नृसिंह अवतार की कथा करुणा, क्रोध और कल्याण की प्रतीक है। बहुत सहस्त्रों वर्ष पूर्व जब पृथ्वी ने पहली बार धड़कना शुरू किया था, ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की, शिव ने संहार का दायित्व उठाया और नारायण ने पालन का संकल्प लिया। सतयुग की पहली सांस में ही धर्म की नींव रखी गई—सत्य, तप, शांति और न्याय के स्तंभों पर। लेकिन जब सृष्टि में संतुलन डगमगाया, अधर्म ने सिर उठाया और तब विष्णु ने अवतार धारण किया। यह कथा उन्हीं अवतारों में से एक की है, जो न पूरी तरह मनुष्य था, न पूरी तरह पशु। यह है नृसिंह अवतार की कथा।
उस समय न राष्ट्र थे, न धर्म के झंडे। केवल तत्व थे—अग्नि, वायु, जल, आकाश और पृथ्वी। इन्हीं से बना यह संसार, और इसे नियंत्रित करता था धर्म। धर्म की नींव रखने वालों में ऋषि कश्यप का नाम सदा के लिए अंकित हो गया। वे कोई साधारण तपस्वी नहीं थे, बल्कि मानवता के पहले वंशजों के पिता थे। उनके आश्रम से देव, दैत्य, दानव, नाग, गंधर्व, यक्ष और राक्षस उत्पन्न हुए। यहीं से आरंभ हुआ एक ऐसा युग जहां सृष्टि का संतुलन पहली बार डगमगाया।
दिति की कोख से जन्मे दो पुत्र—हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप। बड़ा पुत्र हिरण्याक्ष बल में अतुलनीय, अहंकार में अंधा और अधर्म का पहला प्रतिनिधि था। उसने स्वयं सृष्टि को चुनौती दी और पृथ्वी को समुद्र की गर्त में उठा लिया। सृष्टि डगमगाई, ऋषि-मुनि भयभीत हुए, देवता मौन हो गए। तब विष्णु वराह अवतार में प्रकट हुए—अर्धमानव, अर्धसूअर। महासमर हुआ हिरण्याक्ष और वराह के बीच जल, नभ और पृथ्वी के गर्भ में, और अंततः हिरण्याक्ष का वध हुआ।
लेकिन यह किसी एक जीवन का अंत नहीं था, बल्कि एक नए तूफान की शुरुआत थी। हिरण्याक्ष की मृत्यु ने उसके भाई हिरण्यकश्यप के भीतर एक ऐसी ज्वाला जला दी जिसे देवता भी बुझा न सके। उसने संकल्प लिया कि जो उसके भाई का वध करेगा, वह उसे और उसके उपासकों को मिटा देगा। वह केवल राक्षस नहीं रहना चाहता था, वह ईश्वर से भी ऊपर होना चाहता था। इसके लिए उसने तप और साधना का मार्ग चुना। भयंकर तपस्या में उसने जलती गर्मी, हिम की ठंड, तेज हवाएं, भूख और नींद सब कुछ त्याग दिया और वर्षों तक “ॐ ब्रह्मदेवाय नमः” जपता रहा।
उसकी तपस्या से देवताओं का सिंहासन डोलने लगा और अंततः ब्रह्मा प्रकट हुए। हिरण्यकश्यप ने अमरता मांगी, पर ब्रह्मा बोले कि मृत्यु से कोई नहीं बच सकता। तब उसने चतुराई से वरदान मांगा—ना दिन में मरे, ना रात में; ना घर में, ना बाहर; ना किसी जीव द्वारा, ना किसी देव द्वारा; ना किसी अस्त्र से, ना किसी शस्त्र से; ना धरती पर, ना आकाश में। ब्रह्मा बंधे हुए थे और उन्हें यह वरदान देना पड़ा। उसी क्षण हिरण्यकश्यप बदल गया। अब वह केवल राक्षस नहीं था, बल्कि स्वयं को ब्रह्मांड का भगवान मान बैठा। उसने घोषणा की कि अब केवल उसकी पूजा होगी और विष्णु की आराधना वर्जित कर दी गई।
