन उस भीड़ के बीच भी मैं अपनी तन्हाई को ढो रहा था।
फिल्म का नाम था “छावा”। मुझे नहीं पता था कि यह सिर्फ़ एक फिल्म होगी या मेरे भीतर छुपे साहस को पुकारने वाली कोई आवाज़।
जैसे ही पर्दा उठा, लगा समय की परतें खुल रही हों। इतिहास के पन्ने सामने जीवंत होकर खड़े थे। तलवारों की झंकार, रणभूमि की धूल और योद्धाओं की हुंकार—सब कुछ इतना सजीव था कि मेरी धड़कनें तेज़ हो गईं। मैं सीट पर बैठा था, पर आत्मा कहीं और जा चुकी थी।
संभाजी का चेहरा जब पर्दे पर उभरा, तो मुझे लगा जैसे वह मेरे सामने खड़े होकर कह रहे हों—“डरना मत, संघर्ष ही जीवन है।” विक्की कौशल का अभिनय इतना गहरा था कि एक पल को लगा यह केवल फिल्म नहीं है, यह एक आईना है जिसमें मैं अपनी ही जद्दोजहद देख रहा हूँ। उनकी आँखों की चमक, उनकी आवाज़ की दृढ़ता—सबने मेरे भीतर दबे साहस को जगाना शुरू कर दिया।
पहले हिस्से में कहानी धीरे चलती रही। जैसे जीवन कभी थम-सा जाता है, वैसी ही रफ़्तार। मुझे लगा शायद यह फिल्म भी मेरे जीवन जैसी है—कभी-कभी बेमकसद लंबी और सुस्त। लेकिन इंटरवल के बाद सब बदल गया। जैसे मेरे भीतर भी अचानक कोई आग जल उठी हो। युद्धभूमि के दृश्य, तलवारों की टकराहट, तोपों की गरज—सबने भीतर की नींद तोड़ दी।
अक्षय खन्ना का औरंगज़ेब बनना मेरे लिए एक और अनुभव था। उनकी आँखों में नफ़रत की ज्वाला देखकर लगा कि ज़िंदगी में हमारे सामने आने वाली मुश्किलें भी कभी-कभी उसी औरंगज़ेब की तरह ही होती हैं—निर्दयी, कठोर और निर्मम। अशुतोष राणा का अभिनय भी मन पर गहरा असर छोड़ गया, जैसे वह किसी गुरु की तरह मुझे कह रहे हों—“संघर्ष से मत भागो, यही तुम्हें गढ़ेगा।”
लेकिन सच कहूँ तो हर जगह चमक नहीं थी। संगीत ने मुझे कई बार निराश किया। रणभूमि में बजती धुनें कई बार समय से बाहर लगतीं, जैसे कोई पुराना किस्सा आधुनिक शोर में खो गया हो। मुझे लगा कि जैसे मेरी ज़िंदगी में भी कई स्वर ऐसे हैं जो सही समय पर सही जगह नहीं बज पाते।
फिर भी, फिल्म की आत्मा संभाजी की कहानी में ही बसी रही। जब उन्होंने अत्याचार के ख़िलाफ़ खड़े होकर अपने प्राण दाँव पर लगाए, तो मेरे भीतर भी कोई आवाज़ गूँजी—“क्या तू अपनी लड़ाई से पीछे हटेगा, गौरव?”
मैं चुप था, लेकिन आँखों में आँसू भर आए।
फिल्म खत्म हुई, बत्तियाँ जलीं, और लोग उठकर बाहर जाने लगे। कुछ के चेहरे पर गर्व था, कुछ की आँखें भीगी हुई थीं। मैं अपनी सीट पर देर तक बैठा रहा। परदे की तरफ़ देखता रहा, जैसे वहाँ अब भी कोई छवि बाकी हो।
बाहर निकला तो रात और भी गहरी हो चुकी थी। ठंडी हवा गालों को छू रही थी, लेकिन भीतर एक आग जल रही थी। यह फिल्म परफेक्ट नहीं थी—इसमें कमियाँ थीं, इसकी कहानी कई जगह टूटती थी, संगीत खटकता था। लेकिन यह अपूर्णता भी किसी गहरी सच्चाई जैसी लगी। जैसे ज़िंदगी कभी पूरी नहीं होती, फिर भी हमें जीनी पड़ती है, ल़ड़नी पड़ती है।
उस रात घर लौटते वक्त मैंने महसूस किया कि “छावा” सिर्फ़ एक फिल्म नहीं थी। यह मेरे भीतर की हिम्मत की चिंगारी को हवा देने आई थी। यह मुझे यह बताने आई थी कि अगर संभाजी जैसा योद्धा अपने समय में डटा रह सकता है, तो मैं भी अपनी लड़ाइयों से हारकर नहीं बैठ सकता।
और शायद, यही असली मक़सद था—इतिहास से सीखकर आज की ज़िंदगी को जीना।
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