Daliyaganj in Hindi Moral Stories by Sharovan books and stories PDF | डलियागंज

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डलियागंज

              डलियागंज/कहानी/ शरोवन     

कीकड़िया ईंट से बनी लाल ईंट की दीवारें, कोठियां और चूने से चिपकाई गई घरों की दीवारें कहीं पर भी देखेंगे तो आप समझ जाएँ कि, कभी यहाँ पर अंगेज रहा करते थे और उन्होंने ईसाई लोगों को बनाया-बसाया था.अंग्रेजों के जमाने में इस बस्ती का नाम डलियागंज था क्योंकि यहाँ पर रहने वाले अधिकाँश लोग गरीब और मजदूर थे. रोजाना मेहनत-मशक्कत करते थे और जितना कमाते थे, सब ही खा जाते थे. फिर इतना मिलता भी नहीं था कि, बचा भी लें. तब यहाँ के लोगों का मजदूरी के अतिरिक्त जो जो गोरखधन्धा था वह यह कि, अधिकतर लोग बांस, अरहर और अन्य वृक्षों की छालों से टोकरियाँ, बांस के तसले, कुर्सियां, चटाइयां, छप्परों में लगाने वाले पाल आदि बनाते थे और बाज़ार में जाकर बेचते थे. इसीलिये इस बस्ती का नाम डलियागंज पड़ा था. लेकिन अंग्रेजों के आने के बाद यहाँ के लोगों में काफी-कुछ परिवर्तन नज़र आने लगे थे. अंग्रेजों ने उनके लिए स्कूल खोले और बच्चों को शिक्षा दी, रहन-सहन के कायदे-कानून सिखाये. बच्चों को बात करने की तमीज़ सिखाई. फिर जब लोगों को अंग्रेजों से रहने के लिए घर-मकान मिले, पीने का पानी और नल लगे, बच्चे पढ़ने लगे, उन्हें नौकरियां मिलीं तो उनमें तो परिवर्तन आना ही था. धीरे-धीरे लोग अपना धर्म छोड़कर ईसाई धर्म को अपनाने लगे. फिर एक दिन ऐसा आया कि, भारत देश आज़ाद हुआ. अंग्रेज अपना काम करके, लोगों को सिखा-पढ़ाकर, ईसाई बस्तियां, ईसाई अस्पताल, ईसाई स्कूल और कॉलेज खोलकर अपने देश वापस चले गये. लेकिन जाते-जाते वे ऐसा कर गये थे कि, उनके द्वारा दिए गये धंधे, अस्पताल, स्कूल और चर्च आदि भारतीय ईसाई अधिकारी चलाने लगे.अंग्रेजों के जाने बाद डलियागंज की बस्ती अब ईसाई बस्ती के नाम से जानी-पहचानी जाती थी. अब यहाँ पर पूरी तरह से ईसाई लोग ही रहा करते थे. लेकिन, एक बेहद गंभीर बात जो यहाँ की ही नहीं, अन्य ईसाई मिशन कंपाउंड्स के साथ भी हुई थी, वह यही जिन लोगों को अंग्रेजों ने और उनके कारगुजारों ने ईसाई बनाया था वह अधिकाँश हरिजन, भंगी और मेहतरों के समुदाओं से ही आये थे. चूँकि, देश नया-नया स्वतंत्र हुआ था, और सारे देश में जातिवाद की जड़ें बहुत गहरी हो चुकी थीं, इसलिए इन नये परिवर्तित ईसाईयों को आम जनता अभी-भी उनकी पुरानी जाति और काम के आधार पर ही व्यवहार करती थी. अभी-भी इन ईसाईयों को मुख्य रूप से भंगी और मेहतर ही समझते थे और उनसे कोई भी सरोकार नहीं रखते थे. लेकिन एक बात तो थी, डलियागंज की इस मसीही बस्ती का इलाका बेहद रमणीय, सुंदर और शांतिपूर्ण था. वर्षों बीत जाने पश्चात राजसाहब ने जैसे ही अपनी चमचमाती सफेद रंग की फिएट कार से नीचे पहला कदम रखा तो अचानक सामने से आती हुई मगदला को अपनी तरफ भागते आकर वे सहसा ही घबरा-से गये और फिर तुरंत ही कार के अंदर बैठ गये आये फौरन ही दरवाज़ा बंद कर लिया. उनकी इस हरकत को देखकर उनका ड्राईवर भी चौंक गया. नहीं डरे और घबराए तो उबके वे दोनों युवा बच्चे थे, जिन्होंने एक सामान्य तरीके से अपने आस-पास देखा और देखकर फिर से अपने-अपने मोबाइल फोन में उलझ गये. साथ में बैठी हुई उनकी पत्नी प्रसिला भी उस लड़की मगदला को यूँ भागते आकर देखकर कार में बैठी होकर भी अपने ही स्थान पर सिमट गई. इस प्रकार कि, मानो वे उससे बचना चाहती थीं और चाहती थीं कि, म्ग्द्ला उनको बिलकुल भी न छुए.अभी राजसाहब और उनकी पत्नि के साथ बैठे हुए ड्राईवर उसी लड़की के बारे कुछ अन्यत्र ही सोच रहे थे और ड्राईवर कुछ कहता कि, उससे पहले ही मगद्ला ने उनसे कहा कि,'अरे अंकल ! गुड मोर्निंग ?''?' - राजसाहब ने उसे जैसे न चाहते हुए भी उत्तर दिया. वे बोले,'तुम तो बहुत बड़ी हो गई हो? गुड मोर्निंग.'तब मगदला ने उनकी पत्नि की तरफ देखते हुए उन्हें भी कहा,  'आंटी आपको भी. और नीना, बंटू तुमको भी गुड मोर्निग.'मगदला जब ऐसा कहा तो राजसाहबी के दोनों बच्चे भी एक अनजान लड़की के मुख से अपना-अपना नाम सुनकर आश्चर्य से उसकी तरफ देखने लगे. उन दोनों बच्चो ने तब इशारे से अपनी मां से पूछा,'यह कौन है?''अभी चुप रहो. अंदर बैठने का तो अवसर मिले, तब सब बता दूंगी.'तब तक मगदला राजसाहब की खिड़की के पास आकर खड़ी हो चुकी थी और वह उन्हीं की तरफ देखती जाती थी. उसे देखते हुए राजसाहब ने उससे कहा कि,'कैसी हो बेटा तुम?''मैं तो खूब अच्छी हूँ. आप कहिये, कैसे हैं आप? सालों बाद तो आये हैं. जब से गये हैं तब से एक बार भी इधर  मुड़कर नहीं देखा. कितना याद करती थी मैं आपको?''?'- राजसाहब के सिर पर उन्हें लगा कि, मानों किसी ने हथौड़ा मार दिया हो. वे बात को नज़रअंदाज़ करते हुए बोले,'अब उतरने तो दो. फिर बैठकर आराम से बातें करेंगे.'यह कहते हुए वे जैसे ही नीचे उतरने को हुए कि, तभी उस कंपाउंड में वर्षों से रहने वाले भीकमनाथ ने उनसे  अचानक से आगे आकर कहा कि,'आप चलकर कोठी में बैठिये, मैं आपका सामान निकालता हूँ.'लेकिन, मगदला उससे भी आगे आ गई और बोली,'आप क्यों निकालेंगे अंकल का सामान? मैं निकालूंगी.''?'- तब भीकमनाथ जैसे उसे झिड़कता हुआ बोला,'अरे, चल हट पगलिया. तू यहाँ भी आ गई गड़बड़ करने? हम करने के लिए बहुत हैं. तू जाकर अपना घंटा बजा.''?'- इस पर मगदला ने उसे अपनी लाल आँखों से घूरा और उसे परे करती हुई बोली,'तू बजा अपना घंटा. मुझसे पंगा मत लेना.'लेकिन भीकमनाथ उसे कुछ और जबाब देता, राजनाथ ने उसको सम्मत्ति दी और बोले,'रहने दो. उसे ही करने दो. चलो हम लोग अंदर बैठते हैं. वे सब अंदर चले गये और मगदला कार में से राजसाहब का सामान उठा-उठाकर अंदर कोठी में रखने लगी. भीकमनाथ वह आदमी था जिसे राजसाहब पहले ही से अपने आने की खबर दे दी थी, लेकिन उसे आने में देर हो गई थी.फिर लगभग आधे घंटे से बहुत कम समय ने मगदला ने सारा सामान उठाकर कोठी में रख दिया. उसने एक भी वास्तु कार में नहीं छोडी. यहाँ तक कि, छोटी-से-छोटी पेन, पेन्सिल, बालों की चिमटियां तक उसने लाकर करीने से लाकर यथायोग्य स्थानों पर सज़ा कर रख दीं. अपना काम समाप्त करने के बाद वह थक तो गई थी, फिर भी बहुत खुश दिखाई दे रही थी. इतना खुश कि, जैसे उसने अपना कास्म समाप्त करके सारा संसार खरीद लिया है. राजसाहब ने उसे कुछ पीने और खाने के लिए भी कहा लेकिन उसने मना कर दिया और यह गीत गाते हुए कि, 'टन-टन घंटा बजेगा . . . ' चली गई और जाकर उस स्थान पर जहां पर चर्च के घंटे के स्थान पर एक रेल की पटरी का टुकडा नीम के तने से लटक रहा था. इसी रेल की पटरी को किसी लोहे की बड़ी और मोटी कील से ठोंक कर चर्च की इबादत के घंटे बजाए जाते थे, क्योंकि चर्च की इमारत में उसके गुम्बज के अंदर पचास किलो के बड़े घंटे को किसी ने चुराकर बेच खाया था. तब उसके स्थान पर नया घंटा तो लग नहीं सका था और यह रेल की पटरी का टुकडा लटका दिया गया था. सो जब भी यह घंटा बजाया जाता था, उसी को मगदला उसकी आवाज़ को याद करती हुई दोहराती थी, ' टन-टन-टन घंटा बजेगा. . .'मगदला अपना गीत गाती रही और धीरे-धीरे करके वह अपने बालों को नोचने लगी तथा साथ ही अपने बदन के कपड़े उतारने लगी. कंपाउंड के अन्य बच्चों ने उसे देखा तो वे दूर से ही उस पर पत्थर, कंकड़ और अन्य वस्तुएं फेंकने लगे. पहले जब राजसाहब इस बस्ती में रहा करते थे तब मगदला बारह साल की थी और आज वे पूरे बारह बरसों के पश्चात ही दोबारा इस मसीही बस्ती में आये थे. अब तक मगदला चौबीस वर्ष की जवान लड़की बन चुकी और वह दिमाग से अथवा स्वभाव से मानसिक रूप से अस्वस्थ क्यों थी, मसीही बस्ती का कोई भी जन शायद नहीं जानता था? इतना ही नही, शायद किसी ने भी उसकी डाक्टरी जांच नहीं करवाई थी. पर हां अपने धार्मिक विश्वास के आधार पर उसके लिए दुष्ट आत्माओं को भगाने जैसे कार्य तो बहुत हुए थे, मगर फिर भी कोई लाभ होता नज़र नहीं आया था. राज साहब के साथ इस ईसाई बस्ती में रहने वाले बहुत से पुराने लोगों का यही विश्वास था कि, मगदला को कोई दुष्ट आत्मा सताती है.          

