हिरण्यकश्यपु का वध तो सब जानते हैं, लेकिन बहुत कम लोग यह जानते हैं कि भक्त प्रह्लाद के पोते असुर सम्राट महाबली की असली कहानी क्या है। असुर कुल से होने के बावजूद आज भी करोड़ों लोग उनकी आराधना क्यों करते हैं? आखिर ओणम का त्यौहार क्यों मनाया जाता है? क्यों भगवान विष्णु ने वामन अवतार लेकर उनसे केवल तीन पग भूमि ही मांगी और क्यों महाबली को आज भी दुनिया का सबसे महान दानी कहा जाता है?
प्रारंभ में केवल शून्य था और उसी शून्य से सृष्टि की उत्पत्ति हुई। समय, दिशा, आकाश और पृथ्वी ने जन्म लिया और यही बनी ब्रह्मांड की आदि गाथा। इसी धरती की गोद से सभी जीव प्रकट हुए और देवों तथा असुरों का युग आरंभ हुआ। ब्रह्मा के मानस पुत्र कश्यप से ही देव और असुरों की कथा शुरू हुई। उनकी दो पत्नियां, अदिति और दिति, ब्रह्मांड के संतुलन की धुरी बनीं। अदिति से जन्मे देवता धर्म और प्रकाश के प्रतीक बने, जबकि दिति से जन्मे असुर बल और प्रतिशोध के अवतार सिद्ध हुए। अदिति की संतान इंद्र, वरुण, अग्नि और अन्य देव ब्रह्मांड की रक्षा करने वाले बने, जबकि दिति की संतान हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यपु बल और अहंकार के प्रतीक बने।
हिरण्याक्ष ने धरती को समुद्र में डुबो दिया था और भगवान विष्णु ने वराह अवतार लेकर उसका वध किया। अपने भाई की मृत्यु से क्रोधित हिरण्यकश्यपु ने स्वयं को ईश्वर घोषित कर दिया। परंतु उसके ही घर में प्रकट हुए भक्त प्रह्लाद विष्णु के परम भक्त बने। चाहे जितनी यातनाएं दी गईं, उनके होठों पर हमेशा “नारायण नारायण” गूंजता रहा। अंततः जब अत्याचार अपनी सीमा पार कर गया, तब भगवान विष्णु नृसिंह अवतार में प्रकट हुए और हिरण्यकश्यपु का अंत कर दिया।
हिरण्यकश्यपु के मरने के बाद असुरों का राजसिंहासन प्रह्लाद को मिला। पहली बार असुर कुल का राजा धर्म और भक्ति का प्रतीक बना। प्रह्लाद ने देवों और असुरों के बीच शांति स्थापित की और युद्ध की परंपरा को तोड़ दिया। समय बीता और प्रह्लाद वृद्ध हो गए। उनकी माता की अंतिम इच्छा थी कि वे अपने पोते को असुर साम्राज्य का राजा बनते हुए देखें। इसीलिए प्रह्लाद ने अपने पुत्र विरोचन का विवाह तेजस्विनी कन्या विशालाक्षी से किया और राजगद्दी उसे सौंप दी।
विरोचन और विशालाक्षी के घर जन्म हुआ एक दिव्य बालक का, जो आगे चलकर महाबली के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसके जन्म के समय ही ज्योतिषियों ने कहा था कि यह बालक तेजस्वी और दीर्घायु सम्राट बनेगा। शुक्राचार्य ने भी भविष्यवाणी की कि यह बालक असुर वंश का गौरव होगा।
विरोचन ने हिमालय में कठोर तप करके सूर्यदेव को प्रसन्न किया और उनसे एक दिव्य मुकुट प्राप्त किया। परंतु छल से इंद्र ने ब्राह्मण का वेश धारण कर विरोचन को धोखा दिया और उसका मुकुट छीन लिया। मुकुट के बिना विरोचन दुर्बल हो गए और इंद्र ने छल और बल से उनका वध कर दिया। यह समाचार सुनते ही युवा बलि का हृदय प्रतिशोध से जल उठा। उसने प्रतिज्ञा की कि वह अपने पिता की मृत्यु का बदला अवश्य लेगा।
