poison is sweet in Hindi Women Focused by Neelam Kulshreshtha books and stories PDF | ज़हर मीठा मीठ सा

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ज़हर मीठा मीठ सा

नीलम कुलश्रेष्ठ

 

शाहजहाँपुर की नवाबी कल्चर, रामपुर का मतकटा [ बेवकूफ़ ] शब्द, बदायुँ की भूत उतारने वाली कोतवाल साब की मजार की याद के साथ सिर पर सफ़ेद कढ़ाई की गोल लखनवी टोपी पहने, लखनवी कुर्ते की जेब में धागे का गोला लिये हाथ से क्रोशिया लेस बुनते शब्बन मियां भी जैसे दिमाग़ के किसी तंतु से हमेशा के लिये एक धागे से लिपटे हुये हैं। हुआ ये था कि तीसरी कक्षा की परीक्षा के बाद की गर्मियों की छुट्टियों में मैं नाना जी के साथ डॉक्टर मौसी के पास बदायूँ चली गई थी। सुबह हम तीनों के नाश्ता करने के बाद मौसी जी सफ़ेद कोट पहनकर स्टेथस्कोप लटकाये हॉस्पिटल चलीं जातीं थीं। नन्दो फ़िनाइल डालकर बाल्टी भर पानी से आँगन धो डालती। उसी समय शब्बन मियां सफ़ेद कुर्ता पायजामा पहने लड़कियों की तरह कमर लचकाते भीगे आंगन में संभल संभल कर कदम रखते बड़ बड़ करते आ जाते, "नन्दो निगोड़ी को पता है कि मैं इस समय आतीं हूँ, तब भी मुझे भीगे आंगन में गिराने के काम करती रहती है। "

नाना जी चुटकी लेते, " कितनी बार कहा मियाँ आधा घंटा घर से लेट निकलो लेकिन तुम भी इसी टाइम मरने आ जाते हो। "

"मैं निगोड़ी सुबह की ठंडी हवा में घर से घूमने निकलती हूँ. मैं क्यों धूप में घूमूं ? आपसे एक बार मिल न लूँ तो चैन कैसे पड़ेगा ? "

"हा --हा --हा --धूप में घूमकर मेरी गोरी बन्नो काली पड़ जायेगी ?"

मैं मुस्करा देती शब्बन मियां के हलके सांवले चेहरे पर चेचक के दाग थे जिन्हें नाना जी गोरी बन्नो कहते थे।

पहली बार शब्बन मियां को देखते ही मैंने अपने ड्रेसिंग रूम में तैयार हो रही मौसी के पास जाकर प्रश्नों की झड़ी लगा दी थी, "ये कितने अजीब हैं ? लड़कियों की तरह मटक मटक कर क्यों चलते हैं ? औरतों की तरह क्रोशिया से बुनाई करते रहतें हैं ?" मैं उनके कान के पास जाकर फुसफुसाई थी, "क्या ये हिजड़े हैं ?"

"धत ! ये बिलकुल नॉर्मल आदमी हैं। बाद में कभी इनके बारे में बताउंगी । " मौसी ने अपने बॉब्ड कट बाल को कंघी करते हुये, सैंट की बॉटल के ढक्कन से अपनी बगल में लगाते हुये बताया था, " ये क्रोशिया से बने मेज़पोश, साड़ी, लेस, ड्रेसिंग टेबल कवर्स या नेपकिन बेचकर अपना काम चलाते हैं।इस ड्रेसिंग टेबल पर मैंने उन्हीं के बनाये मैट्स लगाये हुये हैं। "

उस बेतरतीब, आड़ी टेढ़ी ज़िंदगी जानने के लिये मैं समय को बरसों पीछे खिसकाकर उस पलंग पर ले चलतीं हूँ जिस पर अपनी बड़ी सौतेली बहिन नज़मा के घर अपने कमरे में शब्बन मियां सो रहे हैं। सुबह खिड़की से झांकने की कोशिश में है। शब्बन मियां की एक झटके में आँखें पूरी तरह अपनी खाला जान नज़मा की कर्कश आवाज़ सुनकर खुल जातीं हैं, "निगोड़ा ! बड़ा तो हाथी जैसा हो रहा है लेकिन शऊर नाम की कोई चीज़ न है विसमें। दीदे फूट गये थे जो आंगन में पान की पीक थूक दी ?" फिर उन्होंने इनकी चादर खींच दी, "अब उठेगा भी या नहीं।नकहत को स्कूल छोड़ने का टाइम हो रहा है और ये नवाब साब सो रहे हैं। "

