Sapna: A Dream of Death in Hindi Horror Stories by Sairaj books and stories PDF | Sapna: A Dream of Death

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Sapna: A Dream of Death

सुचित सुचना 

इस किताब में जो कहानी लिख रखी है. ये सच है. लेकिन जिस कहानी में ये सब हुआ है, वो काल्पनिक है.







अध्याय 1
सपना

मेरा नाम अमित है। मेरी उम्र 12 साल है और मैं सातवीं कक्षा में पढ़ता हूँ। मेरे परिवार में मम्मी-पापा, दो छोटे भाई-बहन और चाचा-दादी हैं। पहले हम सब एक साथ रहते थे, लेकिन कुछ कारणों से अब चाचा-दादी अलग घर में रहते हैं। मैं पढ़ाई में अच्छा हूँ और हमेशा स्कूल और क्लास में पहला आता हूँ। पढ़ाई के अलावा मैं किसी और चीज़ में बहुत अच्छा नहीं हूँ, लेकिन मेरी ज़िंदगी खुशियों से भरी है। बहुत सारे दोस्त हैं और सबके साथ मैं खुश रहता हूँ। 
आज तारीख 08 फ़रवरी 2000 है। मैं सुबह जल्दी उठा — ठीक 09:23 पर। 11 बजे मेरी स्कूल थी। उठकर देखा तो घर में कोई नहीं था। मुझे लगा कि दादी किचन में होंगी, लेकिन वहाँ भी कोई नहीं था। मैंने सोचा चाचा-दादी शायद बाहर गए होंगे। इसलिए मैं मुँह धोने चला गया।

पिछले दो हफ़्तों से मैं चाचा-दादी के साथ रहने लगा हूँ।


मुँह धोकर मैं कुर्सी पर बैठने ही वाला था कि मैंने देखा, कुर्सी पर एक पत्र रखा हुआ है। मैंने वह पत्र उठाया और पढ़ा। उसमें मेरी दादी ने लिखा था कि हम लोग कुछ परेशानी की वजह से बाहर जा रहे हैं। तुम्हारी स्कूल छूटने तक हम वापस आ जाएंगे। किचन में चाय और पाव रखे हैं, खा लेना। पत्र को वापस कुर्सी पर रखकर मैं नाश्ता करने बैठा। नाश्ता करते समय मैंने सोचा कि आज घर पर कोई नहीं है, इसलिए घर थोड़ा खाली-खाली और अलग लग रहा है। घड़ी में 11:30 बज रहे थे। मैं स्कूल के लिए निकला और घर को ताला लगाकर, चाभी बगल वाले अंकल को दे दी।
जब मैं स्कूल पहुँचा तो पता चला कि आज शिक्षिकाएँ पढ़ाने नहीं आ रही हैं। ये सुनकर मैं थोड़ा घबरा गया—इतने सारे शिक्षक क्यों नहीं आए? कहीं कुछ बड़ा तो नहीं हुआ? मन में अजीब सी बेचैनी होने लगी।

मैं मास्टर जी के पास गया और धीरे से पूछा—"आज पढ़ाई क्यों नहीं हो रही है?"
मास्टर जी ने शांत होकर कहा—"आज स्कूल में ज़्यादा शिक्षक नहीं आए हैं पढ़ाने के लिए। इसलिए मैंने आधी कक्षा को छुट्टी दी है और बाकी बच्चों को खेलने छोड़ दिया है। अगर तुम्हें भी खेलना है या घर जाना है तो जा सकते हो।"

मास्टर जी की बात सुनकर मैं वहाँ से निकल तो आया, लेकिन मन में अभी भी हल्की-सी चिंता बनी हुई थी।
मैं बेंच पर आकर बैठ गया। टाइमपास करने के लिए कुछ नहीं था, तो सोचा किताब निकालकर पढ़ाई करता हूँ। पढ़ाई करते-करते मुझे कुछ अजीब सा महसूस होने लगा।

मैं स्कूल से घर निकल आया। स्कूल का छुटने का समय 5 बजे था, लेकिन मैं 3 बजे ही निकल गया। घर तक पहुँचने ही वाला था कि अचानक घर से हँसी की आवाज सुनाई दी। मुझे लगा कि मेरे घरवाले आ गए हैं।

मैं घर पहुँचा और देखा कि चाचा-दादी आ गए हैं। लेकिन उनके साथ मम्मी-पापा भी थे। मैं मम्मी के पास गया और पूछा। मम्मी ने मुझसे कहा—“अमित, तुम आज इतने जल्दी घर कैसे आ गए?

