बॉलीवुड में राजकपूर, दिलीप कुमार और देव आनंद की प्रसिद्ध तिकड़ी के बाद राजेश खन्ना ऐसे पहले अभिनेता थे जिसने सही मायने में सुपर स्टार का दर्जा पाया और जो अपने उत्थान से लेकर पतन तक एक राजा की तरह जिया।दोस्तों...आज बॉलीवुड के पहले सुपर स्टार राजेश खन्ना की बातें इसलिए कि आज मैं उनकी जीवनी से संबंधित एक किताब 'राजेश खन्ना - एक तन्हा सितारा' के हिंदी अनुवाद का यहाँ जिक्र करने जा रहा हूँ जिसे मूलतः अँग्रेज़ी में लिखा है गौतम चिन्तामणि ने और इसका सफ़ल हिंदी अनुवाद किया है पैमिला मानसी ने।राजेश खन्ना के उत्थान से लेकर पतन तक की कहानी कहती इस किताब में कहीं उनके बचपन से जुड़ी बातें पढ़ने को मिलती हैं तो कहीं हम उनके संघर्ष के दिनों से अवगत होते हैं। कहीं औरों की देखादेखी राजीनीति के गलियारों में उनके पदार्पण की बातें जानने को मिलती हैं तो कहीं वे राजनीति से विमुख होते दिखाई देते हैं। कहीं उनकी अभिनय प्रतिभा और शोहरत की बातें पढ़ने को मिलती हैं तो कहीं उनका घमंड सर चढ़ कर बोलता दिखाई देता है।इस महत्त्वपूर्ण किताब को पढ़ने के दौरान पाठकों को बहुत सी रोचक जानकारियों से रूबरू होने का मौका मिलता है जैसे कि..इस किताब के अनुसार बचपन से नाटकों और अभिनय का शौक रखने वाले जतिन खन्ना उर्फ़ राजेश खन्ना का जन्म 1942 में रेलवे ठेकेदारों के परिवार में हुआ। वहाँ उनके माता-पिता ने उन्हें अपने छोटे भाई यानी कि उनके चाचा को गोद दे दिया। जहाँ उनका बड़े ही लाड़-प्यार से पालनपोषण हुआ। इसी लाड़ प्यार की वजह से उनका स्वभाव कुछ ज़िद्दी वाला भी बना। राजेश खन्ना अपने विभिन्न साक्षात्कारों में जानबूझकर अपने आरंभिक जीवन के बारे में सभी को अलग-अलग बात बताते थे और प्रसिद्ध अभिनेत्री गीता बाली की वजह से राजेश खन्ना की फिल्मों में काम करने के प्रति रुचि जागृत हुई जब एक नाटक के लिए किसी बिल्डिंग में जाते वक्त उनकी गीतावली से मुलाकात हुई और उन्होंने उससे कहा कि उन्हें उनकी आने वाली फिल्म एक चादर मैली सी के लिए उसके जैसा ही एक अभिनेता चाहिए। हालांकि यह और बात है कि राजेश खन्ना को वह रोल नहीं मिल सका। बाद में खैर वह फिल्म भी गीता बाली की बेवक्त मौत की वजह से स्थगित कर दी गई। सफल होने से पहले स्ट्रगलर राजेश खन्ना खन्ना की कभी 'गुरखा' तो कभी 'नेपाली नौकर' कह कर खिल्ली भी उड़ाई गयी। इस किताब के ज़रिए जहाँ एक तरफ़ पता चलता है कि फ़िल्म 'कटी पतंग' की शूटिंग के दौरान राजेश खन्ना अपने साथियों पर हावी होने लगे और कभी गुलशन नंदा को अपना आधा जला सिग्रेट थमाने तो कभी कलैक्टर तक के घर खाना खाने जाने से इनकार करने लगे। तो वहीं दूसरी तरफ़ अनजान लोगों के साथ मिलकर गुटबाज़ी और शराब की पार्टियाँ तक करने लगे। ■ 1969 से 1972 के बीच राजेश खन्ना ऐसे पहले हिंदी अभिनेता थे जिनकी फिल्में अहिन्दी भाषी हिंदी क्षेत्रों में भी लगातार महीनों भर तक पूरे भरे हुए सिनेमाघरों में चलतीं थीं। वह ऐसे पहले सितारे थे जिनकी फ़िल्मों की स्वर्ण जयंती मद्रास, बैंगलोर और हैदराबाद जैसे शहरों में भी मनायी जाती थी।