रास्ते में निकहत ने वही सवाल फिर पूछा, `मामू !अम्मीजान आपको निगोड़ा क्यों कहती है ?मुझे भी आप जैसा निगोड़ा बनना है। "

"ख़ुदा किसी को मेरे जइसे निगोड़ा न बनाये। " वह ऊपर आसमान देखते बुदबुदा देते।उन्हें याद आता वह नन्हा शब्बन जो हैरान हो पूछता था, "ये लौंडिया क्या होता है ?"

उन्होंने अपने नवाब अब्बा हुज़ूर से मिले हवेली के हिस्से को बेचकर मिला आधा पैसा अपने सौतेले छोटे भाई बहिनों में बाँट दिया था।क्या करते वे अपनी शादी बनाकर ? वे खुद नज़मा आपा के हिस्से में आये थे क्योंकि उन के शौहर का बिज़नेस डावांडोल चल रहा था। भाई बहिनों ने भी नज़मा आपा को नवाबी बड़ी हवेली का पीछे का हिस्सा रहने के लिये दे दिया था।। पैसे घर में देने के बावजूद ऐसा लगता था जैसे वो कोई ड्योढ़ी पर पड़े श्वान हैं -जब चाहा रोटी डाल दी, काम करवाया और जब चाहा दुत्कार दिया। दूसरी दोनों बहिनें रामपुर के ख़ानदान के किसी परिवार में ब्याहीं थीं इसलिए उन की चिंता नहीं थी।

शब्बन मियां की नज़मा आपा को मैंने एक बार देखा था। पीले कुर्ते गरारे पर हरी चुन्नी पहने, कानों में लम्बे लम्बे झुमके लटकाये, पांचवे बच्चे को पेट में लिए, पेट फुलाये वह मौसी के घर के क्लीनिक में आईं थीं। मौसी अपना स्टेथस्कोप गले में डालतीं खाला जान के साथ बाहर निकल आईं थीं, कुछ रोष से बोलीं, " जब निकहत हुई थी तो मैंने आपको बोला था, आजकल ऐसी चीज़ें चल गईं हैं की बच्चे पैदा होने बंद हो जाते हैं। "

उन्होंने हरे दुपट्टे को सिर पर सम्भाला और व पान रचे होठों से बोलीं थीं, "तौबा तौबा, आप क्या मशविरा दे रहीं हैं ?"उन्होंने दोनों हाथ ऊपर की तरफ़ किये और नाटकीयता से बोलीं, " ऊपर जाकर ख़ुदा को मुँह दिखाना है या नहीं ?अल्ला औलाद देता है, हम औलाद लेता है। “

उनके जाने के बाद मौसी नानाजी के सामने बड़बड़ातीं रहीं थीं, " ये लोग कभी नहीं सुधरेंगे। घर में खाने के लिये कमी हो लेकिन अल्ला की औलादें ज़रूर पैदा करेंगे। "

ऐसे ही तो शब्बन मियां कभी बदायूँ की शान समझी जाने वाली के एक बड़ी शानदार हवेली में पैदा हुये थे। नवाब साहब की ख़ुशियों ने जैसे आसमान उठा लिया था। बड़ी बेगम तो तीन नवाबज़ादियाँ पैदा करके बैठीं थीं। छोटी बेगम ने उन्हें शहज़ादे के बाप होने की इज़्ज़त बख़्शी थी। ये ख़ुशियां अधिक नहीं टिक पाईं क्योंकि छोटी बेगम छः महीने में पीलिया होने से चल बसीं। कुछ फुसफुसाहट नवाब साहब के कान तक पहुँची कि बड़ी बेगम ने उनकी तीमारदारी सही ढंग से नहीं की थी इसलिए ----.नवाब साहब ने किसी अनजाने भय से अपने नन्हे शहज़ादे को ननिहाल भेज दिया। नन्हे के जाते ही बड़ी बेगम ने दो शहज़ादों को नवाब साहब की गोद में डाल दिया। नवाब साहब के इतनी औलादें हो गईं थीं लेकिन उनकी रात की महफ़िलें कैसे छूटतीं ?हर रात बदायूं की एक से एक बढ़कर रक्कासा, तवायफ़े अपने साज़िन्दों के साथ बुलाई जातीं थीं.