मैंने कहा—“मुझे आज थोड़ा बीमार सा लग रहा है।”
मम्मी ने मेरे सिर पर हाथ रखकर कहा—“तुम्हें बुखार तो नहीं है।”
मैंने कहा—“मैं सोने जा रहा हूँ।” और मैं सीधा सोने चला गया।

रात को चाचा ने मुझे उठाकर खाने के लिए बुलाया। खाना खाकर मैं वापस सो गया। 
अगली सुबह जब मैं उठा तो घर में कोई नहीं था। मैंने सोचा आज मम्मी से नाश्ता बनाने को कहूँ। मैंने दादी के घर पर ताला लगाया और चाबी खिड़की में रख दी। फिर मम्मी के चॉल में पहुँचा।

मैंने देखा कि मम्मी-पापा का घर खुला है। मैं अंदर गया। हॉल में कोई नहीं था। मैं धीरे-धीरे अंदर वाले कमरे का दरवाज़ा खोलने गया। और वहाँ जो देखा, उसने मुझे अंदर तक हिला दिया—मेरे मम्मी-पापा ने फाँसी लगा ली थी।


मैं देखकर डर गया। मैं अपने घर से भागने की कोशिश कर रहा था, लेकिन मेरे पैर साथ नहीं दे रहे थे। मेरे पैर काँप रहे थे, साँसें तेज़ हो गई थीं और शरीर पसीने से भीग गया था।
इससे पहले कि मैं चिल्लाऊँ, मेरी आँखों से आँसू बह निकले। आँसू ज़मीन पर गिरते ही मैं ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने और रोने लगा। जितना ज़्यादा मैं चिल्ला रहा था, उतना ही मेरे पैरों का डर कम हो रहा था। मैंने खुद को थोड़ा-सा संभाला और सोचा कि भागकर चाचा के घर जाऊँ।
मैं घर से भाग रहा था। दरवाज़े तक पहुँचने ही वाला था कि अचानक ख्याल आया—मेरे छोटे भाई-बहन कहाँ हैं? उसी सोच में मेरी रफ़्तार धीमी हो गई।
तभी पीछे से तेज़ कदमों की आवाज़ आई। मैंने पलटकर देखा—एक आदमी भागता हुआ मेरी ओर आ रहा था, उसके हाथ में चमकता हुआ चाकू था।
मेरी रफ़्तार कम होने के कारण वो मेरे बिलकुल पास आ गया। उसने चाकू उठाकर मेरी गर्दन पर वार किया। आख़िरी पल पर मैं थोड़ा-सा किनारे हट गया। चाकू सीधा तो नहीं घुसा, लेकिन मेरी गर्दन को गहराई तक छील गया। खून बहने लगा। मुझे लगा जैसे मेरी गर्दन की नसें फट जाएँगी। हर नस में जलन हो रही थी, अंदर तक का दर्द मेरी साँसें रोक रहा था।


मैं उसे रोक ही नहीं पा रहा था। आख़िरी पल में गिरते-गिरते मैं ज़ोर से चिल्लाने लगा। लास्ट के एक मिनट में मुझे महसूस हुआ कि मेरी साँसें धीमी हो रही हैं। फिर मैं बेहोश होकर जैसे मर गया। अचानक मैं ज़ोर से चीखते हुए उठ बैठा। मेरी आँखों से आँसू बह रहे थे। मैंने हाथ से अपनी गर्दन को छुआ। वो सपना था... लेकिन दर्द अब भी असली लग रहा था।
घर में आज भी कोई नहीं था। मैं बिना कुछ सोचे सीधा मम्मी-पापा के घर भागा।
दरवाज़े पर पहुँचते ही मैंने आवाज़ लगाई—"मम्मी!"
किचन से मम्मी बाहर आईं। उन्होंने पूछा—"क्या हुआ अमित?"
उन्हें देखकर मैं इतना खुश हुआ कि आँसू निकलते रहे, लेकिन चेहरे पर मुस्कान भी आ गई। बिना सोचे मैं मम्मी से लिपट गया और कहने लगा—"जो पहले था, वो सपना था... और अब ये हक़ीक़त है।”