डलियागंज की इस ईसाई बस्ती की सबसे बड़ी विशेषता थी कि, यहाँ जो भी आता था वह यहाँ से फिर वापस जाने का नाम ही नहीं लेता था. इतनी सुंदर, मनमोहक, रमणीय और शान्ति-अमन से भरी जगह थी यह. शायद यही सोचकर पी. सी. राज़ जो जिले के ईसाईयों के निदेशक थे और मिशन में ही कार्यरत हो चुके थे, इस बार फिर से अपना स्थान्तरण करवाकर आये थे.  वैसे इनका वास्तविक नाम पदम चंद राज था, जिसे छोटा करके उन्होंने अपना नाम पी. सी. राज कर दिया था. लोगों में आज भी एक किवदन्ती है कि, पी. सी राज को उनका अंतिम नाम कैसे मिला? इसके लिए यही कहा जाता है कि, इनके पिता राजगिरी का काम किया करते थे और अंग्रेजों में अंतिम नाम  ही परिवार के नाम या 'सर नेम'  से चलाया जाता है, इसलिए किसी अंग्रेज मिशनरी ने ही इनके पिता को 'राज' नाम दे दिया था.राजसाहब  मिशन में अपने जिले के निदेशक थे और मसीही धर्म के प्रचार-प्रसार और नये-नये चर्चों की स्थापना करने का काम और उनकी देखभाल किया करते थे. और जब वे निदेशक थे और सभी मिशन के उनके इलाके के कारगुजार, पादरी और अन्य कर्मचारी उनकी जी-हुजूरी में उनके आगे-पीछे घूमा करते थे. सचमुच वे 'राज' नहीं अब राजा साहब कहलाते थे. इस बार और दूसरी बार इस डलियागंज की मसीही बस्ती में अपना मुख्यालय बनाने के लिए जब वे आये थे तो केवल इतना ही अंतर था कि, अब उनके परिवार चार संतानें आ चुकी थीं और वे भी सब युवावस्था की कतार में खड़ी हो चुकी थीं. राज साहब और उनकी पत्नि के बालों में बढ़ती उम्र के च्कीले तार नज़र आने लगे थे. आखिरकार पिछले बीस वर्षों का अंतर और उनका प्रभाव तो दिखना ही था. पर हां, उनके व्यवहार, कार्यप्रणाली और स्वभाव में कोई फर्क आया हो, इसमें अवश्य ही संदेह की धुंध दिखाई देती थी.राज साहब ने आते ही जो अपना पहला काम किया उसमें, उन्होंने जो लोग उनके सहायक, उनका कहा न मानने वाले और एक प्रकार से जो उनके विरूद्ध हो सकते थे, अथवा ऐसी कोई भी संभावना थी जो उनके भविष्य के लिए हानिकारक हो सकती थी, उसको सबसे पहले अपने मार्ग से उन्होंने बाहर निकाल फेंका. ऐसे सब ही दबंग, चिल्लाकर जबाब देने वाले और एक प्रकार से सच्चाई के पथ पर चलने वाले जो लोग थे, उनका तबादला करके दूर-दराज के गाँवों और तहसीलों में भेज दिया और उनके स्थान पर अपनी ही मूल जाति और अपने ही नाते-रिश्तेदारों को अपने ही कैम्पस में लाकर रख लिया. सचमुच में इसी को कूटिनीति कहते हैं. इसी कूटिनीति को दूसरे शब्दों में सलीबिया चर्च नीति भी कहा जाता है. राजनीति में जब भी कोई नई सरकार बनती है, तो वह भी इसी कूटिनीति का दुर्पयोग करती है. सबसे पहले वह अपने आस-पास का वातावरण सुरक्षित बनाती है. इसलिए यदि राज साहब ने भी अपना यही हथकंडा अपनाया है तो उनको दोष देना ठीक नहीं होगा.लेकिन, इस रणनीति में हर किसी से कहीं-न-कहीं चूक हो ही जाती है. राज साहब भी गच्ची खा चुके थे. हानि पहुंचाने वाले लोगों को बाहर करने और अपने भले के लिए लाने वालों के चक्कर में राज साहब ने एक ऐसे इंसान को अपने पास बुला लिया था जो आरंभ से लेकर अंत तक अहिंसावादी, समाजवादी और ईसाइयों में बेहद धर्मी स्वभाव का था. चूंकि, डलियागंज की मसीही ईसाई बस्ती की संख्या अधिक बड़ी थी इसलिए वहां के चर्च के कामों के लिए दो पास्टरों की आवश्यकता थी. पादरी दीनबन्धु को राज साहब ने इसी कारण यहाँ बुलवा लिया था. इस प्रकार से अब इस मसीही समाज की बस्ती में बाकायदा दो पादरी या प्रचारक थे और दोनों ही को बाकायदा चर्च और प्रचार के लिए बराबर से काम बाँट दिया गया था.मगर जैसा कि, राज साहब ने दीनबन्धु के लिए सोचा हुआ था, वह उनकी विचारधारा के हिसाब से बिलकुल ही उलटा निकला. दीनबन्धु और राज साहब के विचारों में ज़मीन और आसमान की विभिन्नता थी. जहां राज साहब समय और परिस्थिति को देखकर समझौता किया करते थे, वही दीनबन्धु समझौता न करके ठोस और सटीक निर्णय लिया करते थे. अर्थात झूठ-का-झूठ और पानी-का-पानी वाली उनकी नीति थी. ऐसी नीति और विचारों से राज साहब की दाल कहाँ इस खारे समुन्द्र के पानी में गलने वाली थी? जिस दिन राज साहब यह समझ सके उसी दिन से उन्होंने दीनबन्धु को मित्रों की अपनी किताबी सूची से निकाल दिया था. दूसरी तरफ वे दीनबन्धु से अब सतर्क भी रहने लगे थे. फिर सतर्क और होशियार होते भी क्यों नहीं? ऐसे मुंहफट आदमी का क्या भरोसा जो खुलेआम बोला करता है? अंग्रेज तो यूँ भी कानों के कच्चे होते ही हैं, ज़रा भी उनके कानों में किसी भी हेरा-फेरी की अगर बात पहुंची भी तो उनकी तो नौकरी भी चली जायेगी.इतना सब कुछ होने-गुजरने के बाद और भविष्य की  आगे आनेवाली की किसी भी विषम परिस्थिति से बचने के लिए उन्होंने वही किया जो वे कर सकते थे. सबसे पहले उन्होंने अपनी मूल जाति के लोगों को डलियागंज की बस्ती में बसाना आरंभ कर दिया. एक प्रकार से उन्होंने अपने ही मूल गाँव के ईसाइयों को यहाँ रहने को मकान दिया. नौकरी वालों को छोटी-मोटी नौकरियां देकर अपने ही कंपाउंड में बसा लिया. केवल यही सोचकर कि, अगर कोई ऐसी-वैसी बात हुई भी तो उनका बहुमत ही उनके साथ-साथ खड़ा हो सकेगा.