एपिसोड 16 – संविधान निर्माण की महान यात्रा
भारत की धरती 1947 में अंग्रेज़ी हुकूमत से आज़ाद हो चुकी थी। पर आज़ादी के साथ ही सबसे बड़ा सवाल सामने खड़ा था—आख़िर यह देश किस तरह चलेगा? सदियों से जाति, धर्म और संप्रदायों में बँटा समाज, विभिन्न भाषाएँ, असंख्य परंपराएँ, और प्रांतों के हित—इन सबको एक सूत्र में बाँधकर एक एकीकृत राष्ट्र बनाना आसान काम नहीं था। अंग्रेज़ों के जाते-जाते भारत विभाजन का ज़ख्म दे गए थे। पाकिस्तान बन चुका था और लाखों लोग विस्थापन तथा हिंसा की पीड़ा झेल रहे थे। इस माहौल में ज़रूरत थी एक ऐसे संविधान की, जो सबको एक समान अधिकार दे, सबको सुरक्षा और सम्मान दे, और भारत को एक लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में खड़ा कर सके।
इसी ऐतिहासिक घड़ी में इतिहास ने डॉ. भीमराव अंबेडकर को बुलाया।
संविधान सभा और अंबेडकर की नियुक्ति
भारत की संविधान सभा 9 दिसंबर 1946 को बनी थी। उसमें देश के अलग-अलग हिस्सों से चुने हुए प्रतिनिधि शामिल थे। जब संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए ड्राफ्टिंग कमेटी गठित की गई, तो 29 अगस्त 1947 को अंबेडकर को उसका अध्यक्ष नियुक्त किया गया। यह एक ऐतिहासिक निर्णय था।
कई लोगों ने चुपचाप आलोचना भी की। कुछ नेताओं का मानना था कि एक दलित नेता, जो कांग्रेस का हिस्सा भी नहीं था, उसे इतनी बड़ी जिम्मेदारी देना जोखिम भरा है। लेकिन जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल जैसे नेताओं ने साफ कहा—“अगर भारत का संविधान किसी को लिखना है, तो उससे बेहतर व्यक्ति अंबेडकर नहीं हो सकता।”
अंबेडकर इस जिम्मेदारी को सिर्फ एक सरकारी पद की तरह नहीं देख रहे थे। यह उनके लिए व्यक्तिगत और ऐतिहासिक मिशन था। वे जानते थे कि सदियों से शोषित और वंचित वर्ग को संविधान ही न्याय दिला सकता है।
अंबेडकर का दृष्टिकोण
अंबेडकर का मानना था कि संविधान सिर्फ कागज़ का दस्तावेज़ नहीं, बल्कि वह आधारशिला है जिस पर आने वाली पीढ़ियों का भविष्य खड़ा होगा। वे कहते थे—
“संविधान केवल शासन की व्यवस्था का दस्तावेज़ नहीं है, यह उस समाज की आत्मा भी है, जिसे हम गढ़ना चाहते हैं।”
उनका लक्ष्य तीन मूलभूत सिद्धांतों पर आधारित था—समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व। ये विचार उन्होंने फ्रांस की क्रांति और पश्चिमी लोकतंत्रों से तो लिए ही थे, लेकिन साथ ही भारतीय दर्शन और बुद्ध के करुणा-आधारित जीवनदृष्टि से भी प्रेरित थे।
समिति में चुनौतियाँ
संविधान सभा के सामने काम आसान नहीं था। भारत में करोड़ों लोग अशिक्षित थे। समाज गहरे धार्मिक और जातीय विभाजन से जकड़ा हुआ था। राज्यों को लेकर अलग-अलग आकांक्षाएँ थीं। हिंदू महासभा चाहती थी कि संविधान हिंदू संस्कृति को प्राथमिकता दे, मुस्लिम लीग पहले ही विभाजन के रूप में अलग हो चुकी थी, और बाकी अल्पसंख्यक अपने अधिकारों की गारंटी चाहते थे।
ड्राफ्टिंग कमेटी के भीतर भी गहन बहसें होती थीं। हर अनुच्छेद पर घंटों चर्चा होती। कई बार अंबेडकर को तीखी आलोचना झेलनी पड़ती। पर उनकी दृढ़ता और तार्किक सोच के आगे अक्सर विरोधी भी निरुत्तर हो जाते।
मौलिक अधिकार और समानता की जड़ें
अंबेडकर ने संविधान में मौलिक अधिकारों को विशेष महत्व दिया। वे मानते थे कि अगर हर नागरिक को संविधान से यह गारंटी नहीं मिलेगी कि वह बराबरी से जी सकता है, तो आज़ादी अधूरी रहेगी।
उन्होंने छुआछूत को अपराध घोषित करवाया। यह कदम भारतीय इतिहास में क्रांतिकारी था। सदियों से चली आ रही एक अमानवीय प्रथा को कानूनन अस्वीकार कर दिया गया।
इसके अलावा अंबेडकर ने सुनिश्चित किया कि हर नागरिक को धर्म, जाति, लिंग या भाषा के आधार पर भेदभाव से सुरक्षा मिले। उन्होंने शिक्षा और रोज़गार में समान अवसर का सिद्धांत स्थापित किया।
आरक्षण और सामाजिक न्याय