वो तो शब्बन मियाँ के बड़े मामूजान उनके साढ़े तीन वर्ष का होते ही नवाब साहब की ड्योढ़ी पर आ खड़े हुए, "नवाब साहब ! सम्भालिये अपनी अमानत। अब अम्मी जान अपने दमे के कारण इन्हें सम्भाल नहीं पातीं। हमारी व भाईजान की बेग़म तो हमारे सात सात बच्चों को सम्भालने में मसरूफ़ रहतीं हैं। "

उनके आने की ख़बर जनानख़ाने में बड़ी बेगम को पहुँच चुकी थी। इत्ती बड़ी हवेली पर वह कैसे सौतन के जाये बेटे को हक़ जमाने देतीं ?एक योजना पहले से ही बनाये बैठीं थीं।

जैसे ही शब्बन मियां ज़नानख़ाने में पहुँचे बड़ी बेगम ने अपने बेटे ज़ाहिद को गोद में लिये ऐसी जलती आँखों से उन्हें देखा कि वे एकदम सकपकाकर दासी के पीछे छुप गए। बेग़म ज़ोर से गरजीं, "इस को पीछे के कमरे में ले जाओ. "

दासी भी भौंचक रह गई क्योंकि उस अँधेरे कमरे में तो जो बच्चा शैतानी करता है उस बच्चे को सज़ा दी जाती है। दासी उन्हें लेकर उस कमरे में गई लेकिन उन्हें अकेले नहीं छोड़ा था।

सुबह तो बेगम स्वयं बेटियों के साथ उनके कमरे में आ गईं थीं। उन्हें गले लगाकर लाड़ से बोलीं थीं, "मेरी लौंडिया को नींद कैसी आई ?"

बड़ी बेटी सलमा ने कहा, "अम्मीजान !ये क्या कह रहीं हैं ?ये तो लौंडा है। "

"अरे ! जा सल्लो ! शेरवानी, चूड़ीदार पहनने से कोई लौंडा थोड़े ही हो जावै है? ये तो परदेस का लिबास है। अब अपनी लौंडिया को मैं यहां का लिबास पहनाऊँगी। "

धीमे स्वर में उन्होंने सिर झुकाकर कहा था, "मामूजान के यहाँ तो हमें सब लौंडा कहते हैं। "

"परदेस तो परदेस होवै है। तुम्हारी ये अम्मीजान समझा देगी कि तुम लौंडा हो या लौंडिया। "

शाम को शब्बन मियां के मामूजान विदा हुए उधर बेग़म का अभियान तेज़ हो गया। एक बाँदी को दर्ज़ी को बुलाने भेज दिया। दर्ज़ी को हिदायत दी कि शब्बन मियां के लिए फ़्रॉक्स, गरारा कुर्ता व लहंगा चोली सिलकर लाएं। उन्हें गरारा व कुर्ता पहनाया हाथों में नज़मा की चूड़ियां पहनाईं। चेहरे पर बिंदी व आँखों में काजल लगाया। उन्हें सिर पर चुन्नी उढ़ाकर गले लगाकर भींचते हुये कहा था, "हाय !मेरी लौंडिया कित्ती ख़ूबसूरत लग रही है। "

नन्हे शब्बन ने अचरज से पूछा, "क्या हम लौंडिया हैं ? मामू के घर तो हम लौंडों के साथ खेलते थे। `

बेगम ने कान पर हाथ रख दिए थे, "तौबा -तौबा --ऐसा कभी नहीं कहना। अब चौबीस घंटे अपनी तीनों बहिनों के साथ रहना। "