मम्मी ने हैरान होकर पूछा—"क्या हुआ?"
मैंने कुछ नहीं बताया। सोचा अगर सब कह दूँ तो वो हँसेंगी और कहेंगी कि ये बस सपना था। कुछ नहीं कहकर मैं नहाने चला गया। नहाते समय मैंने फिर अपनी गर्दन को छुआ। जहाँ कल रात चाकू लगा था... वहाँ न कोई निशान था, न कोई दाग। लेकिन पता नहीं क्यों, नहाते-नहाते मुझे अपनी चीख और रोने की आवाज़ अब भी सुनाई दे रही थी।
और मेरी गर्दन में हल्का-सा दर्द भी महसूस हो रहा था। दर्द तो अब थोड़ा कम महसूस हो रहा था, लेकिन वो चीखने की आवाज़… वो और तेज़ होती जा रही थी।
आवाज़ मेरे दिमाग में इतनी गहराई तक घुस गई थी कि मुझे लगने लगा जैसे मेरा दिमाग फट जाएगा। 
तभी बाहर से मम्मी ने आवाज़ लगाई—
“अमित! जल्दी करो, स्कूल का वक्त हो गया।”
मैं जल्दी-जल्दी नहा कर, नाश्ता करके, मम्मी से बिना कुछ कहे स्कूल चला गया।
लेकिन स्कूल में भी मेरा ध्यान कहीं नहीं था। बार-बार वो चाकू वाला सपना याद आ रहा था। और हर बार याद आते ही मेरी गर्दन का दर्द फिर से बढ़ जाता था। मैंने मास्टर जी से आधे दिन की छुट्टी माँग ली।
घर पहुँचा तो मम्मी मुझे देखकर घबरा गईं और पूछा—
“अमित, तुम इतनी जल्दी घर क्यों आ गए?”
मैंने झूठ बोला—“सर दर्द कर रहा है।” फिर अपने कमरे में जाकर सीधा लेट गया।
दोपहर शाम में बदली, और शाम रात में।
रात को मम्मी ने मुझे उठाया और पूछा—
“अमित, आज तुम कहाँ सोओगे? अगर यहीं सो रहे हो तो मैं दादी को कॉल करके बता दूँ।”
मैंने कहा—“मैं दादी के घर सोने जा रहा हूँ।”
दादी के घर पहुँचा तो सीधे अपने कमरे में चला गया।
दादी ने आवाज़ दी—“अमित, खाना नहीं खाओगे?”
मैंने धीरे से कहा—“नहीं।”

बिस्तर पर तो लेट गया, लेकिन नींद मेरी आँखों से कोसों दूर थी।
दिल की धड़कनें तेज़ थीं… और डर अब भी मेरे आस-पास मंडरा रहा था।
वापस मुझे वही सपना आने लगा। वो आवाज़ें… वो रोना… वो चीखना। सिर्फ याद करते ही मेरा पूरा शरीर काँपने लगा। मैं काँपते और डरते हुए बिस्तर पर था, तभी दादी ने धीरे से कहा—
“अमित, तुम ठीक हो?”
मैंने दादी की ओर देखा, लेकिन चुप रहा।
सोचा—दादी को क्या बताऊँ?
जो डर मैं महसूस कर रहा था, वो शायद कोई समझ ही नहीं पाएगा।
धीरे-धीरे मेरा काँपना कम हुआ।
मैंने दादी को देखकर जबरदस्ती मुस्कुराया, जैसे सब ठीक है।
दादी ने भी शायद समझ लिया कि मुझे नींद नहीं आ रही।
इसलिए वो मुझे कहानियाँ सुनाने लगी—
कछुआ और खरगोश की, सोने वाली कुल्हाड़ी की।
दादी की कहानी सुनते-सुनते कब मेरी आँख लग गई, पता ही नहीं चला।
लेकिन जब मैंने आँखें खोलीं… तो मेरे होश उड़ गए। मेरी गर्दन पर किसी ने सफेद कपड़ा बाँध रखा था।
मेरे हाथ कसकर बंधे हुए थे। और मैं किसी अँधेरे कमरे में था। मुझे उसी वक्त समझ आ गया—
मैं फिर से उसी सपने में हूँ।
लेकिन… रुको! मैं तो उस सपने में मर गया था।
तो ये कैसे हो सकता है?
शायद चाकू मेरी गर्दन के अंदर तक नहीं गया था… और मैं बस बेहोश हो गया था। ये सोचते ही मेरा पूरा शरीर डर से जम गया। मन में सिर्फ एक ही सवाल गूँज रहा था—

“एक ही सपना… बार-बार कैसे आ सकता है?”