राज साहब ने ऐसा कर तो लिया मगर इसके साथ ही एक अन्य नई परिस्थिति से उनको सामना करना पड़ गया. जिन लोगों ने इस मसीही कंपाउंड में बसाया था, वे सब मूल रूप से मेहतर और भंगी जाति से आते थे. हांलाकि, मसीहियत में जो भी एक बार आ गया वह केवल मसीही ही कहलाता है. उसकी मूल जाति और धंधों से फिर कोई भी लेना-देना नहीं होता है. यह बात और विश्वास ईसाई समुदाय में माना जाता है और विशवास भी किया जाता है. मगर, फिर भी बाहर के गैर-मसीहियों को कौन समझाये? विशेषकर जिन्होंने ऐसे ईसाइयों को अपने पुराने काम-धंधों और समाज में रहते देखा है. सो इन सब बातों का प्रभाव ऐसा पड़ा कि, मूल रूप से हरिजन जाति के लोगों को जब अन्य साधारण और स्थानीय लोगों ने ईसाई बनकर रहते देखा तब भी वे उनको इस नए धर्म और जाति 'ईसाई' का दर्जा नहीं दे सके. नतीजा ये हुआ कि, थोड़े ही दिनों में डलियागंज की ईसाई बस्ती अब मेहतरों  के नाम 'भंगी बस्ती' के नाम से प्रचलित हो गई.इसके बाद धीरे-धीरे और समय बीता. दिन गुज़रे. मौसम बदले और समय की धारा में पुराने युवाओं का समूह पढ़-लिखकर अपने-अपने काम-धंधों और नौकरी की तलाश में सारे देश में बिखर गया. इसके बाद आई नई और नये युवा होते बच्चों की उत्पत्ति की ज़मात, जो अब तक ना तो पढ़ सकी थी और ना ही किसी काबिल ही हुई थी. जिस माहौल में उनकी परिवरिश हुई थी, जिन लोगों और समाज के साथ वे पले-बढ़े और आगे आये थे, उसके हिसाब से वे केवल चोरी करना, बस्ती की अन्य लड़कियों के साथ गुलछर्रे उड़ाना, दारु पीना, मांस और मदिरा का सेवन करना, मछली पकड़ना, कबूतरों को मारना और खाना, शिकार आदि करने में ही वे काबिल हो सके थे. इसके अतिरिक्त बगैर किसी भी बात के लड़ाई-झगड़ा करना, किसी को भी ज़रा-सी बात पर मार-पीट देना, उनके दैनिक कार्यक्रम की आदत बन चुकी थी. ईसाईयों के अन्य कार्य जैसे दुआ-बन्दगी करना, रविवार को इबादत में जाना, अपने से बड़ों का सम्मान करना जैसी कोई भी नेक आदत से ये आज के युवा कोसों दूर थे. ईसाई बस्तियों के युवाओं की विशेष पहचान होती है कि, वे बदमाशी और दादागिरी अगर करेंगे तो केवल अपनी ही बस्ती और इलाके में. अपने ही लोगों पर चिल्लाना और गुर्राना उनकी सेहत का एक विशेष हिस्सा होता है. ये युवा लड़ाई-झगड़ा अगर करेंगे भी तो केवल अपने ही घर-समाज में. चर्च राजनीति में नेतागिरी, चर्च के पास्टर और प्रीस्ट पर दोष लगाना तो बहुत ही आम और साधारण बात हो चुकी है. इसके अतिरिक्त बगैर पढ़े-लिखे होकर भी, ईसाई लड़कियों के सामने हीरो बनना, सुपरस्टार बने रहना उनका और उनकी हैसियत का एक अलग तरह की सुल्तानियत होता है. खान-पान में शराब, दारु, मुर्ग-मुसल्लम, मटन, कॉफ़ी, सिगरेट यदि इनकी गोष्ठियों में ना हों तो सहाबियत कैसे दिखे? इनके लिए यह सब होना ही है और हमेशा इन्हें यह तो सब करना ही है; बगैर इस बात को सोचे हुए कि, इनके मां-बाप कितनी कठिनाइयों से इनका खर्च उठाते हैं? कोई मेहनत-मजदूरी करके, कोई टीचर बनके, कोई रात-दिन सुसमाचार का प्रचार करके, कोई अस्पतालों में छोटी-मोटी नौकरी करते हुए तो कोई मात्र ड्राईवर बनकरसड़कें नापते हुए कैसे अपने इन महानुभावों का खर्च उठाते हैं, इस कठोर सच्चाई के बारे में इन युवाओं को सोचने की फुर्सत ही कहाँ होती है?    राज साहब इन समस्त बातों के कार्य-कलापों को अपनी आँखों से देखते थे और जैसे अपनी मजबूर दशा के लिए अपना सिर पीटते थे. देखते थे और देखकर चुप रह लेते थे. यह और बात थी कि, अब तक उन्होंने मसीही बस्तियों में दो पीढ़ियों के बच्चों को देख लिया था. पहला समूह वह था जो अंग्रेजों के ज़माने में पैदा हुआ था और पढ़-लिखकर, अपने पैरों पर खड़ा भी हो चुका था. दूसरा समूह वह था जिसने अंग्रेज मिशनरियों के भारत छोड़ने के बाद जन्म लिया था. यही दूसरे समूह की विशेषता थी कि, इनकी परिवरिश अंग्रेज मिशनरियों की अनुपस्थिति में हुई थी. लेकिन, फिर भी उनको इन सारी बातों से सरोकार ही क्या था? उनका काम पहले भी चल रहा था और आज भी वे सक्रिय थे. मिशन से पैसा वे पहले भी कमाते थे और आज भी उनका वही रवैया बना हुआ था. अपनी आदत से मजबूर उनको किसी-न-किसी तरह से पैसे को पकड़े ही रहना था. समाज के मुखिया बनकर भी, मसीही समाज किस दिशा की तरफ जा रहा? वे क्यों इस बारे में सोचते? किसी भी तरह की चिंता करने की तो बात ही और थी. उनका तो आदर्श ही था कि, 'अगर पैसा हाथ में तो दुनिया सामने है, अगर हाथ पैसे से खाली है तो अपना सगा भी पराया है.'  दुनियाबी चलन से राजसाहब की यह बात दूर-दूर तक सही भी थी. ईसाई धर्म और पद्दति में चलने वाले रास्तों में कठिनाइयां हैं, मुसीबतें हैं, ज़िल्लतें हैं, जोखिम हैं, कष्ट हैं. आपके मुख से निवाला तो क्या बदन के कपड़े तक छीन लेंगे, इस कलयुग के लोग. एक दिन सुबह-सुबह के समय जब सूर्य की किरणें पूरी तरह से गर्म भी नहीं होने पाई थीं कि, मगदला को दौरा पड़ गया. वह घर से बाहर निकल कर बेताहाशा इधर-उधर भाग रही थी. उसके तन के कपडे फटे हुए थे. यहाँ तक कि, उसका बदन स्पष्ट दिखाई देता था. उसके घर के लोग उसे जबरन पकड़ने की कोशिश कर रहे थे. तभी भागते हुए मगदला अचानक से बस्ती के एक युवक जो दीनबन्धु का लड़का था, उससे जा टकराई. वह उससे लिपटकर रोते और विनती करते हुए बोलने लगी,

'बंधू, बंधू, मुझे बचा लो. ये लोग मुझे मारते हैं, बांधकर रखते हैं.'

'क्यों करते हैं ऐसा सब' ?

बंधू ने पूछा तो वह बोली,

'ये मुझे गीत नहीं गाने देते हैं. बाइबल नहीं पढ़ने देते हैं. दुआ भी नहीं करने देते हैं.'

'चलो, मैं तुमको यह सब करने दूंगा. तुम बाइबल भी पढ़ना, गीत भी गाना, और दुआ भी करना, लेकिन. . .'