■ स्टार एण्ड स्टाइल पत्रिका की देवयानी चौबल जो कि आमतौर पर 'देवी' के नाम से जानी जाती थी, ने राजेश खन्ना को देखते ही एक जीतने वाले घोड़े के रूप में पहचान लिया था और उसी ने अपने आर्टिकल्स के ज़रिए राजेश खन्ना के इर्दगिर्द एक तिलिस्म सा खड़ा कर उसे 'स्टार' या 'सितारा' का नाम दिया। ■ राजेन्द्र कुमार ने भुतहा कहे जाने वाले एक बंगले को खरीदने का मन बनाया तो मनोज कुमार की सलाह पर गृहप्रवेश से पहले कई तरह की पूजा करवाई और बंगले के नाम 'डिम्पल' रखा। यही बंगला बाद में राजेश खन्ना ने ख़रीदा और 'डिम्पल' ना रखने की इजाज़त ना मिलने पर उसका नाम 'आशीर्वाद' रखा। ■ 'आशीर्वाद' में आ जाने के बाद उसके गैराज में राजेश खन्ना ने एक बहुत बड़ा बार बनवाया जहाँ वे अपना दरबार लगाते। इस प्रसिद्ध दरबार के बाहर राजेश खन्ना दसियों निर्माताओं को इंतज़ार करवाने के बाद अपने रूबरू पेश करवाते। वहाँ राजा और प्रजा के बीच के फ़र्क के लिए उनकी कुर्सी बाक़ी कुर्सियों से बड़ी और ऊँची जगह पर रखी जाती।■ चमचों की भीड़ में फँसे राजेश खन्ना अक्सर अपनी महफिलों में किसी एक को बकरा बना बाक़ी सबके साथ मिलकर उसकी खिंचाई किया करते। और राजेश खन्ना या उसके काम की किसी भी तरह की आलोचना करने वाले को अक्सर महफ़िल से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता।■ राजेश खन्ना की प्रसिद्धि का आलम यह था कि लड़कियाँ उन्हें अपने खून से अक़्सर ख़त लिखा करती जिसके साथ डॉक्टर का सर्टीफिकेट साथ में नत्थी होता था कि यह इनसानी खून से लिखी गयी चिट्ठी है। कहीं उनकी तस्वीर के साथ लड़कियों के शादी करने की बातें उठीं तो कहीं लड़कियों द्वारा उनकी सफेद कार को लाल लिपिस्टिक से रंग दिया जाता। कहीं मर्दों ने उनकी तरह का हेयर स्टाइल रखना तो कइयों ने उनके मशहूर गुरु कुर्ता पहनने शुरू कर दिए। जिसे बनाने वाले बलदेव पाठक ने उसी के साथ के 2000 से ज़्यादा कुर्ते बेचे।■ सलीम-जावेद की जोड़ी को पहली बार औपचारिक रूप से श्रेय दिलाने का काम राजेश खन्ना की 'हाथी मेरे साथी' फ़िल्म ने किया।■ 1972 में जब राजेश खन्ना के बजाय मनोज कुमार को फ़िल्म 'बेईमान' के लिए श्रेष्ठ अभिनेता का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिलने की घोषणा हुई तो राजेश खन्ना इस कदर जलभुन गए कि उन्होंने ठीक अवार्ड सेरेमनी के समय पर ही अपने बँगले आशीर्वाद में एक पार्टी रख दी और फिल्मजगत के तमाम दिग्गजों को उसमें शामिल होने के लिए आमंत्रित कर दिया। ऐसे में अपना कार्यक्रम फ्लॉप होने के डर से फिल्मफेयर के आला अफ़सरों से वक्त रहते किसी तरह राजेश खन्ना को अपनी पार्टी रद्द करने के लिए