दिन–1 (सुबह 6:00 बजे)
आज घर से ड्यूटी के लिए निकलते वक्त मन भारी था। पहले ही सूचना मिल गई थी कि कम से कम 48 घंटे से ज़्यादा समय बाहर रहना होगा। पत्नी और बच्चों की नज़रों में चिंता थी। बैग उठाया, ज़रूरी सामान डाला और स्टेशन पहुँच गया। इंजन पर चढ़ते ही रोज़ का साथी सा महसूस हुआ, पर मौसम ने शुरुआत से ही मुश्किलें खड़ी कर दीं। आसमान में घने बादल थे, तेज़ बारिश हो रही थी और विज़िबिलिटी बेहद कम थी। सामने का सिग्नल भी धुँध में बमुश्किल दिख रहा था।
दिन–1 (दोपहर 12:00 बजे)
लगातार रनिंग के बीच अचानक ट्रैक पर कुछ हलचल दिखी। जैसे ही नज़र पड़ी, मवेशियों का झुंड पटरियों पर था। पूरी ताक़त से ब्रेक लगाए, लेकिन भारी इंजन को अचानक रोकना संभव नहीं था। जोरदार झटका लगा और कुछ ही क्षण में सन्नाटा छा गया। दिल दहल गया। इंजन के फ्रंट और मेरे कपड़े खून से सन गए थे। ज़िम्मेदारी थी, इसलिए घटना रिपोर्ट की और ट्रेन को आगे बढ़ाया, लेकिन मन बोझिल हो गया।
दिन–1 (शाम 7:00 बजे)
बारिश और तेज़ हो चुकी थी। तभी अचानक पाइप ओपनिंग की समस्या आ गई। धुँआ और शोर देखकर इंजन रोकना पड़ा। बारिश और कीचड़ में उतरकर जाँच करनी पड़ी। हाथ-पाँव गंदे, कपड़े पहले से ही खून से सने थे, ऊपर से भीग भी गए। तकनीकी दिक़्क़त पर काबू पाकर फिर से ट्रेन आगे बढ़ाई। यह लोको पायलट की ड्यूटी है—मुश्किल चाहे कैसी भी हो, ट्रेन को चलाना ही है।
दिन–1 (रात 10:00 बजे)
आख़िरकार रनिंग रूम पहुँचा। थकान से चूर था, पर सबसे पहले गंदे कपड़े धोने पड़े। वॉशरूम में बहते पानी से धुलाई की, लेकिन खून के दाग़ पूरी तरह नहीं निकले। कपड़े टाँगकर सुखाने की कोशिश की और मेस में गया। वहाँ साधारण दाल-चावल मिला। खाना खाया, लेकिन स्वाद महसूस न हो सका। फिर सीधे बिस्तर पर गिर गया और कब नींद आई पता ही नहीं चला।
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दिन–2 (सुबह 5:30 बजे)
अलार्म से नींद टूटी। हल्का-फुल्का स्नान किया और साफ़ कपड़े पहने। चार्ट देखा तो फिर लंबी दूरी की ड्यूटी मिली थी। बाहर अभी भी बारिश हो रही थी। रास्ते में पटरियों पर जगह-जगह पानी जमा था, विज़िबिलिटी बेहद कम थी। हर सिग्नल, हर क्रॉसिंग पर चौकसी और ध्यान दोगुना करना पड़ा। कंट्रोल से लगातार मैसेज मिलते रहे।
दिन–2 (शाम 8:00 बजे)
लगातार घंटों ड्यूटी के बाद शरीर थक कर जवाब देने लगा। सिर दर्द, आँखों में भारीपन और भूख से पेट मरोड़ रहा था। रनिंग रूम पहुँचकर कपड़े बदले और फिर वही सिलसिला—धुलाई, सुखाने की कोशिश और साधारण खाना। साथी लोको पायलटों से बातचीत हुई। सबकी बातें लगभग एक जैसी थीं—घर से दूर रहने की पीड़ा, बारिश में ड्यूटी और लगातार तनाव। जल्दी ही नींद आ गई।
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दिन–3 (सुबह 6:00 बजे)
आज छुट्टी मिली। बैग पैक किया और स्टेशन पहुँच गया। पैसेंजर ट्रेन पकड़ी। खिड़की से बाहर झाँकते हुए वही पटरियाँ दिखीं जिन पर पिछले दो दिनों तक संघर्ष किया था। लेकिन इस बार मन हल्का था, क्योंकि अब घर लौट रहा था।
मस्तिष्क में बार-बार वही दृश्य घूम रहे थे—मवेशियों का कटना, खून से सने कपड़े, पाइप ओपनिंग, बारिश और गंदगी। रनिंग रूम की सादगी, कपड़े धोने की मजबूरी और बेस्वाद खाना सब याद आ रहे थे। ये सब आम लोगों की नज़रों से दूर होता है, लेकिन यही लोको पायलट की असली ज़िंदगी है।
घर की ओर बढ़ते हुए सोच रहा था—फिर कब बुलावा आ जाएगा, पर फिलहाल बस इतना सुकून था कि कुछ घड़ियाँ अपने परिवार के साथ बिताऊँगा।
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निष्कर्ष
लोको पायलट की ड्यूटी सिर्फ इंजन चलाने तक सीमित नहीं। यह ज़िंदगी से जुड़ा संघर्ष है—बारिश, अंधेरा, हादसे, तकनीकी खराबियाँ और घर से दूर बिताए दिन। हर ट्रेन सफ़र सिर्फ यात्रियों को नहीं, बल्कि लोको पायलट की मेहनत और त्याग को भी अपने साथ लिए चलता है।