'?' - मगदला ने प्रश्नसूचक दृष्टि से बंधू को देखा तो वह बोला,'पहले ढंग से अपने कपड़े पहनो और वादा करो कि, तुम फिर इनको ना तो फादोगी और ना ही उतारोगी.'तब बंधू ने उसके घर से उसके वस्त्र मंगवा कर पहनाये. बाद में उसे बाइबल दी, जिसे वह वही नीचे लेकर बैठ गई. मगर कुछ ही पलों के बाद उसने बाइबल बंधू को वापस कर दी.  जिसे देखकर बंधू उससे बोला कि,'नहीं पढ़ना है क्या?''पढ़ना तो चाहती हूँ, लेकिन. .  .''लेकिन क्या ?''कोई मुझसे कहता है कि, इसको फाड़ दो.''कौन कहता है?''पता नहीं.' मगदला बोली.तब बंधू ने उससे कहा कि,'अबकी बार अगर कोई फिर से ऐसी बात खे तो उससे बोल देना कि, 'मैं तुम्हारी शिकायत जीसस से कर दूंगी.'बंधू का इतना कहना भर था कि, मगदला की आँखे फिर से लाल होने लगीं. उनकी पुतलियाँ फैल गईं और वह बंधू को घूरती हुई, बस्ती की बाहरी दीवार फलांग कर बाहर खेतों में भाग गई और वहां वह झूमती हुई नाचने, गाने लगी, ' टन-टन-टन घंटा बजेगा . . .'  उसकी इस दयनीय दशा को देखकर बंधू खड़े-खड़े सोचने लगा कि, ' इतनी सुंदर, ऐसी भोली, अपनी बीमार दशा से अनभिज्ञ, अनजान? किसने पाप किया है? इसने? इसके मां-बाप ने? अथवा इसकी किस्मत ने, जो इसे इसकदर कड़ी सज़ा मिली है?   एक दिन बस्ती में रहने वाला ईसा नबी उनके मिशनरी बंगले पर आया और आते ही हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगा. वह उनके पैरों पर पड़ते हुए अपनी रोनी आवाज़ में बोला,'मेरे भाई, मेरे माई-बाप, मेहरबानी से मेरे लड़के को बचा लो. ज़िन्दगी भर आपके पैर धो-धोकर पीता रहूँगा.''?'- राजसाहब अचानक ही, ईसा नबी को इस प्रकार से हाथ जोड़ते और रोते देखकर उसे आश्चर्य से देखने लगे. फिर कुछ भी न समझ कर उन्होंने ईसा नबी से पूछा,'आखिरकार बात क्या है? क्या हुआ है?'तब ईसानबी रोते हुए बोला कि,'मेरे लड़के अखिल को पुलिस ने अपनी हिरासत में ले लिया है.''पुलिस की कस्टडी में?''हां, मेरे मई-बाप.''क्यों उसने क्या किया है?''पुलिस वाले कहते हैं कि, मेरे लड़के पर दो केस लगेगें. राहजनी और मर्डर की कोशिश.''?'- राजसाहब का आश्चर्य से न्मुहं खुला-का-खुला ही रह गया. बड़ी देर तक वे कुछ भी नहीं बोले. मगर देर तक सोचने के बाद उन्होंने ईसा नबी को पहले तो डांट लगाई फिर बोले,'तेरा लड़का आज एक दम से तो राहजनी और लूटपाट नहीं करने लगा होगा. यह तो वह बहुत पहले से कर रहा होगा. क्या तुझे कुछ नहीं मालुम था?''हां, मालुम था मुझे. मैंने उसे मना भी किया था. पर आप तो जानते ही हैं कि, बच्चे सुनते कहां है?''तो ठीक है. जब नहीं सुनते हैं तो, जेल में रहने दे उसे. साल-छः महीने जब जेल की रोटियाँ खायेगा तो सब अक्ल ठिकाने आ जायेगी.'यह कहकर राजसाहब अपना मूंड खराब करते हुए, उसके सामने से उठकर अंदर चले गये.ईसा नबी पहले अपने गाँव में रहता था. उसके पास थोड़ी बहुत पूर्वजों की ज़मीन भी थी. जिससे उसका गुजारा होता था. इसके साथ उसके परिवार के लोग अपना पुश्तैनी काम जिसमें सुआर पालन, मुर्गी पालन और डलियाँ बनाना, तथा शहरों साफ़-सफाई का काम करना, मिला उठाना आदि भी किया करते थे. परन्तु इन सबसे जो अच्छी बात थी, वह यह कि, ईसा नबी देश की आर्मी में भी काम करता था. हांलाकि, वह लड़ाई आदि के लिए सैनिक तो नहीं बना था, परन्तु अन्य दूसरे कामों को करता था. परन्तु जब से वह इस ईसाई बस्ती में आया था, तब से उसने आर्मी की नौकरी छोड़ दी थी. ओने गाँव की ज़मीन भी वह बेच चुका था और यही स्थानीय शहर की किसी कांच की फैक्ट्री में गार्ड की प्राइवेट नौकरी करने लगा था. उसका कहना था कि, आर्मी में छुट्टियां कम मिलती हैं और वह अगर हर समय वहां पर र्हेग्फा तो अपने बच्चों को ना तो पढ़ा पायेगा और ना ही कुछ बना सकेगा. इसी लिए राज साहब को जब यह पता चला कि, ईसा नबी का लड़का पुलिस की गिरफ्त में है तो खुन्न होकर उसके सामने से चले गये थे.फिर किसी तरह राज साहब ईसा नबी के साथ पुलिस थाने गये. वहां जाकर उन्होंने हालात का पता लगाया. ईसा नबी का लड़का अंदर सलाखों में सिर झुकाए हुए बैठा था. पुलिस की मार के कारण उसका सारा बदन जैसे लाल हो चुका था. पुलिस वालों के दारोगा ने स्पष्ट रूप से राज साहब से कह दिया कि, 'आपके लड़के की यह पहली वारदात है. हम भी नहीं चाहते हैं कि, इस पर मर्डर का केस लगाया जाए, क्योंकि जिस इंसान कू इसने अपने साथियों के साथ मारा-पीटा और लूटा था, शुक्र करों अपने ईसामसीह का कि वह लड़का मरा नहीं है. अब चुपचाप से अगर अपने लड़के को बचाना चाहते हो तो अगले चौबीस घंटे में पचास हजार रुपयों का इंतजाम कर लो. वरना कल हमें इसे मजिस्ट्रेट के सामने पेश करके जेल भेज देना होगा.'तब किसी तरह से ईसा नबी ने इधर-उधर से कुछ उधार लेकर, कुछ अपनी पत्नि के गहने बेचकर और कुछ राज साहब से उधार लेकर पैसे जमा किये. राज साहब के कहने पर पुलिस वालों ने पचास के स्थान पर चालीस हजार में लड़के को ईसा नबी के हाथ में सुपुर्द कर दिया, इस चेतावनी के साथ कि, 'अगर फिर तुम्हारा लड़का पकड़ा गया तो या तो सीधा जेल जाएगा, नहीं तो कोई गंभीर अपराध करेगा तो 'एन काउंटर' कर दिया जाएगा.अखिल घर आ गया. कुछ दिन शांत रहा. घर में ही मुंह छिपाए वह रहता था. अगर निकलता भी था तो केवल रात के अँधेरे में. अखिल के अतिरिक्त ईसा नबी की दो लड़कियां भी थीं. वे भी जवान हो चुकी थीं. राज साहब ने समय-समय पर ईसा नबी को यह हिदायत भी दी थी कि, 'जितना भी जल्दी हो सके वह अपनी लड़कियों की शादी करके उनका निबटारा कर दे.'मगर ईसा नबी बेचारा करता तो क्या करता. अखिल के समान उसकी बड़ी लड़की भी हाथ से एक तरह से निकल चुकी थी. वह किसी गैर-मसीही लड़के के प्रेम में फंस गई थी. वह भी छह वीं ज़मात के बाद फिर कभी स्कूल नहीं गई. घर में ही रही. बाज़ार जाना. अपनी मां के साथ घूमना-फिरना और नतीजा यह कि, ईसा नबी का दुःख और चिंता पहले से और भी अधिक बढ़ गई थी. पहले तो उसके लड़के अखिल ने ही उसकी नाक में दम कर रखा था, और अब लड़की भी बिगड़ चुकी थी. बात-बात में  अपने मां-बाप से मुंह चलाना, उनसे अपनी बात मन वाने के लिए ज़िरह करना और देर रात  घर वापस आना, अपने प्रेमी के साथ सरे-आम घूमना-फिरना; कुल मिलाकर उसके जीवन से कोई भी ऐसा संकेत नहीं मिलता था कि, जिससे पता चल सके कि, ये भी उस यीशु मसीह के अनुयायी हैं, जिसने इन्हीं को बचाने के लिए सूली पर अपना लहू बहा दिया?