Sayyara ka Taiyarra in Hindi Comedy stories by dilip kumar books and stories PDF | सैयारा का तैयारा

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सैयारा का तैयारा

“सैयारा का तैयारा” (व्यंग्य)
“ सोचूँ तो सारी उम्र मोहब्बत में कट गई
देखूं तो एक शख्स भी अपना नहीं हुआ ”।
उर्दू के मशहूर शायर जॉन एलिया का यह शेर आजकल बड़ा मुफीद है । ये उन ख़्वातीनों -हजरात पर बहुत फिट बैठ रहा है जो आजकल मोहब्बत का पैमाना “सैयारा” फ़िल्म को मान रहे हैं। सैयारा फ़िल्म की बिडम्बना यही है कि यह बड़ी दिलफ़रेब है।
 इस फ़िल्म में युवक -युवतियां (जिन्हें अब जेन जी भी कहा जाता है ) अपने वर्तमान प्रेम के साथ फ़िल्म देखने जाते हैं और अपने भूतपूर्व प्रेम (एक्स) को याद करके दहाड़ें मारकर रोते हैं। मैं भी अपनी दफ्तरी नीरस और उबाऊ दिनचर्या से ऊबकर कर यह जेन जी, मिलेनियल और अल्फा जेनेरेशन की फ़िल्म देखने चला गया । पहले मैंने सोचा था कि अकेले देखूंगा। अपनी नीरस,एकरस और तनावपूर्ण ज़िंदगी को जरा सा बदलूंगा । वीकेंड पर मल्टीप्लेक्स में रंगीन एवं आधुनिक कपड़े पहन कर पॉपकॉर्न खाते हुए और कोल्डड्रिंक पीते हुए सुंदर चेहरों को ताड़ने का सुख लेने को मेरा जी बेकरार था । यह सब फंतासी वाली कल्पनाएं करके मेरे बदन में झुरझुरी दौड़ गई।
मैंने जिस तरह के सोशल मीडिया पर फ़िल्म के वीडियो देखें यह कि उसमें युवक -युवतियां अपने पूर्व प्रेम को याद करके दहाड़ें मारकर रो रहे थे। उस हिसाब से यदि किसी प्रेम दृश्य को देखकर मैं कमजोर पड़ गया और किसी पूरानी प्रेमिका के विरह में आंसू निकल आये तो मेरी पत्नी मेरी कायदे से खबर लेगी।
सो मैंने इतवार के दिन बीवी से कहा “आज दोपहर का खाना मैं नहीं खाऊंगा। मुझे बाहर कुछ लोगों से मिलने जाना है ।कुछ जरूरी काम हैं “।
“कहीं नहीं जाना है किसी से मिलने। पूरे हफ्ते लोगों से मिलते ही तो रहते हो। इतने लोगों से मिल कर कौन सा किला फतह कर लिया है जो अब सन्डे को भी मेल -मुलाकात जरूरी है । सन्डे को फैमली को टाइम दो “।
पूरे हफ्ते फैमली के लिये ही तो खटता हूँ। आज भी तो घर के सारे काम निपटा दिए हैं मैंने। मुझे कहीं जाना है जरूरी काम है” मैंने मिमियाते हुए अपना बचाव किया ।
“कोई जरूरी काम का बहाना नहीं चलेगा। आज हम नई ब्लॉकबस्टर मूवी “सैयारा” देखने चलेंगे। सुना है ऐसी शानदार मूवी दसियों बरस में एक -आध ही आती है । इस मूवी ने तहलका मचा रखा है ।मैं अपने फ्रेंड सर्किल के जितने भी व्हाट्सएप ग्रुप में हूँ ।उन सब लेडीज में ये ट्रेंडिंग मूवी देख ली है और सब अपनी सेल्फी डाल रही हैं। सिर्फ मैं ही बची हूँ । हम नहीं देखेंगे ये मूवी तो हम बैकवर्ड माने जाएंगे। आखिर हम भी मॉडर्न और प्रोग्रेसिव सोच के हैं। मैं तो तुम्हारी छुट्टी का वेट कर रही थी । हम आज ही चलेंगे ये मूवी देखने ।मैं तो सब काम निपटा कर रेडी हो गई हूँ ।अब तुम भी रेडी हो जाओ “ पत्नी ने आदेशात्मक स्वर में कहा।