सबसे कठिन सवाल था—दलितों और पिछड़े वर्गों के उत्थान का। अंबेडकर ने तर्क दिया कि सदियों की अन्यायपूर्ण व्यवस्था को खत्म करने के लिए सिर्फ बराबरी के कानून काफ़ी नहीं होंगे। ज़रूरी है कि उन्हें आगे बढ़ने के लिए विशेष अवसर दिए जाएँ।
इसलिए उन्होंने आरक्षण की व्यवस्था को संविधान में शामिल कराया। शुरुआत में यह व्यवस्था दस साल के लिए अस्थायी रखी गई थी। पर इसकी जड़ में अंबेडकर की सोच थी—“समानता वहीं संभव है, जहाँ कमजोरों को बराबरी तक पहुँचने का अवसर मिले।”
लोकतंत्र का भारतीय रूप
अंबेडकर पश्चिमी लोकतंत्र से प्रभावित जरूर थे, लेकिन वे अंधानुकरण के खिलाफ थे। उन्होंने संसद आधारित लोकतंत्र को अपनाया, पर उसमें भारत की ज़रूरतों के मुताबिक संशोधन किए। उन्होंने केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का स्पष्ट बँटवारा किया। संघीय ढाँचा बनाया, लेकिन केंद्र को इतना मजबूत रखा कि भारत की एकता बनी रहे।
उनकी यह दूरदर्शिता बाद में कई बार काम आई, जब अलगाववादी ताकतें उठीं।
अल्पसंख्यकों और महिलाओं के अधिकार
अंबेडकर ने मुस्लिम, ईसाई, सिख और अन्य अल्पसंख्यकों के लिए भी समान अधिकारों की गारंटी दी। वे चाहते थे कि भारत का हर नागरिक खुद को सुरक्षित महसूस करे।
महिलाओं के लिए भी उन्होंने अभूतपूर्व कदम उठाए। उन्हें संपत्ति का अधिकार, समान शिक्षा और काम के अवसर की गारंटी दी गई। यह सब उस समय की भारतीय समाज व्यवस्था के लिए क्रांतिकारी बदलाव थे।
संविधान का मसौदा और लंबी बहसें
संविधान का पहला मसौदा फरवरी 1948 में प्रस्तुत किया गया। उसके बाद करीब तीन साल तक संविधान सभा में अनुच्छेद दर अनुच्छेद बहसें चलीं। कई बार विवाद इतना बढ़ता कि बैठकें घंटों तक चलतीं।
अंबेडकर धैर्यपूर्वक सबकी सुनते, पर जब बोलते तो उनकी बात का वजन सभा पर छा जाता। वे तथ्यों और उदाहरणों के साथ समझाते कि कोई प्रावधान क्यों ज़रूरी है।
कभी-कभी उन पर व्यक्तिगत हमले भी होते। कुछ सदस्य कहते कि अंबेडकर हिंदू धर्म के खिलाफ हैं, तो कुछ कहते कि वे पश्चिमी सोच थोप रहे हैं। अंबेडकर शांत स्वर में जवाब देते—
“मैं किसी धर्म के खिलाफ नहीं हूँ। मैं सिर्फ इतना चाहता हूँ कि इस देश का हर नागरिक बराबरी से जी सके।”
अंतिम मसौदा और अपनाया जाना
26 नवंबर 1949 को संविधान सभा ने भारतीय संविधान को स्वीकार किया। उस दिन सभा में वातावरण अत्यंत भावुक था। सदस्यों ने लंबे समय तक तालियाँ बजाईं। यह केवल एक कानूनी दस्तावेज़ नहीं, बल्कि भारत की आत्मा का नया जन्म था।
अंबेडकर ने उस दिन कहा था—
“यह संविधान चाहे कितना ही अच्छा क्यों न हो, अगर इसे लागू करने वाले अच्छे नहीं होंगे तो यह बुरा साबित होगा। और चाहे यह संविधान बुरा हो, अगर इसे लागू करने वाले अच्छे होंगे तो यह अच्छा साबित होगा।”
उनकी इस बात में गहरी चेतावनी थी। वे जानते थे कि असली परीक्षा कागज़ पर नहीं, बल्कि व्यवहार में होगी।
गणतंत्र का जन्म
26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ और भारत एक संपूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न लोकतांत्रिक गणराज्य बन गया। उस दिन दिल्ली की सड़कों पर उत्सव का माहौल था। हर जगह तिरंगा लहरा रहा था।
पर अंबेडकर के दिल में एक मिश्रित भाव था—गर्व भी और चिंता भी। गर्व इसलिए कि सदियों से दबे-कुचले समाज का बेटा आज भारत के संविधान का निर्माता बना था। और चिंता इसलिए कि क्या सच में यह समाज अब बराबरी के रास्ते पर चलेगा?
एपिसोड का समापन
एपिसोड 16 इस ऐतिहासिक क्षण पर खत्म होता है। यह वह मोड़ था जब अंबेडकर ने न सिर्फ अपने जीवन का सबसे बड़ा योगदान दिया, बल्कि पूरे भारत के भविष्य को दिशा दी।
अब वे केवल दलितों के नेता नहीं थे, बल्कि पूरे राष्ट्र के निर्माता बन चुके थे। पर उनके सामने अब भी कई लड़ाइयाँ बाकी थीं—हिंदू कोड बिल, धर्मांतरण का निर्णय और उनके जीवन के अंतिम संघर्ष।