इन सारी बातों ने ईसा नबी की चिंताएं बढ़ा रखी थीं. वह दिन-रात इसी दुःख और फ़िक्र में अंदर-ही-अंदर घुटने लगा. मन-ही-मन अपने शरीर से गलने लगा. इसकदर कि, कुछ ही अरसे में उसका समस्त आर्मी का बना हुआ सुघड़ शरीर कमजोर हो गया.अचानक से एक दिन, ईसा नबी की बड़ी लड़की की हालत खराब हुई और वह धड़ाम से बेहोश होकर गिर गई. तुरंत ही उसको घर के अन्य लोगों ने सभांला. फिर भी वह काफी देर के बाद जब होश में आई तो उसे अस्पताल में दिखाया गया तो पता चला कि, उसे कोई भयंकर जानलेवा बीमारी हो चुकी है. डाक्टरों ने स्पष्ट कह दिया था कि, वह मुश्किल से छ: महीनों की मेहमान है. फिर भी उसका हर तरह से इलाज करवाया गया मगर बच न सकी और अपने दो बच्चों को अनाथ बनाकर चल बसी. ईसा नबी अपनी लाडली बेटी का यह दुःख बर्दाश्त नहीं कर सके और वे भी उसकी मौत के कुछ ही महीनों के पश्चात अपने खुदा के प्यारे हो गये. हां, दुनियां से कूच करने से पूर्व उन्होंने एक काम अच्छा किया था कि, उन्होंने अपनी छोटी पुत्री का विवाह अपने ही गाँव के किसी लड़के से करा दिया था. शायद इसका सबसे बड़ा कारण यही था कि, वे नहीं चाहते थे कि, उनकी बड़ी लड़की के समान, छोटी भी बदचलनी के मार्ग पर चलने लगे.अब ईसा नबी के घर में केवल चार ही प्राणी बचे हुए थे. उनकी विधवा पत्नी, उनका लड़का अखिल और उनके दो पोता और पोती. एक साथ दो लोगों की अर्थी निकलने के पश्चात, ईसा नबी का घर तो जैसे कंगाल हो चुका था. कमाई का कोई बड़ा साधन भी नहीं था. ऊपर से अपने नादान दोनों पोता और पोती को भी वे अकेले अपनी उस कमाई से पल रही थीं जो उन्हें राज साहब के घर में रोटियाँ बनाने से मिलती थी. लड़का अखिल पहले से और भी अधिक बिगड़ चुका था. उसे शराब पीने से ही फुर्सत नहीं थी. घर भी वह कभी आता था तो कभी बिलकुल भी नहीं. बेचारी अखिल की मां क्या करतीं? जैसे भी हो वे गाड़ी खींच रही थीं. उनके दोनों पोता और पोती को उनके झूठे बने दामाद ने भी नहीं पूछा था.ईसा नबी के पड़ौस में रहने वाले पीला बाबू थे. उनकी एक लड़की और दो लड़के थे. एक बार गाँव में उन्हें पीलिया (जोइंडिक्स) की बीमारी हो गई थी, जिसमें उनका सारा शरीर पीले रंग के समान दिखने लगा था. तब से उनको सारा गाँव 'पीला' कहकर संबोधित करने लगा था. लेकिन, वास्तव में उनका नाम पग बाबू था.पीला बाबू जब मिशन में आये थे तो उन्हें कोठी, कंपाउंड और चर्च इमारत की चौकीदारी करने के लिए अंग्रेज मिशनरी ने रख लिया था. बाद में कई वर्षों के बाद पीला बाबू ने भी ईसाई धर्म अपना लिया था. तब मिशन में रहते हुए इनकी संतानों में दो लड़कों ने और जन्म लिया था. इस तरह से पीला बाबू का परिवार अपने तीन बच्चों के साथ पूर्ण हो चुका था. अपनी सबसे बड़ी लड़की को वे अपने साथ लेकर आये थे.कहने को तो पीला बाबू मिशन के कारगुजार थे और उसी की नौकरी भी करते थे, परन्तु राज साहब की शान-ओ-शौकत तथा साहबी स्वभाव के कारण उनका भी खानसामा और रसोइये का काम करने लगे थे. वे राज साहब के लिए बाजार जाते, सब्जी और मांस, मछली खरीदते. इतना सब करने के बावजूद पीला बाबू को राज साहब के यहाँ से अतिरिक्त भोजन-वस्तुएं भी मिल जाया करती थीं. पीला बाबू को राज साहब के यहाँ काम करने से, उनकी जी-हजूरी करने से ठाट का वह साहबी खाना मिलता था जो अच्छा-खासा माध्यम वर्ग का एक आम इंसान नौकरी करने वाला हर दिन नहीं खा सकता था. ऊपर से राज साहब का अतिरिक्त हाथ उनके सिर पर था, यही कारण था कि, साहबी पीला साहब के रहन-सहन में भी झलकने लगी थी. वे जब भी अपनी पतली मूंछों पर तेल लगाकर, ताव देते हुए, अपने हाथ में लाठी लेकर जब भी निकलते थे लगता था कि, जंगल का राजा शेर अपने भ्रमण को निकला है. फिर तो मजाल है कि, डलियागंज का कोई भी जन उनके सामने से बगैर सलाम किये हुए निकल भर जाए.लेकिन ऐसा कब तक चलता? तानाशाह हो या फिर कोई भी रंक. कहते हैं कि, घूरे के भी दिन बदल जाते हैं. मिशन का काम बंद करके मिशनरी जो चले गये थे, उनकी तरफ से अब विदेशी सहायता आनी पूरी तरह से बंद हो गई. इस विदेशी पैसे का बंद होने का प्रभाव सब ही पड़ा था. पीला बाबू की नौकरी चली गई. राज साहब की भी जेब कट गई. वे भी प्रभावहीन की तरह एक कमजोर आदमी के समान घर में बैठ गये और डलियागंज की इस मसीही बस्ती में मिशन के नाम पर जो भी सम्पत्ति बची रह गई थी, उस पर अपने आप वे अधिकार कर बैठे. मारे गये थे तो सामान्य कर्मचारी, कारगुजार पास्टर और प्रचारक, ड्राईवर, माली आदि.पीला बाबू क्या करते? वे कोई दूसरा काम ढूँढने लगे. इस बाबत उन्होंने दीनबन्धु से बात की तो उन्होंने सरकारी एक्साइज विभाग में एक जान-पहचान वाले के द्वारा हेल्पर की नौकरी दैनिक रूप से लगवा दी. खुद दीनबन्धु एक भट्टे पर मुनीमगीरी का काम करने लगे थे. अधिकाँश ईसाई लोग बेरोजगार हो चुके थे. इस बेरोजगारी का असर एक तरह से सब पर ही नज़र आने लगा था. सबसे पहले समस्त बस्ती में एक अजीब से सन्नाटे के साथ लोगों की पसरी हुई पीड़ा दिखाई देने लगी थी. हीरो के समान दिखने वाले युवागण नज़र झुकाकर बात करते थे. तब इस दशा में कोई मुर्गियां और अंडे बेचता था तो कोई बकरियां चराता था. जो कुछ भी नहीं करता था वह मसीही बस्ती में मुर्गियां, बकरी, कपड़े आदि की चोरियां करके ही अपना काम चला लेता था.फिर कुछ ही दिनों में सारी मसीही बस्ती का जैसे सारा नक्शा ही बदल गया. समय की ऐसी गाज गिरी कि, पीला राम के दोनों लड़के कुछ ही महीनों के अंतर में खुदा के प्यारे हो गये. बड़ा वाला इश्क और दोस्ती में राज साहब के लड़के साथ एक दुर्घटना में मारा गया और छोटा वाला अपने संकीर्ण विचारों की इबादत में. वह इतना संकीर्ण विचारों का अंधभक्त था कि, अगर वह घर से किसी काम से बाहर निकलता तो सारे दिन वह पानी भी न पीकर घर आकर ही पानी पीता था, क्योंकि उसकी मान्यता थी कि, बाहर का खाना खाने से, पानी पीने से संक्रमण हो जाता है. सो अपने दोनों युवा लड़कों के कूच करने के कारण पीला बाबू और उनकी पत्नी इस दुःख को बर्दाश्त नहीं कर सके और वे भी कुछ ही दिनों में चल बसे.