हिरण्यकश्यप का साम्राज्य तीनों लोकों में फैल गया। देवता पराजित हुए, यज्ञ रुक गए और धर्म भयभीत होकर छिप गया। इसी दौरान उसकी पत्नी कायाधु गर्भवती थी। देवताओं को भय हुआ कि यह संतान भी उतनी ही विनाशकारी होगी, इसलिए इंद्र ने कायाधु का हरण कर लिया। उनका उद्देश्य गर्भस्थ शिशु को नष्ट करना था, लेकिन नारद मुनि ने उन्हें रोका। नारद ने कहा, हर गर्भ एक संभावना है। इंद्र ने उन्हें वापस लौटा दिया और कायाधु नारद के संरक्षण में रही। नारद ने विष्णु की कथाएँ सुनाईं, जो गर्भस्थ शिशु प्रह्लाद तक पहुँचीं। जन्म से पहले ही प्रह्लाद के हृदय में विष्णु के प्रति भक्ति गहरी हो गई थी।
प्रह्लाद जन्मा तो उसके चेहरे पर शांति और आंखों में गंभीरता थी। उसका नाम प्रह्लाद रखा गया। वह केवल राक्षस पुत्र नहीं, भक्ति का प्रतीक था। हिरण्यकश्यप चाहता था कि उसका पुत्र महान असुर योद्धा बने, लेकिन जब उसने प्रह्लाद की विचारधारा जानी तो स्तब्ध रह गया। प्रह्लाद के लिए सच्चा स्वामी भगवान विष्णु थे। यह सुनकर हिरण्यकश्यप का क्रोध फूट पड़ा। उसने आदेश दिया कि प्रह्लाद को असुर विद्या सिखाई जाए, परंतु विष्णु भक्ति उसकी आत्मा में रची-बसी थी।
हिरण्यकश्यप ने बार-बार प्रह्लाद को मारने का प्रयास किया—विष पिलाया, हाथियों से कुचलवाने की कोशिश की, नागों से घिरा, अग्नि में बिठाया। लेकिन हर बार विष्णु ने प्रह्लाद की रक्षा की। यहां तक कि होलिका भी, जिसे अग्नि न जला सकती थी, भस्म हो गई लेकिन प्रह्लाद अक्षत रहे। अंत में उसे सागर में पत्थर से बांधकर फेंका गया, परंतु वरुण देव ने भी उसकी रक्षा की।
प्रह्लाद ने भगवान से केवल एक वरदान मांगा—कि वह कभी उन्हें भूल न पाए और भगवान उससे कभी दूर न हों। विष्णु मुस्कुराए और कहा कि अब प्रह्लाद जहां देखेगा, वहां वह स्वयं होंगे।
अंततः हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को दरबार में बुलाया और चुनौती दी कि उसका विष्णु कहां है। प्रह्लाद ने शांत स्वर में कहा कि विष्णु हर जगह हैं—हर जीव, हर जड़, हर कण में। हिरण्यकश्यप ने उपहास किया और पूछा, क्या इस स्तंभ में भी? प्रह्लाद ने कहा—हां। तभी हिरण्यकश्यप ने गदा से स्तंभ पर प्रहार किया और वहां से प्रकट हुए नृसिंह।
नृसिंह ने ब्रह्मा के वरदान की सभी शर्तों का पालन करते हुए हिरण्यकश्यप का वध किया—ना दिन था, ना रात; ना घर के भीतर, ना बाहर; द्वार की सीमा पर उन्होंने पकड़ा; ना अस्त्र से, ना शस्त्र से, बल्कि अपने नाखूनों से उसे मारा।
हिरण्यकश्यप का वध कर देने के बाद भी नृसिंह का क्रोध शांत नहीं हुआ। उनकी गर्जना से ब्रह्मांड कांप उठा, देवता भयभीत हो गए। तभी नन्हा प्रह्लाद आगे बढ़ा। उसके हाथ जुड़े थे, आंखों में आंसू थे और होंठों पर नृसिंह की स्तुति। उसने प्रार्थना की कि प्रभु, यह क्रोध मेरे पिता के अधर्म के लिए था, अब शांत हो जाइए।
नृसिंह ने प्रह्लाद की ओर देखा और उनके नेत्रों में कोमलता आ गई। उन्होंने प्रह्लाद के सिर पर हाथ रखा और आशीर्वाद दिया—तेरा वंश सदा धर्म के मार्ग पर चलेगा और तेरी भक्ति युगों-युगों तक अमर रहेगी। धीरे-धीरे नृसिंह का क्रोध शांत हुआ और इतिहास ने यह प्रमाणित किया कि एक बालक की भक्ति अधर्म के सबसे विशाल साम्राज्य को भी गिरा सकती है।