उत्तराखंड की पहाड़ियों के बीच बसा कस्बा था – देवलोक घाटी।
यहाँ हरियाली, मंदिर और पुरानी हवेलियाँ थीं। लेकिन घाटी के बीचों-बीच खड़ी थी एक उजड़ी हवेली – चौहान हवेली।
लोग कहते थे कि इस हवेली में रखी एक पुरानी लकड़ी की कुर्सी, जिसे “मैनह्यूज़ चेयर” कहा जाता है, इंसानी आत्माओं को निगल जाती है।
गाँव वाले उस हवेली की तरफ न जाते थे। रात में वहाँ से अक्सर चीखें और हँसी सुनाई देती थी।
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पात्र
अभिमन्यु राठौर – दिल्ली का पत्रकार, सच की खोज में निडर।
कियारा मिश्रा – मुंबई की फोटोग्राफ़र, रहस्यमयी कहानियों की शौक़ीन।
विवान कपूर – डॉक्यूमेंट्री फ़िल्ममेकर, तर्कवादी लेकिन अंदर से अंधविश्वास से डरा हुआ।
पंडित भीष्मदेव – गाँव का पुजारी, हवेली और कुर्सी के रहस्य को जानता है।
तांत्रिक कालीनाथ – सदियों पहले का तांत्रिक जिसने मैनह्यूज़ चेयर को शापित किया।
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कहानी की शुरुआत
दिल्ली के अख़बार में एक हेडलाइन छपी –
"देवलोक घाटी की चौहान हवेली से ग़ायब हुए तीन पर्यटक, कुर्सी का रहस्य गहराया।"
इस ख़बर ने पत्रकार अभिमन्यु को झकझोर दिया।
उसने कियारा और विवान को साथ लिया और तीनों घाटी पहुँच गए।
गाँव में पहुँचकर उन्होंने पंडित भीष्मदेव से पूछताछ की।
पंडित ने कहा –
"उस हवेली में कदम मत रखना। मैनह्यूज़ चेयर पर बैठने वाला कभी लौटकर नहीं आता।"
लेकिन पत्रकार की जिज्ञासा कहाँ रुकती है।
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हवेली का पहला दृश्य
शाम ढलते ही तीनों हवेली पहुँचे।
टूटे दरवाज़े, जंग लगी जंजीरें और भीतर से आती ठंडी हवा… हवेली को और डरावना बना रही थी।
तहख़ाने में पहुँचकर उन्होंने देखा –
बीचों-बीच काली लकड़ी की भयानक कुर्सी रखी थी।
उसकी सतह पर दर्जनों चेहरे उभरे हुए थे – जैसे चीख रहे हों, जैसे मदद माँग रहे हों।
कियारा काँप गई –
"ये कुर्सी… जैसे ज़िंदा हो।"
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पहला हादसा
विवान, जो हमेशा अंधविश्वास को चुनौती देता था, हँसते हुए बोला –
"अगर ये कुर्सी सच में आत्माएँ खाती है तो मैं ही बैठता हूँ।"
जैसे ही वह कुर्सी पर बैठा, हवेली में अंधेरा फैल गया।
विवान की आँखें उलट गईं, उसका शरीर काँपने लगा।
और अचानक उसकी आत्मा कुर्सी में समा गई।
अब कुर्सी पर एक नया चेहरा उभर आया – विवान का।
कियारा चीख पड़ी।
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कुर्सी का रहस्य
अभिमन्यु और कियारा तुरंत पंडित भीष्मदेव के पास पहुँचे।
उन्होंने बताया –
"ये कुर्सी तांत्रिक कालीनाथ ने बनाई थी। वह अमरत्व चाहता था। हर साल इंसानों की बलि देकर उनकी आत्माएँ इस कुर्सी में कैद करता। जब गाँव वालों ने उसे मार दिया, उसने मरते वक्त शाप दिया – 'मेरी आत्मा इस कुर्सी में रहेगी और जो भी इसे छुएगा, वो मेरा शिकार बनेगा।'"
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दूसरी रात – आत्माओं की परछाइयाँ
अगली रात अभिमन्यु और कियारा फिर हवेली पहुँचे।
तहख़ाने में जाते ही दीवारों पर खून के निशान उभर आए।
कुर्सी से काली परछाइयाँ निकलने लगीं।
कियारा को अचानक अपनी आँखों के सामने विवान दिखाई दिया –
"कियारा, मुझे बचाओ… मैं यहाँ फँसा हूँ!"
लेकिन अगले ही पल उसका चेहरा विकृत होकर चीख उठा और गायब हो गया।
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आत्माओं का हमला
अभिमन्यु ने कैमरा चालू किया और सब रिकॉर्ड करने लगा।
अचानक कुर्सी से हज़ारों आत्माएँ निकलकर उन पर टूट पड़ीं।
ठंडी हवाएँ, भयानक चीखें और जलते हुए चेहरों ने उन्हें घेर लिया।
कियारा का कैमरा हाथ से गिर पड़ा।
उसने देखा – कुर्सी पर अब तांत्रिक कालीनाथ का प्रेत बैठा था।
"तुम सब मेरी अगली बलि हो।"
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अंतिम संघर्ष
अभिमन्यु ने पंडित भीष्मदेव से सीखे मंत्र का जाप शुरू किया।
लेकिन कुर्सी से आग की लपटें उठीं और पूरा तहख़ाना हिलने लगा।
कियारा ने साहस जुटाया। उसने मिट्टी का तेल उठाया और कुर्सी पर डाल दिया।
अभिमन्यु ने मशाल से आग लगा दी।
कुर्सी जलने लगी, हवेली में चीखें गूँज उठीं।
सैकड़ों आत्माएँ मुक्त हो गईं।
लेकिन अचानक… अभिमन्यु का शरीर जकड़ गया।
उसकी आत्मा कुर्सी में खिंच गई।
कियारा बेहोश होकर गिर पड़ी।
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भयानक अंत
सुबह गाँव वाले हवेली पहुँचे तो उन्होंने सिर्फ़ कियारा को ज़मीन पर बेहोश पाया।
लेकिन कुर्सी अब भी जस की तस थी… और उस पर एक नया चेहरा उभर आया था – अभिमन्यु का।
कियारा पागल जैसी हालत में गाँव लौट आई।
आज भी देवलोक घाटी की चौहान हवेली वीरान खड़ी है।
लोग कहते हैं कि रात को हवेली से कैमरे की फ्लैश और अभिमन्यु की आवाज़ सुनाई देती है –
"इतिहास अभी पूरा नहीं हुआ… अगली कहानी तुम्हारी है।"