पीला बाबू की बगल में एक अन्य राज साहब के दोस्त रहते थे. उनका नाम दाना मसीह था. इन्हें भी राज साहब ने अपने समूह की बढ़ोतरी और मजबूती बढ़ाने की मंशा से इस बस्ती में जगह दी थी. यूँ तो मिशन में दाना मसीह बच्चों को मदरसा जैसी ईसाई धार्मिक शिक्षा के साथ सामान्य शिक्षा भी पढ़ाते थे, इसलिए उनका नाम उस्ताद पड़ चुका था. सारे लोग उन्हें उनके वास्तविक नाम से कम बल्कि 'उस्ताद जी' के नाम से अधिक जानते थे. फिर भी बस्ती के कुछ मजाकिया और उपहास उड़ाने वाले लड़कों ने उनका अपनी तरफ से दूसरा नाम दे रखा था. वे सब उनको उस्ताद जी न कहकर 'पतरा' कहकर आपस में बात किया करते थे. स्वास्थ्य के हिसाब से वे इतने अधिक दुबले-पतले और कमजोर थे कि, सायकिल चलाते समय अगर वायु उनके विरुद्ध बहती थी तो वे सायकिल के पैडल तक नहीं चला पाते थे और इस परिस्थिति में वे सायकिल को हाथ से थामे हुए, पैदल ही घर आते थे. उस्ताद जी का अपने परिवार की रोज़ी-रोटी चलाने का मूल काम अपना एक छोटा-सा स्कूल ईसाई बच्चों के लिये चलाना होता था. उनके इसी कार्य के लिए अंग्रेज मिशनरियों ने उन्हें रखा हुआ था और उनके रहने आदि के लिए, जैसा कि, सबको मिलता था, उन्हें भी घर, पानी, आदि की अन्य सुविधाएं दे रखी थीं. वेतन के नाम पर भी मिशन वालों का एक ही रेट था; पचास से कम नहीं और सौ से अधिक नहीं. उस्ताद जी को भी ऐसा ही वेतन मिलता था. फिर भी उस्ताद जी का इस मिशन की नौकरी से अधिक महत्वपूर्ण दूसरा काम भी था. उनके इस दूसरे काम में उन्हें केवल हर तरफ से मसीही परिवारों की अच्छी-बुरी खबरें जमा करके, राज साहब के यहाँ तक पहुंचाना भर था. उन्हें अपने इस काम की क्या तनखा मिलती थी और वे इस चुगलखोरी जैसी अपनी आदत से कितना कमा लेते थे, यह तो वे ही बखूबी जानते होंगे. हो सकता है कि, मात्र एक प्याला चाय साहबों के घर बैठकर पीने से उनको और उनकी आत्मा को शान्ति मिल जाती हो? उनकी इस आदत के कारण इस मसीही बस्ती में उनके नाम का एक दूसरा टाइटल भी उन्हें मिल चुका था. सारे लोग उनको 'नारद मुनि' के नाम से भी जानते थे.  एक कहावत है कि,  'खरबूजे को देखकर खरबूजा अपना रंग बदलता है.' जब डलियागंज की समस्त ईसाई बस्ती का सारा माहौल ही बिगड़ा हुआ था, युवा बच्चे कुछ भी बनने से अधिक बिगड़ रहे थे, वे ऊपर उठने से अधिक नीचे ही खिसक रहे थे तो उस्ताद जी की औलाद पीछे क्यों रह जाती? उस्ताद जी ने अपने जीवन में दो बार शादियाँ की थीं. पहली पत्नि के स्वर्ग सिधारने के बाद वे अपने दो लड़कों के साथ विधुर हो चुके थे. उनकी दूसरी पत्नि भी अपनी एक लड़की के साथ आई थी. दूसरे विवाह के पश्चात उस्ताद जी के यहाँ दो और लड़कियों ने जन्म लिया था. इस प्रकार से उनके पास कुल पांच संताने थीं. जिनमें तीन लड़कियां और दो लड़के थे.अगर देखा जाए तो उस्ताद जी को अपनी संतानों से भी कोई ठीक राहत नहीं मिल सकी थी. उनका बड़ा लड़का इंटर के बाद कॉलेज तो गया, पर स्नातक कभी नहीं हो सका था. दूसरे लड़के ने आठवीं ज़मात के बाद ही अपनी पढ़ाई की गाड़ी में ब्रेक लगा दिया था. बड़ी लड़की हाई स्कूल के बाद नर्स बन गई थी और अपना विवाह करके एक प्रकार से परिवार से किनारा कर चुकी थी. उस्ताद जी ने अपने जीवन में ही अपनेर बड़े लड़के की अर्थी देख ली थी. बाद में उनके स्वर्गवास के पश्चात उनका छोटा लड़का भी दुनिया छोड़ गया था. शराब की लत ने उसे जीने नहीं दिया था. उनकी सबसे छोटी लड़की ने जरूर प्यार-मुहब्बत और मजनू-रांझे के खेल खेलने आरंभ किये थे, और जब गैर-मसीही आवारा लड़के उस्ताद जी के घर के चारों तरफ चक्कर लगाने लगे तो उन्होंने उसका ब्याह कर दिया था.                सो उस्ताद जी, किसी तरह से उन बदनामियों से खुद को बचा तो लगये जिन बदनामियों ने ईसा नबी को समस्त मसीही बस्ती में कभी हेय दृष्टि से देखा था. एक दिन अपनी उम्र पुरी करके उस्ताद जी भी अपने पूर्वजों में सदा के लिए सो गये. फिर उनकी आँख बंद होते ही, उस्ताद जी के साथ उनको मज़ाक बनाने, उनकी नकलें उतारने और उपहास उड़ाने के वे समस्त किस्से-कहानियाँ भी स्वत: ही समाप्त हो गये, जिनको लेकर बस्ती के युवा भाई लोग हंस-हंसकर अपना समय काट लिया करते थे.एक बार मगदला युवा लड़कों और लड़कियों के सन्डे  स्कूल में समय से अपनी बाइबल लेकर पहुँच गई. उसे देखकर पास्टर दीनबन्धु ने उसे दूसरी लड़की की बगल में बैठने को बोल दिया. फिर काफी देर तक मगदला शांत बैठी रही. वह चुपचाप सब कुछ सुनती रही. तभी अचानक से उसे न जाने क्या हुआ कि, वह तुरंत अपने स्थान पर खड़ी हो गई. यूँ उसको खड़ी देख कर पास्टर दीनबन्धु ने उससे पूछा. वे बोले,'मगदला बेटा, कोई तकलीफ है तुमको?''हां है.' मगदला बोली तो दीनबन्धु ने उससे पूछा,'क्या बात है और क्या परेशानी है तुमको?''ये रीना मुझको घूरती है और मेरी तरफ हिकारत से  देखते हुए अपनी नाक बंद करती है. जैसे मेरे जिस्म से बदबू आती है.''?'- पास्टर दीनबंधू तुरंत समझ गये. एक लड़की, अपने दिमाग से बेखबर, छः-छ: महीनों तक नहाती नहीं है तो उसके बदन से बदबू आना लाजमी है. वे मामले की नजाकत को भांपते हुए मगदला से बोले कि,'तो यहाँ आ जाओ मेरे पास. यहाँ बैठ लो.' पास्टर दीनबन्धु ने कहा तो वह बोली,'जी नहीं. मैं आपके पास नहीं बैठ सकती.''क्यों?''मैं बहुत गन्दी लड़की हूँ, और आप पास्टर हैं. यीशु मसीह के सेवक. मैं आपके पास नहीं बैठुंगी.''तो फिर कहाँ बैठना चाहोगी?''उधर. बंधू के पास.''मेरे पास? क्या मैं भी गंदा लड़का हूँ?'बंधू अपने स्थान पर ही खड़ा होकर मगदला को मानो डांटने लगा.'तब वह बोली,'मुझे क्यों चिल्लाते हो? मैंने कब कहा है कि, तुम गंदे लड़के हो. तुम तो बहुत अच्छे हो.''तो फिर आजा बैठ जा मेरे पास. लेकिन, कोई भी हरकत मत करना.'तब मगदला बड़ी प्रसन्नता के साथ बंधू के पास आकर बैठ गई.  मगदला बहुत खामोशी के साथ , पूरे समय तक सन्डे स्कूल की कक्षा में बड़ी ही शालीनता के साथ बैठी रही. इस प्रकार कि, कोई भी उसे देखकर यह नहीं कह सकता था कि, यह वही पागल अपने दिमाग से अस्त-व्यस्त लड़की है जो किसी भी समय दौरा पड़ने पर ऊल-जुलूल हरकतें करने लगती है और अपने युवा बदन के वस्त्र फाड़ने-नोचने लगती है.अपने समय पर सन्डे-स्कूल समाप्त हुआ. पास्टर दीनबन्धु ने प्रार्थना करके और आशीष देकर सब ही युवा बच्चों को विदा किया. बंधू भी अपने घर आया परन्तु, मगदला ने उसका पीछा नहीं छोड़ा. वह उसके साथ-साथ ही उसके घर तक चली आई.फिर जब बहुत देर तक वह नहीं गई तो बंधू ने उससे पूछा कि,'तुम्हें क्या अपने घर नहीं जाना है?''?'- यह सुनके मगदला बंधू का मुख बड़ी गंभीरता से देखने लगी. तब बंधू ने उससे फिर वही सवाल किया. बोला,'नहीं जाना है?''हां, जाना तो है, लेकिन. . .''क्या?''मुझे पता चला है कि, आज शाम की गाड़ी से तुम जा रहे हो. अब तुम हॉस्टल में रह कर पढ़ा करोगे''हां. लेकिन इसमें तुम्हें फ़िक्र करने की क्या जरूरत है? और फिर मैं कोई हमेशा के लिए थोड़ी ही जा रहा हूँ. छुट्टियों में आता-जाता रहूँगा.''तुम यहाँ से भी तो पढ़ सकते हो. वहां क्यों जा रहे हो?''