लेकिन मेरी गर्दन से जो खून निकल रहा था… वो रुक चुका था। किसी ने मेरी गर्दन पर कपड़ा कसकर बाँध दिया था। खून तो रुक गया था। पर असली डर तो अब मेरे सामने था— चार लाशें, जो पूरी तरह सफेद कपड़ों से ढकी हुई थीं। मैं समझ गया कि ये सपना है। याद आया, जब मैं सोया था तो दादी के घर था… लेकिन अब यहाँ, एक अजनबी अँधेरे कमरे में बँधा पड़ा हूँ। ये सब सोचते-सोचते मैं पागलों की तरह हँसने लगा। इतना हँसा कि अपनी ही ज़ुबान दाँतों से काटने लगा। सोचा—अगर दर्द होगा तो शायद इस सपने से जाग जाऊँगा। पर डर की वजहें बढ़ती ही जा रही थीं। पहला—वो चार मरी हुई लाशें। दूसरा—ये सुनसान घर, जहाँ न रोशनी है, न कोई आवाज़, न कोई सामान। तीसरा—मेरे बंधे हुए हाथ, जिन्हें छुड़ाने की कोई कोशिश कामयाब नहीं हो रही। और चौथा… मेरी ज़ुबान। वो दाँतों के नीचे आकर कट ही नहीं रही थी। बस दर्द ही दर्द बढ़ता जा रहा था। तभी, अचानक मेरे सामने कोई इंसान आकर खड़ा हो गया। पता नहीं वो कौन था, पर शायद किचन से आया था। चेहरे पर मास्क था, शक्ल बिल्कुल छिपी हुई। वो इंसान उन चार लाशों के पास गया… और चुपचाप खड़ा हो गया। ना कोई आवाज़, ना कोई हलचल। ऐसा लग रहा था जैसे वो उनके लिए प्रार्थना कर रहा हो। कुछ मिनट बाद, उसने अचानक अपना पैर बढ़ाया… और एक लाश पर रख दिया। उस पल मेरे अंदर गुस्सा फट पड़ा। मुझे नहीं पता वो किसकी बॉडी थी— लेकिन दिल के अंदर कहीं डर था… कि शायद वो मेरे मम्मी-पापा की ही लाशें हों। वो इंसान लाशों पर ऐसे चल रहा था… जैसे वो इंसान नहीं, बस कचरे का ढेर हों। अब वो मेरे बिल्कुल सामने आ खड़ा हुआ। इतना पास… कि मैं उसकी साँसें महसूस कर पा रहा था।

उसने बिना कुछ कहे अपना हाथ मेरी गर्दन पर रखा, और वहीं दबाने लगा… जहाँ पहले चाकू घुसा था। मैं जोर-जोर से चीख पड़ा। लेकिन मेरी चीख पर उसने मेरे चेहरे पर जोरदार मुक्का मारा। चेहरे और गर्दन, दोनों जगह जलन और दर्द फैल गई। धीरे-धीरे वो और करीब आया… और मेरी आँखों में झाँककर फुसफुसाया—“चुप रहो।”उसकी आवाज़ ठंडी थी, जैसे मौत की फुसफुसाहट। मेरे मन में सवालों का तूफ़ान था—अगर मैं चुप रहा तो वो मेरी गर्दन दबाकर मुझे खत्म कर देगा… और अगर मैं चीखा, तो वो बार-बार मुझे पीटेगा। मैं समझ नहीं पा रहा था, क्या करूँ। फिर भी… मैं कोशिश कर रहा था कि नींद से आँख खोल दूँ। पर नींद टूटी ही नहीं। मैं दर्द, डर, और गुस्से से भरा था। और वो अजनबी ऐसे खड़ा था… जैसे मेरी हर सोच को पढ़ सकता हो। मैं सिर्फ 12 साल का हूँ। वो कम से कम 27 का लग रहा था। मेरी आँखों में आँसू थे, गर्दन पर निशान, पूरा शरीर काँप रहा था। लेकिन उसकी आँखों में ज़रा भी फर्क नहीं था। कुछ देर बाद, वो इंसान मुझसे दूर गया। फिर उन चार लाशों में से सिर्फ एक को साइड किया। क्यों? समझ नहीं पाया। लेकिन दिल धड़क रहा था—कुछ बहुत बुरा होने वाला है। वो किचन की ओर गया। कुछ ही देर में वापस लौटा। उसके हाथ में दो बोतलें थीं। उन बोतलों में पानी नहीं था… कुछ और था। और उस चीज़ से एक अजीब, सड़ी-गली सी बदबू आ रही थी।