बलि ने रणभूमि में जाकर इंद्र को चुनौती दी। भयंकर युद्ध हुआ जिसमें बलि घायल होकर गिर पड़ा। इंद्र उसे मार ही डालता, तभी भगवान विष्णु प्रकट हुए और इंद्र को रोककर कहा कि यदि देवता भी छल और अन्याय करेंगे तो फिर उनमें और असुरों में कोई अंतर नहीं रहेगा। इसके बाद शुक्राचार्य ने अपनी विद्या से बलि को पुनर्जीवित कर दिया। यह केवल जीवनदान नहीं था बल्कि बलि का पुनर्जन्म था।
युवावस्था में ही बलि युद्धकला में अद्वितीय सिद्ध हुए, लेकिन उनकी पहचान केवल पराक्रम नहीं बल्कि दानशीलता और भक्ति भी बनी। जहां भी वे जाते, धर्म और न्याय की आभा फैल जाती। किसी याचक को वे खाली हाथ नहीं लौटाते थे। शुक्राचार्य ने उनके लिए एक दिव्य रथ प्रकट किया, जिससे सुसज्जित होकर उन्होंने स्वर्ग पर चढ़ाई की और इंद्र को पराजित कर तीनों लोकों के सम्राट बन गए।
सम्राट महाबली का शासन न्याय और धर्म का प्रतीक था। किसानों और गरीबों को वे विशेष सम्मान देते थे। उनके राज्य में कोई भूखा नहीं रहता था, कोई अन्याय का शिकार नहीं होता था। यही कारण था कि माता लक्ष्मी तक उन पर प्रसन्न हो गईं।
लेकिन देवता उनके साम्राज्य से चिंतित थे। अदिति ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की और विष्णु ने वचन दिया कि वे उनके गर्भ से वामन रूप में अवतरित होंगे। इस प्रकार भगवान वामन का जन्म हुआ। छोटे कद के किंतु तेज से भरपूर इस बालक ने महाबली की दानशीलता की परीक्षा लेनी थी।
जब महाबली अपना सौवां अश्वमेध यज्ञ कर रहे थे, तभी वामन अवतार वहां प्रकट हुए। महाबली ने आदरपूर्वक उनसे पूछा कि वे क्या चाहते हैं। वामन ने कहा, “महाराज, मुझे केवल तीन पग भूमि चाहिए।” शुक्राचार्य ने चेताया कि यह भगवान विष्णु हैं और सब कुछ छीन लेंगे। लेकिन महाबली ने उत्तर दिया, “यदि स्वयं भगवान मेरे यज्ञ में याचक बनकर आए हैं तो यह मेरे लिए गौरव की बात है। मैं अपना वचन नहीं तोडूंगा।”
महाबली ने संकल्प पूर्ण किया और उसी क्षण वामन ने विराट रूप धारण कर लिया। एक पग में उन्होंने पृथ्वी को नापा, दूसरे पग में आकाश को। अब तीसरे पग के लिए कोई स्थान नहीं बचा। भगवान ने पूछा, “राजन, तीसरा पग कहां रखूं?” महाबली ने शांत स्वर में उत्तर दिया, “प्रभु, अब मेरे सिर पर अपना तीसरा पग रख दीजिए। मैं अपना जीवन और अहंकार सब आपको समर्पित करता हूं।”
भगवान वामन ने करुणा से उनका समर्पण स्वीकार किया और उन्हें पाताल लोक का अधिपति बना दिया। पर यह कोई पराजय नहीं थी। यह दान और समर्पण का अमर गौरव था। भगवान ने वचन दिया कि महाबली हर वर्ष अपनी प्रजा से मिलने धरती पर आ सकेंगे। यही अवसर आज ओणम उत्सव के रूप में मनाया जाता है।
केरल और भारत भर में लोग मानते हैं कि ओणम के दिन महाबली अपनी प्रजा से मिलने आते हैं और देखते हैं कि वे सुखी और समृद्ध हैं या नहीं। यही कारण है कि असुर होते हुए भी महाबली आज तक करोड़ों लोगों की श्रद्धा का केंद्र हैं। उनका जीवन यह संदेश देता है कि सच्चा साम्राज्य बल या छल से नहीं, बल्कि धर्म, दान और भक्ति से स्थायी होता है।
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