यह मिशन वालों का प्रोग्राम है. हॉस्टल से रहकर पढ़ने में वहां पर फीस, किताबें-कोपियाँ, रहने आदि का कोई खर्चा मेरे पापा को नहीं देना पड़ेगा. यहाँ रहकर पढ़ूंगा तो पापा मेरे ये खर्चा नहीं उठा सकेंगे.''मैं नहीं मानती. तुम सब लोग अच्छे-अच्छे, महंगे कपड़े पहनते हो. बढ़िया-बढ़िया, मज़ेदार स्वादिष्ट खाना खाते हो, खूब ठाट-वाट से रहते हो और घर से रहकर पढ़ नहीं सकते हो?''मगदला तुम मेरी बात नहीं समझ पाओगी?'बंधू ने कहा तो वह असहज होते हुए बोली,'ठीक है, नहीं समझती हूँ, मगर मैं तुम्हें नहीं जाने दूंगी.''?'- बंधू मगदला के बिगड़ते मूंड को देख कर समझ गया कि अब अगर उसने आगे कुछ और कहा तो इसका मस्तिष्क उस दबाब को सहन नहीं कर पायेगा. हो सकता है कि, इस पर फिर से दौरा पड़ जाएगा. यही सोचकर उसने उसे नर्मी से अपनी कोमल आवाज़ में कहा,'अच्छा ! ठीक है. अभी फिलहाल तो नहीं जा रहा हूँ. जब जाऊँगा तब रोक लेना.''हां, यह ठीक है.' मगदला जैसे बहुत खुश होकर बोली तो बंधू ने उसे फिर से याद दिलाया. वह बोला,तो अब तो जाओ. मुझे भी बहुत सारे काम करने हैं.'तग मगदला जाने लगी. फिर भी जाते-जाते वह बंधू को पीछे मुड़-मुड़ देखती जाती थी.चार बजे की रेल से बंधू को जाना था. उसने तीन बजे ही अपना सामान पैक कर लिया. एक रिक्शे वाले को बुलवाया और उसमें अपना सामान रखने लगा, मगर अवसर की तलाश में कहीं छुपी बैठी मगदला न जाने कहाँ से आ गई और बंधू पर क्रोधित हुए उससे बोली,'मैंने तुमको मना किया था कि, नहीं जाना, मगर तुम नहीं माने?अब देखती हूँ कि, कैसे मुझे छोड़कर जाते हो?'यह कहते हुए वह बंधू का सारा सामान उठाकर वापस उसके घर में रखने लगी. यह सब देखकर बंधू असमंजस में पड़ गया. वह जानता था कि, कोई भी जबरदस्ती करना इस लड़की के साथ, किसी बड़े बवाल को आमंत्रित करना होगा. वह चुपचाप खड़े-खड़े मगदला की एक-एक हरकत को देखता रहा. फिर जब मगदला ने बंधू का सारा सामान उसके घर के अंदर रख दिया तो वह बाहर के दरवाज़े को बंद करके उसकी चौखट पर बाहर ही पालती मार कर बैठ गई और वहीं से बैठे-बैठे ही बंधू से बोली,'अब देखती हूँ कि, कैसे मुझे छोडकर जाते हो?'यह सब तमाशा देखकर बंधू को वहां खड़े लोगों ने चुचाप सलाह दी और बोले,'इसके सामने तो तुम्हारा जाना मुमकिन नहीं है. ऐसा करो कि, चुपचाप से तुम रात की गाड़ी से निकल जाना.'बंधू को तब यही करना भी पड़ा. वह रात में ही चुपचाप से स्टेशन पहुँच गया और चला गया. दूसरे दिन जब मगदला बंधू के घर आई तो उसने सबसे ही बंधू के बारे में पूछना आरंभ कर दिया. लेकिन किसी ने भी उसको कोई भी माकूल उत्तर नहीं दिया. तब वह चिंतित होते हुए उसे सारी मसीही बस्ती से लेकर, बाहर सड़क पर, बस्ती के आस-पास के तमाम क्षेत्रों में ढूँढती फिरी. मगर जब वह नहीं मिला तो बाद में निराश होकर रह गई और फिर से अपनी वही पागलों जैसी हरकतें करने लगी. कंपाउंड के बच्चे उस पर पत्थर मारते, उसे छेड़ते, परेशान करते तो वह उन्हें डराने के लिए अपना भयानक चेहरा बनाती, अपने वस्त्र फाड़ती, उन्हें अपने बदन से उतारती, खुद को नोचती और चिल्लाती हुई घंटे के पास जाकर उसे बजाने लगती और गाती, 'टन-टन-टन घंटा बजेगा.'    डलियागंज की इस मसीही बस्ती में एक अन्य महानुभाव भी रहा करते थे. यूँ तो उनका नाम रॉबिन दास था, परन्तु शिकारी मन-प्रवृत्ति के कारण सारे कंपाउंड के लोग उनको 'रॉबिन हुड' कहा करते थे. 'तीर-कमान' के स्थान पर गुलेल चलाया करते थे. अभी तक अकेले थे और शादी-ब्याह से कोसों दूर थे. हांलाकि, बहुत सी मसीही लड़कियों ने उन्हें अपने जाल में घेरने की कोशिशें तो बहुत की थीं, पर वे किसी भी प्रकार से इस चंगुल में आ नहीं सके. हाई-स्कूल पास कर लिया था और राज साहब के छोटे-से कार्यालय में क्लर्की का काम किया करते थे. शिकार के इसकदर शौकीन थे कि, एक भी रविवार वह शिकार खेलने से नाग़ा नहीं करते थे. इसी कारण कभी-भी रविवार की इबादत में जाते थे. मछलियाँ पकड़ना उनका पेशा नहीं बल्कि शौक था. इतना अधिक कि, शहर के हर एक इलाके की उस जगह का ज्ञान था, जहां से मछलियाँ पकड़ी जा सकती थीं. गुलेल चलाने में उनका निशाना शायद ही चूकता हो. वैसे 'एअर गन' भी उनके पास थी. फिर भी गुलेल और उसके साथ एक-दो, उसक साथ  चलाने वाले चिकने, गोल से पत्थर हमेशा उनकी पेंट की जेब में रहा करते थे. शिकार की कोई भी चिड़िया, जैसे कबूतर, फाख्ताएं, तीतर, लमडोर, जल मुर्गी, डुबकेलिया, उड़ने वाली बत्तख सोना पतारी आदि उनके निशाने से बच नहीं सकती  थी. गुलेल तो उनके पास सदा पेंट में रहती ही थी. इसलिए वे हर दिन कुछ-न-कुछ मार ही लेते थे. जब कभी कुछ नहीं मिलता था तो कुछ नही बे-मतलब की चिड़ियाएँ और कोई भी गिलहरी आदि ही मार कर तसल्ली कर लिया करते थे. जब कभी बड़ी बंदूक का इंतजाम हो जाता था तो वे नीलगाय, हिरन आदि का भी शिकार कर लेते थे. एक बार इस शिकार करने के चक्कर में जेल भी चले गये. उन्हें छः माह की जेल हुई थी. शायद उन्हें यह नहीं मालुम था कि, मोर हमारे देश का राष्ट्रीय पक्षी है. अपने शिकारी शौक में उन्होंने मोर को ही मार दिया. आस-पास के गाँव वालों को पता चला तो गान वालों ने पहले तो उनकी ही हजामत बना डाली. खूब मारा-पीटा, हाथ-पैर मानो तोड़ ही डाले थे. उनकी बंदूक, गुलेल, साथ के जेब में रखे पैसे और हाथ में बंधी घड़ी भी छीन ली और पुलिस को सौंप दिया. मामला कोर्ट में गया और सज़ा हो गई. छः महीने की जेल और दस हजार रूपये जुर्माना भी हुआ. किसी तरह जुर्माने की धनराशि तो भर दी गई और आज भी वे जेल की रोटियाँ ही खा रहे हैं.