रात में जब तीनों बहिनें सो गईं तो वे चुपके से उठकर नवाब साहब के कक्ष की तफ़ चल दिए। आज ये पहेली उनसे ही पूछेंगे कि वे क्या हैं लौंडा या लौंडिया ?कक्ष अभी दूर था लेकिन उन्हें घुँघरुओं की आवाज़ें तबले व हारमोनियम की मधुर आवाज़ें सुनाई देने लगीं थीं। कक्ष के भारी भरकम पर्दे की झिरी से होने अंदर देखा के अब्बा हुज़ूर जाम पी रहे हैं, एक नर्तकी हॉल के बीच में कम उँगलियों से इशारे करती नृत्य कर रह रही थी. मामू के घर वह ग़लती से ऐसे ही नाच गाने की महफ़िल में घुस गए थे, कितनी डाँट खाई थी। वे घबराकर चुपचाप लौट लिए।

इस नन्ही नकहत को उसके स्कूल के रास्ते में क्या बतायें ? वे अपनी लचकीली शख़्सियत के कारण शादी कैसे करते ? सब यही समझते थे कि नवाब साहब के दबदबे व रौब के कारण हिजड़े उन के सबसे बड़े साहबज़ादे को अपने दल में मिलाने नहीं ले गये।उधर उनकी मुँह बोली बेटी मुन्नी के घर जाओ तो कहती है, " आपकी ऑंखें डबडबाई सी रहतीं हैं। लगता है कमज़ोर हो रहीं हैं। अपना चश्मा क्यों नहीं बदलवा लेते बापू ?इसका नम्बर बदल गया है। "

वे मायूस से कहते हैं, "अब तो ज़िंदगी का नंबर बदलने वाला है। इन निगोड़ी आँखों का क्या ख़्याल रक्खूँ ?"

उसका पति तुरंत कहता, "बापू !आप ये क्या बात कर रहे हैं ?आप जब कहेंगे मैं आपको आँखों के डॉक्टर के पास ले चलूँगा। "

उसके दोनों बच्चे उनसे चिपट जाते हैं, "नाना आ गये। नाना आ गये। "

मुन्नी बताती है, " आज मैंने चने का साग व मिस्सी रोटी बनाई है। ला रहीं हूँ। "

दुनियां में सिर्फ़ यही एक घर था जिसमें वह चैन से बैठकर खाना खा सकते थे हाँलाकि उन्हें पता था मुन्नी कितनी अजीब है अभी प्यार से खाना खिलाएगी और उनके जाने के बाद आंगन को पानी से धोकर शुद्ध करेगी। पड़ोसिनों को भी दिखाना होता है कि मुसलटे के जाने के बाद उसने आंगन धो लिया। बरामदे के कोने में चारपाई पर पड़ी उसकी कृशकाय माँ को तो इस मुसलटे का आना अच्छा नहीं लगता लेकिन उन्हें पता है इसके क्रोशिया से बनी चीज़ों के बिकने से उनका इलाज होता है।

बरसों पहले मुन्नी के पिता की चाय की दुकान मस्जिद के पास थी। वे शाम की नमाज़ पढ़कर बाहर निकलते और उन्हीं के हाथ की चाय पीते। नन्हीं मुन्नी वहाँ कप धोने का काम करती थी। अचनाक उसके बापू गुज़र गए जब वह मिलने गए तो दौड़कर उसने अपनी कोमल बाँहें उनके गले में डाल दीं और ज़ोर से रो उठी के कंधे से लग रो उठी थी, "बापू ------."

उनके दिल में पहली बार कुछ दरक उठा, उन्हें लगा कि वह उन्हें बापू कह रही ह, वह उसके सच ही मैं पिता हैं।

इन निगोड़ी आँखों ने क्या क्या नहीं देखा ? तीनों आपा को टीचर क्रोशिया का काम सिखाने आने लगी तो इन्हें ये क्यों नहीं सिखाया जाता ?नवाब साहब ज़नानख़ाने में पल भर झाँकने आ जाते थे और आते ही व्यग्रता पूछते, "शब्बन साहबज़ादे दिखाई नहीं दे रहे ?"