मैं हैरान रह गया कि यह औरत कितना जयादा मेरे जीवन में घुस गई है, इसे कैसे पता चला कि मैं क्या करने वाला हूँ ? इसका इतना आतंक है मुझ पर कि जो भी मैं सोचता हूँ, वह भी यह जान जाती है ।
मैंने उसे शीशे में उतारने का प्रयत्न करते हुए कहा –
“ये तो लौंडे -लपाड़ों की फ़िल्म है। हमारी उम्र हो गई है। हमें क्या देखनी है ये फ़िल्म ”।
“अच्छा तो हर सन्डे को बालों में कलर क्यों लगाते हो । हर बुधवार को सैलून में फेशियल क्यों करवाते हो । जवान दिखने के लिये ही ना ? ये टाइट जीन्स और टीशर्ट इसीलिए तो पहनते हो ताकि जवान दिख सको। यानी ये सब करने के लिये ही तो जवान हो और फ़िल्म देखने की बात हो तो बूढ़े हो जाओगे। इतना डबल स्टैंडर्ड क्यों ? हमें फ़िल्म देखनी है उसमें एक्टिंग नहीं करनी है। और जब उम्र हो चली है तो हेयर कलर- फेशियल छोड़ो, नौकरी से वीआरयस लो और धोती -कुर्ता पहनो और घर बैठ कर हरि का भजन करो “ उसने तल्ख स्वर में कहा।
मैं हैरान होकर उसकी तरफ देखने लगा। उसके तंज का मर्म और उसके क्रोध की लिमिट की थाह लेने लग तो उसने मुझसे सधे शब्दों में कहा –
“मैं तैयार होने जा रही हूँ । आज न सिर्फ हम सैयारा मूवी देखेंगे बल्कि लंच भी बाहर किसी रेस्टोरेंट में करेंगे “ यह कहकर मेरे जवाब का इंतजार किये बिना वह कमरे से निकल गई। मैं समझ गया कि यह सैयारा का तैय्यारा (हवाई जहाज) अब कुछ न कुछ करके ही मानेगा।
पत्नी की बात से मैं चिढ़ गया और तय किया कि इसे हर हाल में आज मजा चखाना ही है ।यानी कि वह सैयारा देख कर रोई तो मैं इसे खूब ताने दूंगा और वह कुछ दिनों तक बैकफुट पर रहेगी । और अगर यह न रोई तो मैं खूब रोऊंगा ताकि कई दिनों तक यह उधेड़बुन में रहे कि उसके पति परमेश्वर किसकी याद में रो रहे हैं और न आने किस -किस की याद में रो रहे हैं।
सिनेमा हाल में हम दोनों पहुंच गए । कुछ जाने -पहचाने लोगों से बातचीत करके मैंने ये जाना कि ये लोग भी फ़िल्म को इंजॉय करने नहीं बल्कि रोने के लिये आये हैं। ये उन दफ़्तरी पुरुषों की कौम थी जो मेरी रोजी -रोटी और परिवार की परवरिश में अपना लड़कपन कहीं बहुत पीछे छोड़ आयी थी और दिन रात तनाव पाले हुए दफ्तर और गृहस्थी की चक्की में पिस रहे थे । यह दफ़्तरी प्राणी आज रोना चाहता था, जी भर के रोना चाहता था ताकि बरसों से उसके मन में छिपा दर्द आंसुओं के रास्ते निकल जाए भले ही पुराने भूले -बिसरे प्यार को याद करके। मैं सोच रहा था कि मैं अच्छा -भला चरित्रवान पुरुष अपनी पत्नी को मिल गया हूँ तो मेरो पत्नी मुझे ग्रांटेड ले रही हैं पर मैं भी अब उसे सबक सिखाऊंगा । मैं फ़िल्म में प्रेम दृश्यों को देखकर सुबक -सुबक कर रोऊंगा ताकि मेरी पत्नी शंका,ईर्ष्या से जल भुन जाए कि मैं किसी पुरानी प्रेमिका को अब भी इतना याद करता हूँ कि विवाह के इतने वर्षों बाद राजी खुशी पत्नी के साथ रहते हुए बिताने के बावजूद मुझे उस पुरानी प्रेमिका की इतनी शिद्दत से याद आ रही है ।