बोतल की बास पहले हल्की थी… लेकिन धीरे-धीरे तेज़ होने लगी। तभी मुझे समझ आया—ये पेट्रोल है। और अब सब साफ था। क्यों उसने एक बॉडी अलग की… और वो क्या करने वाला है।

मेरे गले से ज़ोर की चीख निकली। इतनी ज़ोर की कि लगा बाहर तक जाएगी। पर बाहर से कोई आया ही नहीं। तब मुझे अहसास हुआ कि शायद ये घर बिल्कुल सुनसान जगह पर है, जहां आसपास कोई नहीं रहता।

फिर भी… मेरी चीख के बाद बाहर से बच्चों के रोने की आवाज आई। मैं चौक गया। इंसान भी कुछ पल के लिए थम गया।

और तभी… दो औरतों की आवाज सुनाई दी। वो बच्चों को संभाल रही थीं। मेरा दिल धड़कने लगा। मैं और जोर-जोर से चिल्लाने लगा, ताकि वो सुन लें। मुझे पूरा यकीन था कि मेरी आवाज उन तक पहुंच रही है।

लेकिन अजीब ये था… कि वो मेरी आवाज सुनकर भी… अनसुना कर रही थीं। जैसे उन्हें दिख ही नहीं रहा, सुनाई ही नहीं दे रहा। वो आपस में बात करती रहीं और फिर घर जाने की कहने लगीं।

अब मुझे घबराहट होने लगी। मेरी चीखें और तेज़ हो गईं। तभी… वो इंसान वापस मेरी ओर बढ़ा। उसकी आंखें और चाल पहले से भी ज्यादा खतरनाक लग रही थीं।

आते ही उसने मेरी गर्दन पकड़ी और ज़ोर से मुझे दीवार पर दे मारा। मेरी पीठ और गले में असहनीय दर्द उठा। मैं तड़पने लगा… और ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा।


उस इंसान ने मेरे चेहरे पर मुक्के बरसाए।
एक… दो… तीन।
हर वार के साथ मेरी सांसें टूट रही थीं। फिर वो रुका। मेरी आंखों में झाँकते हुए ठंडी आवाज़ में बोला—
“बस देख…”

मेरे अंदर ना ताकत बची थी, ना हिम्मत।
मैं बस रोता रहा। हाँफते हुए उससे रहम की भीख माँगने लगा।

पर उसने मेरी विनती का जवाब और एक मुक्के से दिया।
इतना जोर का कि मेरा सिर एक तरफ झटक गया।
फिर वो मुझसे दूर जाकर उन लाशों के पास खड़ा हो गया।

मेरा दिल डूब गया।
मुझे पता था… अब कुछ बहुत ही भयानक होने वाला है।
मैंने रस्सी को खींच-खींचकर छुड़ाने की कोशिश की, पर वो छूट ही नहीं रही थी।
मैं किसी तरह उस डेड बॉडी के पास पहुँचना चाहता था, लेकिन दूरी असंभव थी।

तभी उसने मेरी तरफ देखा… और ज़ोर से हँसने लगा।
उसकी हँसी पूरे कमरे में गूंज रही थी।
जैसे मैं उसके लिए बस एक खिलौना था।

वो लाश को घसीटकर मेरे बिल्कुल पास रख देता है।
इतना पास कि अगर मुझे उसे छूना हो, तो मुझे रस्सी तोड़नी ही पड़े।