बेग़म इठलाकर उनके गले में चूड़ियों से भरी गोरी बाँहें डालकर कहतीं थी, "मैं कितना समझाया कि आपके अब्बा हज़ूर तशरीफ़ लाने वाले हैं लेकिन वे तो कोचवान से बग्घी निकलवा कर हवाख़ोरी करने निकल गए हैं। "

उन्होंने अपना क्रोध ज़ब्त कर लिया, "उन्हें कुछ दिन से देखा नहीं है। कल उन्हें हमसे मिलने भेजिये। "

ऐसे समय बेग़म स्वयं अपने हाथों से शब्बन मियां को पायजामा कुर्ता पहनाकर किसी विश्वस्त नौकर के साथ सहन में भेजतीं, नवाब साहब एक क्षण उनके सिर पर हाथ रखकर कह देते, " कैसे हैं साहबज़ादे ?मौलवी पढ़ाने आ रहे हैं न ?"

शब्बन मियां से पहले वह नौकर जल्दी से कह देता, "बिलकुल हुज़ूर ! अल्ला ने इनको बहुत तेज़ दिमाग़ बख़्शा है . "

अपनी लाड़ करने वाली, हर फ़रमाइश पूरी करने वाली अपनी अम्मी के कारण उन्हें विश्वास हो गया था कि वे लौंडियाँ हैं। बेग़म बाँहें फैलाकर आवाज़ देतीं, "मेरी शब्बी कहाँ है ?"

वे ख़ुश होकर कहते, " में ये रई, अभी आतीं हूँ। "और दौड़कर उनकी बाँहों में समा जाते और सोचते -`पता नहीं ये सच दुनियां को क्यों नहीं दखाई देता --खामखांह उन्हें लौंडा समझती है ?`

दो बरस निकल गए थे । ईद के दिन वे नज़मा और रेशमा के साथ नए गरारा कुर्ते पर सिर पर दुपट्टा ओढ़े में पायल छनकाते ज़नानख़ाने के सामने वाले बाग़ में घूम रहे थे। बार बार हाथ में लिए छोटे दर्पण में अपना चेहरा व अपने झिल मिल ज़री के दुपट्टे के बीच माथे पर लटकते टीके के नगीनों पर मुग्ध हो रहे थे कि नवाब साहब का नौकर आ गया, "बड़े साहबज़ादे आपको नवाब साहब ने बुलाया है। "

नज़मा बड़ी हो चली थी बेग़म साहिबा ने उसे हमराज़ बना लिया था। वह एकदम चौकं कर बोल उठी थी, " पहले अम्मी जान से पूछ तो लीजिये। "

"नहीं समय नहीं है क्योंकि कोई अँग्रेज़ अफ़सर आया है जो नवाब साहब के वारिस से मिलना चाहता है। "

नज़मा ज़नानख़ाने के अंदर की तरफ़ आवाज़ लगाती भागी, "अम्मी जान --."

बेग़म साहिबा एक कक्ष में शहर के कुछ अमीरात की बीवियों के साथ ढेरों मेवा पड़ी महकती ईद की सिवइयां खा रहीं थीं । उन्होंने सख़्त हिदायत दे दी थी कि बच्चों को अंदर नहीं आने दिया जाए।

नौकर नवाब साहब के पास जाकर खड़ा हो गया। उनके पीछे छिपे थे शब्बन मियाँ, नवाब साहब उस अँग्रेज़ अफ़सर से बोले, "ये रहे हमारे सबसे बड़े शहज़ादे --पीछे क्यों छिपे हैं ?सामने आइये। "

नौकर के पीछे से पायल छनकाते, सिर के दुपट्टे के कोने को मुँह में दबाये, शर्माए से शब्बन सामने आ गये।

नवाब साहब गरज उठे, " ये आज के ईद के पाक दिन आपको लौंडिया बनने की क्या सूझी है ?"