मना लिया। ■ इसी किताब के मुताबिक सलीम-जावेद की जोड़ी ने 'हाथी मेरे साथी' के बाद जितनी भी फ़िल्में लिखी, उनमें से किसी के लिए भी उन्होंने राजेश खन्ना के बारे में नहीं सोचा कि राजेश खन्ना को गुमान था कि फिल्में उनकी वजह से हिट होती हैं ना कि किसी और की वजह से। ■ राजेश खन्ना अपनी प्रेमिका अंजू महेन्द्रू से शादी करना चाह रहे थे लेकिन अंजू बस जाने के लिए तैयार नहीं थी, जिससे उनके रिश्तों में इस हद तक खटास आ गयी थी कि उन्होंने मात्र पंद्रह साल की डिम्पल से शादी करने का फैसला किया और कहा जाता है कि उन्होंने जानबूझकर अपनी बारात को अंजू महेन्द्रू के घर के सामने से निकलवाया ताकि वे उसे तकलीफ़ पहुँचाने के साथ-साथ अख़बारों की सुर्खियों में भी छाए रह सकें।■ इसी किताब के अनुसार अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने स्वीकार किया था कि अपनी असफलता की वजह से वे इस हद तक चिड़चिड़े और बेचैन हो गए थे कि निराशा के आलम में उन्होंने ख़ुदकुशी करने तक के बारे में भी सोच लिया था लेकिन फिर यह सोचकर उन्होंने ख़ुद को रोक लिया कि वे नहीं चाहते थे कि दुनिया उन्हें एक नाकामयाब इन्सान के रूप में देखे। ■ एक प्रचलित कहानी के अनुसार अंजू महेन्द्रू से रिश्ता बिगड़ने के बाद उन्होंने उसकी फ़िल्म 'डाकू', जिसके निर्देशक बासु चटर्जी थे, के सारे प्रिंट और नैगेटिव ख़रीद कर जला दिए थे कि वह फ़िल्म कभी रिलीज़ ना हो सके। इसी नुकसान की भरपाई के लिए उन्होंने बासु चटर्जी की फ़िल्म 'अविष्कार' में काम किया था।■ सलीम-जावेद की जोड़ी के अमिताभ बच्चन के साथ जुड़ने से जहाँ एक तरफ़ अमिताभ बच्चन ने बहुत ऊँचा मुकाम पाया तो वहीं दूसरी तरफ़ सलीम-जावेद भी पहले ऐसे लेखक बने जिनका नाम फ़िल्मों के इश्तेहारों पर भी आने लगा और फ़िल्म के लिए सितारों को भी चुनने और नकारने की आज़ादी अथवा ताक़त प्राप्त हुई।■ इसी किताब से पता चलता है कि परिवार की ज़िद के चलते राजकपूर को 'सत्यम शिवम सुंदरम' फ़िल्म में राजेश खन्ना के बजाय अपने छोटे भाई शशि कपूर को लेना पड़ा था। और भी बहुत सी रोचक जानकारियों से लैस इस किताब में दो-तीन जगहों पर वर्तनी की त्रुटियाँ तथा एक-दो जगहों पर कोई-कोई शब्द बिना ज़रूरत छपा दिखाई दिया। राजेश खन्ना एवं फ़िल्मों में रुचि रखने पाठकों के लिए यह एक बढ़िया एवं संग्रह में रखी जाने वाली किताब है।• रानीतिक - राजनीतिक• अभनय - अभिनय• कुतूहूल - कौतूहलउम्दा अनुवाद एवं रोचक जानकारियों से सजी इस पुस्तक के 216 पृष्ठीय कमज़ोर कागज़ पर छपे पेपरबैक संस्करण को छापा है हार्परकॉलिंस पब्लिशर्स इंडिया ने और इसका मूल्य रखा गया है 299/- जो कि कंटैंट एवं क्वालिटी को देखते हुए मुझे थोड़ा ज़्यादा लगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक, अनुवादक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।