वो खड़ा होकर मुझे देख रहा था।
चेहरे पर मास्क… लेकिन आँखों में खेल का मज़ा साफ दिख रहा था।
जैसे ये उसके लिए मौत का खेल हो… और मैं उसकी आखिरी चाल।

अब वो इंसान मेरे और उस डेड बॉडी—दोनों के सामने खड़ा हो गया।

उसने बोतल का ढक्कन खोला। पेट्रोल सीधे उस डेड बॉडी पर उड़ेल दिया। मैं कुछ बोल पाता, हिल पाता… उससे पहले ही उसने आग लगा दी।
लपटें उठीं।
कमरे में सिर्फ एक शब्द गूंज रहा था—
“आग… आग… आग…”

आंखों के सामने बॉडी जल रही थी। मैं सुन्न हो गया। कुछ सेकंड के लिए मेरा गुस्सा हार में बदल गया। आंसू, आवाज, रहम की भीख… सब खत्म। अब बस रोना ही रह गया था। मैंने अपने शरीर से हार मान ली थी। ना अब चिल्लाने की ताकत थी, ना मार खाने की। लेकिन तभी… उस इंसान ने जलती हुई बॉडी का कपड़ा उठाया। चेहरा दिखा। मैं जम गया। दिल चीख पड़ा— “माँ…”
मन बार-बार वही शब्द दोहराने लगा—

“माँ… माँ… माँ…”

अब मेरे अंदर कुछ टूट गया। गुस्सा भड़क उठा। जहाँ तक मेरी ताकत खत्म हो चुकी थी, वहीं से पागलपन शुरू हो गया। मेरी आँखें फटी हुई थीं, दाँत आपस में घिस रहे थे, और मन में सिर्फ एक ही ज्वाला थी— उस इंसान को खत्म करने की। मैं पूरी तरह पागल हो गया था। रस्सियाँ मेरे हाथों को काट रही थीं। खून निकल रहा था। लेकिन मुझे दर्द का ज़रा भी अहसास नहीं था।

मैं रस्सी तोड़ने की कोशिश करता रहा। हाथ से खून टपक रहा था, दर्द हर जगह महसूस हो रहा था… लेकिन माँ को आग में जलते देख मेरा गुस्सा दर्द से कहीं ज्यादा था। वो इंसान मेरी तरफ बढ़ रहा था, और मैं और ज़ोर लगाकर रस्सी तोड़ने लगा। हाथ कट रहे थे, खून और बह रहा था—लेकिन मैं रुक नहीं रहा था।

अचानक उसने मेरे बाल पकड़कर मेरा चेहरा ऊपर किया। मेरी आँखों में जलता हुआ गुस्सा देखकर वो हँस पड़ा और फिर बेरहमी से मुझे मुक्के मारने लगा। लेकिन इस बार उसके मुक्कों का असर मुझ पर कम था। गुस्से ने मेरे अंदर की तकलीफ़ दबा दी थी। फिर उसने मुझे झटका देकर कहा—“बस देख…” और दोबारा मारने लगा।

इतनी मार खाने के बाद मैं बेहोश हो गया। जब होश आया… तो माँ की आधी जली हुई लाश सामने थी। आँखों में आँसू भर आए। माँ की आवाज़, उनकी बातें, उनकी हँसी सब मेरे कानों में गूंजने लगीं। मैं ज़ोर से रो पड़ा।

तभी वो इंसान फिर आया। अब डर मेरे अंदर फिर से लौट आया। मैं पीछे हटने की कोशिश करने लगा, लेकिन रस्सियों में बंधा था। उसने मेरे हाथ में एक खाली प्लेट थमाई और किचन में चला गया। कुछ देर बाद वो लौटा, हाथ में ढकी हुई छोटी प्लेट थी। उसने वो मेरी प्लेट में रख दी और कहा—“खोलो इसे।”

मैं सिहर गया। डर और भूख के बीच फँस गया। जानता था अगर मैंने प्लेट नहीं खोली, तो वो मुझे मारेगा। काँपते हाथों से मैंने प्लेट खोली… और वहीं जम गया।