उन्होंने भोलेपन से कहा, "हम तो लौंडिया हैं। "

"ये आपसे किसने कह दिया, आप तो लौंडा हैं। "

"नहीं हम लौंडियाँ हैं, अम्मी जान की कसम। "

वह अँग्रेज़ अफ़सर कुछ नहीं समझ पा रहा था। नवाब साहब की क्रोधित आँखें देखकर शब्बन भागते से जनानख़ाने अम्मी की गोद में छिपने चल दिए .उनकी अम्मी जान कक्ष से बाहर आ चुकीं थीं, उनसे मिलने आईं ख़ातून जा चुकीं थीं . वे अम्मी जान के अम्मी के गले में लगकर फूट कर रोने लगे, " अब्बू हमें लौंडा समझ रहे थे। "

"अय हय ---विनसे ऐसी ग़लती कैसे हो गई ?"फिर वे नाटकीयता से सिर पर हाथ रखकर बोलीं, "ज़रूर विन्होंने ऐनक नहीं पहनी होगी। मैं विनको डाँटूंगी मेरी लौंडिया को लौंडा क्योंकर कहा ? मेरी शब्बो तो लौंडिया है, पक्की लौंडिया। सबसे प्यारी लौंडिया है। "

एक दिन सकीना, नगीना उन्हें बाग़ के एक कोने में ले गईं थीं। नगीना बड़े रहस्यमय ढंग से फुसफुसाते हुए बोली थी, "सबसे पहले तो मैंने ही नज़मा आपा के गरारे पर पीछे से ख़ून लगा देखा था। मैंने उन्हें बताया कि उनका अंदर का कोई फोड़ा फूट गया है। अम्मी के पास जाकर नज़मा आपा खून देखकर रोने लगीं तो अम्मी जान उन्हें समझा रहीं थीं कि बारह तेरह साल की लौंडिया को ऐसा खून हर महीने जाता है विसे माहवारी कइवें हैं। "

"उई दइया !मेरे भी माहवारी आएगी। "

"हम दोनों के भी। "नगीना सकीना हंस पड़ीं।

तब शब्बन मियां ने धीमे आवाज़ में कहा, " तू ने देखा है आपा के सीने में दो गांठें हो गईं हैं। अम्मी जान कहतीं हैं उन्हें दुपट्टे से ढककर रख। "

दोनों बहिनें हंस पड़ीं, " आपा हमें बता रहीं थीं कि ये गांठें नहीं हैं दुद्दू हैं जिनसे बच्चे दूध पीते हैं।"

"हाय दईया। "कहते हुये स्वत :ही उनका एक हाथ अपने सीने पर पहुँच गया.

नगीना व सकीना के बदलावों के बाद वे इंतज़ार ही करते रह गये लेकिन उनके सीने पर न गांठें आईं, न उनका गरारा खून से ख़राब हुआ तब उन्हें जो समझ में आया तो क्या आया ?

नवाब साहब उसके बाद वे शहर में नई रक्कासा के हुस्न में ऐसे डूबे कि उठ नहीं पाये जन्नत या दोजख़ की तरफ़ रुख़सत कर गये। जानबूझकर अम्मीज़ान ने उनकी फुई द्वारा उनकी शादी का पैग़ाम किसी शाही परिवार में भेजा लेकिन वहां से फुई अपमानित सी वापिस चली आईं। शब्बन मियाँ के सामने उन्होंने चिल्लाकर कहा था, " भाभी जान !मैं तुमसे कितना मना कर रही थी कि शब्बो का पैग़ाम न ले जाउंगी।वही हुआ जो मुझे डर था। वो बेग़म तो गला फाड़कर चिल्लाने लगी विस आधा मर्द, आधा औरत से शादी करने से तो बेहतर है, मैं लड़की को कुंए में ढकेल दूँ। "

शब्बन मियाँ मुँह छिपाते से वहां से उठ गए। बाद में अम्मीजान से सख़्ती से कह दिया कि वे उनकी शादी का पैग़ाम कहीं नहीं भेजें। ज़िंदगी बिलकुल बेमक़सद होकर रह जाती यदि मुन्नी का सहारा नहीं होता।

ऐसे ही वे एक दिन मुन्नी के घर चारपाई पर बैठे हुये भिड़ई व कचौरी चटनी से खा रहे थे। मुन्नी की बुआ अम्मा के पास बैठी थी। वह भी कचौड़ी का टुकड़ा मुँह में डालते हुये बोली, " अरे मुन्नी !तेरा छोरा तीन साल का हो गया। कब मुंडन करवाएगी ?देख बाल कैसे जटाओं जैसे उलझ रहे हैं।"