फ़िल्म शुरू हुई , मैं फ़िल्म के दर्द को आत्मसात करते हुए रोने को तैयार बैठा हूँ। फ़िल्म चलती रही मैं देखता रहा ,रोने को तैयार था पर कमबख्त फ़िल्म ही ऐसी थी कि न तो आंसू निकले और न ही कोई दर्द महसूस हुआ । मैंने रोने और फ़िल्म के प्रेमी युगल के दर्द को महसूस करने की बहुत कोशिश की मगर दर्द महसूस होने के बजाय मुझे उबासी आ रही थी फ़िल्म की बोरियत से, फ़िल्म देखकर मेरे रोने-धोने की तो कोई बात ही नहीं थी। मुझे थोड़ी सी आत्मग्लानि भी महसूस हुई कि मैं किस तरह का नराधम प्राणी हूँ। जरा सी भी सामाजिकता नहीं है मुझमें । बस जरा सा रोना ही तो है ताकि एक ज़िम्मेदार नागरिक के कर्तव्य पूरे हो जाएं। इसके अलावा मेरे रोने से सिनेमा हाल में बैठे मेरे बगल के व्यक्ति को पता भी चल जाये कि उसके बगल एक भावुक मगर जिम्मेदार नागरिक बैठा है जो सैयारा फ़िल्म देखकर सिनेमा हॉल में अपने रोने के कर्तव्य से विमुख नहीं हुआ है। रोने से एक बोनस और यह मिलता कि पत्नी भी जल -भुन जाती डाह से । पर क्या करूँ आँखें सूख गईं “ए सैयारा तेरे हाल पे सिनेमा हॉल में न रोना आया”।
इंटरवल होने पर मुझे थोड़ा सा दर्द महसूस हुआ। मैंने अपने दर्द के वजह की तफ्तीश की तो पाया कि यह दर्द फ़िल्म के इमोशन की वजह से नहीं था बल्कि भूख की वजह से था । मैं अपने दर्द का निवारण करने को निकला तो पीछे से आवाज आई,
“जो कुछ खाने -पीने जा रहे हो मेरे लिये भी लेते आना” पत्नी ने पीछे से टोका।
“सिगरेट पीने की तलब लगी है । उसी का सुट्टा लगाने जा रहा हूँ। तुम्हारे लिए भी एक सिगरेट सुलगा लाऊं क्या” तल्ख लहजे में कहते हुए मैंने उसे घूरा।
उसने मुझे आग्नेय नेत्रों से देखा । कुछ देर तक तो मैंने उससे नजरें मिलाई फिर अपना आगा -पीछा, भला -बुरा सोचकर मैंने नजरें फेर ली और सिनेमा हाल से बाहर निकल आया।
मुझे तनाव हो रहा था सो मैंने सिगरेट सुलगा ली। तनाव मुझे फ़िल्म के इमोशन पर नहीं बल्कि अपने निर्णय से उपजे कोफ्त पर था। कि मैंने यह फ़िल्म देखने का निर्णय क्यों किया था ? इससे भला तो यह था कि सन्डे को घर पर रेस्ट करता और पत्नी से ढेर सारे स्वादिष्ट व्यंजन बनवा कर खाता । इतने पैसे भी खर्च हो गए और छुट्टी के दिन भी आराम बदा नहीं हुआ।
मैंने सिगरेट पीने के बाद कोक और सैंडविच उदरस्थ किया और बीवी के लिये वही दोनों खरीद भी लिया है ।मैंने तय किया कि अब पैसे लग गए हैं तो फ़िल्म पूरी देखूंगा और चल कर इस बात को ताड़ता हूँ कि अगर पत्नी जरा सा रोई या सुबकियां ली तो पूरे साल उसे ताने दूंगा और बदले लूंगा जिस तरह वह मुझे ताने दिया करती है। और हाँ सिगरेट पत्नी के लिये मैंने नहीं ली है।
समाप्त
कृते -दिलीप कुमार