भाग 2 : गुरु-दीक्षा और साधना मार्ग
1. भक्ति की तृष्णा और गुरु की खोज
जब कोई आत्मा जन्म से ही भक्ति-रस में रंगी होती है, तो उसका हृदय किसी न किसी गुरु की तलाश में स्वयं ही निकल पड़ता है। प्रेमानंद जी का जीवन भी इसी पथ पर चला। किशोर अवस्था तक आते-आते उनके भीतर भक्ति की तृष्णा इतनी तीव्र हो चुकी थी कि वे दिन-रात केवल यही सोचते – “मुझे वह गुरुदेव कब मिलेंगे जो मुझे राधा-कृष्ण के सच्चे मार्ग पर ले जाएँगे?”
उनका मन किसी सांसारिक आकर्षण में नहीं रमता था। लोग कहते – “इतनी छोटी उम्र में यह लड़का इतना गहन क्यों सोचता है?” लेकिन यह तो उनके भीतर जन्मजात संस्कारों की पुकार थी।
2. संतों से प्रथम साक्षात्कार
गाँव और आस-पास के क्षेत्रों में जब-जब संत-महात्मा आते, तो प्रेमानंद जी उनसे मिलने दौड़ पड़ते। वे ध्यान से उनके प्रवचन सुनते, उनके चरणों में बैठकर शांति का अनुभव करते।
एक बार एक संत ने उनसे कहा –
“बेटा, नाम का जप ही सब कुछ है, लेकिन नाम की असली शक्ति तब प्रकट होती है जब गुरु के माध्यम से मिलता है। गुरु केवल नाम नहीं देता, गुरु तो जीवन की दिशा देता है।”
ये वचन उनके हृदय में गहरे उतर गए। उसी क्षण उन्होंने ठान लिया कि जीवन में चाहे जितनी कठिनाई आए, वे अपने गुरु की तलाश करेंगे और उनसे ही जीवन का वास्तविक मार्ग प्राप्त करेंगे।
3. गुरु से भेंट का क्षण
समय बीता और ईश्वर ने उनकी पुकार सुन ली। एक दिन गाँव के निकट एक विराट संत-समागम का आयोजन हुआ। वहाँ अनेक भक्त-संत आए थे। उसी सभा में उनकी दृष्टि एक तेजस्वी संत पर पड़ी। उनके मुखमंडल पर ऐसी आभा थी कि प्रेमानंद जी का हृदय द्रवित हो गया।
वे श्रद्धा से उनके चरणों में झुक गए और बोले—
“गुरुदेव! मैं आपके चरणों में शरण चाहता हूँ। मुझे केवल भक्ति का मार्ग चाहिए, मुझे केवल राधे-राधे नाम का आश्रय चाहिए।”
संत मुस्कुराए और बोले—
“बेटा, तू जन्म से ही इस मार्ग के लिए बना है। राधा नाम तेरा श्वास है और कृष्ण प्रेम तेरे रक्त में बहता है। आज से तू मेरा शिष्य हुआ।”
उस क्षण से प्रेमानंद जी का जीवन एक नए मोड़ पर आ गया।
4. दीक्षा का प्रभाव
गुरु ने उन्हें मंत्र दिया, आशीर्वाद दिया और भक्ति मार्ग की शिक्षा दी। कहते हैं, उस दिन से उनके जीवन में एक अद्भुत परिवर्तन आ गया। पहले वे भक्ति में रसिक थे, पर अब उनकी भक्ति अनुशासित साधना बन गई।
गुरुदेव ने उन्हें आदेश दिया –
“प्रातः ब्रह्ममुहूर्त में उठकर नाम जप करना, शुद्ध आहार लेना, और सदा नम्रता से सबको देखना। सबसे बड़ी साधना है—‘राधे-राधे’ का सतत स्मरण।”
प्रेमानंद जी ने यह नियम ऐसा अपनाया कि आजीवन कभी छोड़ा ही नहीं।
5. कठोर साधना और तपस्या
गुरु-दीक्षा के बाद उन्होंने अनेक वर्ष गहन साधना की। सुबह से रात तक वे नाम-जप में लीन रहते। लोग उन्हें देखते और कहते—
“यह तो चलता-फिरता कीर्तन है। इसके शरीर से भी राधे-राधे की ध्वनि निकलती है।”
कभी वे वृक्ष के नीचे बैठकर जप करते, कभी मंदिर की घंटियों के बीच, तो कभी अकेले अंधेरी रात में भी। उनके लिए न दिन मायने रखता था, न रात—सिर्फ़ नाम-स्मरण।
भोजन साधारण, वस्त्र सादगीपूर्ण, और जीवन केवल सेवा व साधना में व्यतीत होने लगा।
6. आंतरिक अनुभूतियाँ
साधना के दिनों में उन्हें अनेक दिव्य अनुभव हुए। कभी ध्यान में उन्हें लगा जैसे स्वयं राधा रानी उनके सामने खड़ी होकर कह रही हों—
“बेटा, नाम-स्मरण छोड़ना मत। यही तेरी आत्मा का आहार है।”
कभी बांसुरी की धुन कानों में गूँज उठती, कभी मनोहर लीलाओं के दर्शन होते। ये अनुभव उन्हें और दृढ़ करते कि वे सही मार्ग पर हैं।
7. गुरु की आज्ञा – सेवा और प्रचार
कई वर्ष की साधना के बाद गुरु ने उन्हें आदेश दिया—
“अब तू केवल अपने लिए साधना मत कर। अब तू नाम और भक्ति का प्रचार कर। लोगों को बता कि राधा नाम ही जीवन का सार है।”
प्रेमानंद जी ने गुरु की आज्ञा को जीवन का ध्येय बना लिया। अब उनका हर प्रवचन, हर संवाद, हर कीर्तन केवल एक ही संदेश देता—“राधे-राधे ही सबकुछ है।”
इस प्रकार प्रेमानंद जी का जीवन साधक से प्रचारक की ओर अग्रसर हुआ। उन्होंने गुरु से दीक्षा लेकर जो शक्ति पाई, वही शक्ति उनके प्रवचनों और भक्ति-भाव में प्रवाहित होती रही। उनका जीवन अनुशासन, साधना और सेवा का अद्भुत संगम बन गया।
लोग कहते—
“प्रेमानंद जी केवल गुरु के शिष्य नहीं, बल्कि राधा-कृष्ण की भक्ति के जीवित प्रतीक हैं। इनके हर शब्द में, हर मुस्कान में, हर दृष्टि में राधे-राधे की झलक है।”