"मुंडन करवा तो लूँ बुआ ! लेकिन अम्मा को किसके आसरे छोड़ूँ ?अपने यहां तो गँगा जी किनारे बाल कटे हैं। "

"तू कह तो मैं दो दिना को रुक जातीं हूँ। कासगंज के पास कछला में गंगा जी हैं.तू कासगंज अपनी चाची के घर एक दिन ठहर जइयो। "

"सच्ची कई रई हो बुआ? "

"हम्बे।[ हाँ ] "

शब्बन मियां भी बोल उठे थे, "तुम जाओ मुन्नी !मैं यहां हूँ। इनको देख जाया करूंगा। "

" तू ऐसा करियो परसों दोपहर तक आ जइयो। मैं अम्मा को सुबह चाय परामठे खिलाकर गाँव निकल जाऊँगी। बहू के मायके से उसके भैया भाभी आ रए हैं। "

मुन्नी बोली, "जे ठीक है बुआ। तेरो एहसान है मुझ पर। "

"ए मरी !जे कोई एहसान है ?

शब्बन मियां भी तुरंत बोले, "मैं यहां दस बजे तक आ जाऊंगा।उस दिन निक़हत के स्कूल में कुछ डांस ड्रामा है । "

"ठीक है। "

इस तरह से मुन्नी अपने बच्चों व पति के साथ कासगंज चली गई थी।

निकहत के स्कूल के नाच गाने में शब्बन मियां का ऐसा मन रमा कि समय का ध्यान ही नहीं रहा। अचानक निकहत की सहेली के अब्बा हुज़ूर ने इशारे से बाहर बुलाया।उनके बाहर आते ही संज़ीदा होकर बोले, " मुन्नी के घर में आग लग गई है।"

" क्या ?`अय हय --उस घर में तो इक्कली बुढ़िया है। "

वे तुरन्त उठकर दौड़ लिये थे। मुन्नी के घर के बाहर मोहल्ले की बच्चे व औरतें खड़ीं थीं, किसी की अंदर जाने की हिम्मत नहीं थी। शब्बन मियां दनदनाते अंदर चले गए बरामदे में आग फ़ैल रही थी --ज़रूर अम्मा बीड़ी अधजली छोड़ बिस्तर पर सो गई होगी, जो उनकी आदत है।

उन्होंने आंगन के हैण्डपम्प से बाल्टी में पानी लेकर बरामदे में फेंका। जब आग काबू में आई तो वे ये देखकर हैरान रह गए चारपाई खाली पड़ी थी, अम्मा का कहीं पता नहीं था। उनके बिस्तर से छोटी मोटी लपटें उठ रहीं थीं। वे रुंआसे से चिल्लाये, "अम्मा -----अम्मा --."

अब वे क्या मुन्नी को मुंह दिखाएँगे ? अम्मा धीरे धीरे सरकती सी चारपाई के नीचे निकलीं --थोड़ी सी जली, पानी से भीगी हुई, उन्होंने घिघियाती आवाज़ में कहा " मैं ये रई। "

शब्बन मियां दौड़ते से भागे, पहले अम्मा को हाथ पकड़कर चारपाई के नीचे से बाहर निकाला फिर उनके गले लगकर बुक्का मरकर रो पड़े, "खुदा न ख़ास्ता आपको कुछ हो जाता तो मैं अपना काला मुँह कैसे मुन्नी को दिखाता ?"

----- दो घंटे बाद मुन्नी ने लौटकर सारे बरामदे व आंगन में से पानी से धो धो कर कालिख साफ़ की और घर के दरवाज़े से बाहर निकल झाड़ू हाथ में उठाकर ज़ोर से चिल्लाई कि सारा मोहल्ला सुन ले, " आज से मैं शब्बन बापू के जाने के बाद कभी भी आंगन नहीं धोऊंगी, कभी भी घर की शुद्धि नहीं करूंगी। जिसे मुझे जात बाहर करना है कर दे। "

 

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श्रीमती नीलम कुलश्रेष्ठ

सी 6--151, ऑर्किड हारमनी, 

एपलवुड्स टाउनशिप

एस.पी . रिंग रोड, शैला

शान्तिपुरा सर्कल के निकट अहमदाबाद -380058 [ गुजरात ]

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