अंदर दो आँखें रखी थीं। असली आँखें। उन्हें देखते ही मेरा पूरा शरीर काँप उठा। उल्टी आ गई, मैं किनारे मुड़ गया। आँसू खुद-ब-खुद निकलने लगे। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मेरे साथ ऐसा होगा।

जैसे-तैसे खुद को संभाला और सोचने लगा—अब मैं क्या करूँ? तभी वो इंसान आगे बढ़ा, एक आँख उठाई और उसे मेरे मुँह की तरफ बढ़ाते हुए ठंडी आवाज़ में बोला—

“खा ले।”


मैं गुस्से में अपना मुँह बंद करके इधर-उधर घुमा रहा था, लेकिन खा नहीं रहा था। तभी वो इंसान बोला—

“खा ले… ये तेरी माँ की आँख है।”

ये सुनकर मैं दहल गया। माँ की आँख? कब… कब निकाली उसने? मैं तो पूरी वक़्त बॉडी के सामने ही था। शायद जब मैं बेहोश हुआ था… तभी उसने ये किया होगा।

मैं सोच ही रहा था कि वो इंसान गुस्से में आ गया। आँख को दो उँगलियों से दबाकर कुचल दिया। उसमें से पानी जैसा तरल मेरे चेहरे पर बिखर गया। गंध और एहसास ने मेरा गुस्सा और बढ़ा दिया। मैंने अचानक सिर से उसे टक्कर मारी। वो पीछे गिरा, लेकिन अगले ही पल आग-बबूला होकर चाकू निकाल लाया।

उसने मेरा मुँह फाड़ दिया, जीभ काट दी—मैं दर्द से तड़प उठा। चिल्लाना चाहता था, लेकिन आवाज़ टूटी हुई चीखों में बदल गई। मैंने पूरी ताक़त से उसे लात मारी, वो दूर जा गिरा। मगर जल्दी ही खड़ा होकर फिर आया और चाकू मेरी आँख में घुसा दिया। मेरी देह काँप उठी, दर्द और जलन असहनीय थी। मेरी ताक़त खत्म हो चुकी थी। वो अपनी जेब से दूसरा चाकू निकालकर मेरी ओर बढ़ा…

और सब ख़त्म हो गया।
जब मैंने आँखें खोलीं तो खुद को दाढ़ी के घर बिस्तर पर पाया। माँ मुझे हिला रही थी। मैं पसीने में भीगा था, सांसें तेज़ चल रही थीं। माँ बार-बार पूछ रही थी—“अमित, क्या हुआ?”
मैं कुछ बोल नहीं पा रहा था, बस डर के साए में चुप बैठा रहा। तभी माँ ने मुझे गले से लगा लिया। उस पल मेरे भीतर का डर जैसे थोड़ा हल्का हो गया।
कुछ देर बाद मैंने कहा—“मैं ठीक हूँ।”
माँ ने मेरे सिर पर हाथ रखकर फिर पूछा—“क्या हुआ था अमित?”
मैं बस माँ को देखता रहा। वो सबकुछ दिमाग में घूमने लगा। लेकिन दाढ़ी के घर माँ को देखकर मुझे एक और ख्याल आया—क्या मैं सच में मर चुका हूँ? माँ इतनी सुबह यहाँ क्यों है?
मैंने पूछा। माँ ने मुस्कुराते हुए कहा—“चाचा-दाढ़ी बाहर गए हैं, इसलिए मुझे बुलाया था। मैं तेरे लिए खाना बनाने आई हूँ।”

मैं बस उसकी बातें सुनता रहा। और फिर धीरे से बोला—“माँ, मुझे बहुत बुरा सपना आया था…”
इसके बाद मैं नहाने चला गया। शीशे में अपनी आँख, गर्दन और मुँह देखा—कोई निशान नहीं था। लेकिन दर्द अब भी था… अंदर गहराई तक।
शाम हुई, फिर रात। मैंने ठान लिया कि आज मैं नहीं सोऊँगा। मगर घड़ी ने जैसे ही बारह बजाए… मेरी आँखें भारी होने लगीं। एक बजते-बजते… मैं फिर सो गया।



“मैंने सोचा था सब सपना था… लेकिन अगली सुबह जब आईने में देखा, तो मेरी आँख के नीचे हल्का-सा कट का निशान था।”