हांलाकि, पुलिस के किसी दलाल ने उनको और राज साहब को सलाह दी थी कि, पचास हजार रुपयों का इंतजाम चौबीस घंटों के अंदर कर लो तो मामला रफा-दफा करवा देंगे. लेकिन जिसने यह सलाह दी थी उसे शायद यह नहीं मालुम था कि, ईसाइयों के पास इतने हजारों में रूपये कहाँ से आये? ईसाई लोग जितना अधिक मांस, मछली, शिकार करके और घर में पली मुर्गियों को काटकर खाते हैं, उतना कभी-भी खरीदकर नहीं खा पाते हैं. इस हकीकत को वह जानता नहीं था. वह तो मसीही बस्ती के लोगों के वस्त्रों, रहन-सहन और ठाट-बाट, साहबी अकड़ देखकर अपना अंदाजा लगा रहा था. एक समय था जबकि, रॉबिन साहब एक-एक दिन में इतने कबूतर और फाख्ताएं मारकर लाते थे, कि सारे कंपाउंड में उस दिन इन्हीं परिंदों का मांस हरेक परिवार में बनता था और हर स्थान पर परिंदों के पंख और पर हवा में उड़ते दिखाई देते थे. लेकिन रॉबिन साहब के जेल में जाने के पश्चात पुलिस के द्वारा हुई उनकी खिदमत और ज़लालत के पंख सारे शहर में फैली खबर के रूप में उड़ रहे थे. इससे भी अधिक हास्यप्रद बात यह थी कि, जिन लोगों ने रॉबिन साहब के द्वारा कबूतर, मछली और नीलगाय खा-खाकर कभी मज़े मारे थे और पेट पर हाथ रखकर डकारें लीं थीं वही लोग उनका मज़ाक बना रहे थे. कोई अगर भूला-भटका आकर, रॉबिन साहब से मिलने आ जाता था तो लोगों का परोक्ष रूप में यही जबाब रहता था कि, 'वे तो अपनी ससुराल गये हुए हैं.' बंधू अपनी पढ़ाई के लिए दूसरे शहर चला गया था. मगदला पागल तो थी ही, अब और भी आधिक पागल बनी दर-दर भटकती फिर रही थी. कोई भी उसकी इस बारे में मदद नहीं करता था. कंपाउंड की जवां लड़कियां अपने मनोरंजन के लिए उससे सवाल करतीं,'क्यों ढूँढती फिर रही है तू बंधू को? तू क्या प्यार करती है उसे?' तब उत्तर में मगदला जैसे खीजकर उन्हें जबाब दे देती. कहती,'तुझे क्यों चिंता है मेरी? क्या तू फलांने को अपना दिल नहीं दे बैठी? जब देखो तब ही अपने महबूब की बगल में बैठी रहती है, सो कुछ नहीं?'ऐसी बात सुनकर तब उस लड़की का शर्म से मुंह लाल हो जाता था.   डलियागंज की मसीही बस्ती से लगभग तीस किलो मीटर दूर अपने गाँव में राम भक्त नाम के एक जन रहते थे. सरकारी मुलाजिम थे. छोटी जाति के कोटे में आते थे और इसी का लाभ पाकर उनको यह नौकरी भी मिली थी. ईसाई धर्म अपनाने के पश्चात उन्होंने बाकायदा बप्तिस्मा लिया और तभी अपना नाम 'राम भक्त' से बदलकर 'मसीह भक्त' कर लिया था. लेकिन, उनका ये बदला हुआ नाम केवल मसीही समाज और मिशन के कागजों में था, सरकारी फायलों में वे अभी तक राम के भक्त ही थे.मसीह भक्त को एक समय के बाद कायदे से पदोन्नति मिली और वे 'कानूनगो' बन गये थे. यूँ तो उनका मुख्य रूप से काम गाँवों में जो किसानों की ज़मीनें आदि होती थीं, उनका ब्यौरा बनाके रखना होता था. जैसे कि, किसकी कितनी ज़मीन है. उस ज़मीन में कितनी हिस्सेदार हैं, ऐसे तमाम काम वे देखा करते थे. इस नौकरी में उन्हें लाभ भी मिला. लाभ ऐसा कि, उनकी गाँव की ज़मीन पांच बीघा से बढ़कर मात्र पन्द्रह सालों में बीस बीघा हो चुकी थी.कानूनगो बनने के बाद अब मसीह भक्त को शहर की कचहरी में बैठकर कार्यालय में काम करना था. लेकिन अपने गाँव से प्रति दिन तीस किलो मीटर सायकिल चलाके आ पाना बहुत मुश्किल था. वे चर्च सर्विस में तो आते ही थे. धार्मिक भी थे. उन्होंने मिशन अधिकारियों से मिन्नतें की और फिर उनको भी इसी डलियागंज में आखरी खाली मकान किराए पर दे दिया गया. तब वे अपने चार लड़कियों और तीन लड़कों के साथ इस मसीही बस्ती में आकर रहने लगे. अपनी इन सात संतानों से पहले एक लड़की उनकी और भी थी. यह लड़की उनकी पहली पत्नि से जन्मी थी. जब उनकी पहली पत्नि की आकस्मिक मृत्यु हो गई तो गाँव की प्रथा के अनुसार उन्होंने उन्हीं की बहन से शादी कर ली थी. इस प्रकार उनके परिवार में कुल मिलाकर आठ संतानें और दो पति-पत्नि, सब मिलाकर दस लोग थे. बड़ी लड़की की शादी हो चुकी थी, और वह अपने पति के साथ दूसरे शहर में रहती थी. रही इन सात संतानों में आरंभ की तीन लड़कियां बारह वर्ष से ऊपर और बाक़ी की चार दस वर्ष से नीचे थीं.एक दिन मसीह भक्त ने अपनी बड़ी लड़की के विवाह का एलान कर दिया. इसका भी एक कारण था कि, उनके बच्चे मानो पढ़ना ही नहीं चाहते थे. मसीह भक्त ने बहुत कोशिशें की, बहुत प्रयास भी किये तो उनकी एक लड़की को छोड़कर कोई भी स्कूल में नहीं टिका. यही कारण था कि, वे अपनी लड़कियों को अब जल्द-से-जल्द उनके ब्याह करके निबटारा कर देना चाहते थे. मसीह भक्त की सबसे बड़ी कमजोरी थी कि, अपने परिवार में उनकी एक नहीं चलती थी. हरेक अच्छी-बुरी बास्त का निर्णय उनकी पत्नि का अंतिम और ठोस, न टलने वाला एक प्रकार से तुगलकी फरमान होता था. बड़ी लड़की का ब्याह भी मसीह भक्त की पत्नि की पसंद से ही हुआ था. फिर न जाने क्या हुआ कि, इधर लड़की की शादी हुई और उसके एक महीने के बाद ही उनका दामाद जेल चला गया. बाद में पता चला कि, उनका दामाद बहुत पहले ही से पुलिस की फायलों में कई केसों में मुलजिम बना हुआ था.इधर ईसा नबी का लड़का जेल काटकर घर आ गया था. उसके आने के बाद ही डलियागंज में छोटी-मोटी घटनाएँ होने लगीं. लोगों की मुर्गियां-बकरियां गायब हो जाती, चोरियां होना तो आम बात थी. दिनदहाड़े सूखते हुए वस्त्र चोरी होने लगे थे. इसके साथ ही मसीह भक्त के सबसे छोटे लड़के की दोस्ती भी ईसा नबी के जेल काटने वाले लड़के अखिल से हो गई. फिर कुछ दिनों के बाद पता चला कि, मसीही भक्त का यह छोटा लड़का अचानक से गायब हो गया या लापता हो गया. लापता होने बाद वह फिर कभी भी नहीं मिला. लोगों का अनुमान था कि, उसका अपरहण हुआ था और फिरौती में एक बड़ी रकम मसीह भक्त से मांगी जानी थी. मगर इससे पूर्व ही उस लड़के की शायद मौत हो चुकी थी. हो सकता हो कि, फिरौती मांगने वालों ने उसे आवश्यकता से अधिक कष्ट दिए हों?यह सब तो चल ही रहा था. किसी को भी कोई फर्क नहीं पड़ता था. कारण था कि, इस प्रकार घटनाएँ और बारदातें इस ईसाई बस्ती में होना, कोई भी नई बात नहीं थी. लोग तो जैसे इस बिगड़े हुए माहौल के जल में डुबकियां और छलांगे लगाने के आदी हो चुके थे. वे एक कान से सुनते और दूसरे से उड़ा दिया करते.मसीही भक्त के दामाद के जेल जाने से भी किसी को कोई भी फर्क नहीं पड़ा. उलटा उनकी दूसरी लड़की अपने किसी प्रेमी के संग भाग गई और बाद में यह कहकर वापस भी आ गई कि, 'उसने विवाह कर लिया है.' फिर भी वह अपने विवाह के बाद, अपने मायके में रहती थी. उसका पति कभी-कभी उससे मिलने अपनी ससुराल में मसीह भक्त के घर आता-जाता रहता था.उपरोक्त मसीही परिवारों के अतिरिक्त एक अन्य परिवार भी इस बस्ती में रहने के लिए आया था. अपने भगवान में आस्था रखने वाले रघुवीरन राम अपनी पत्नि और तीन लड़कों के साथ यहाँ आये थे. दूसरों के समान उनकी भी वही कहानी है. वे ईसाई बने. अपना नाम बदलकर रघुवीर मसीह रख लिया और डलियागंज के मिशनरी खेतों में काम करने लगे. उन्हें थोड़ा-सा वेतन मिला, बच्चों को निशुल्क शिक्षा मिली, रहने को मकान मिला, साथ में अन्य सुविधाएं भी उपलब्ध हो गई. जीवन जीने के लिए और क्या चाहिए था. रघुवीर मसीह का भी मझला लड़का बंधू के साथ हॉस्टल में पढ़ने के लिए गया था. उससे छोटा लड़के ने पढ़ने से मना कर दिया था. क्योंकि वह अपने परिवार की गरीबी से चिंतित था. इसलिए कोई-न-कोई गोरख-धंधे जैसा काम करके अपने परिवार की मदद करना चाहता था. उसकी सोच अच्छी थी लेकिन फैसला गलत था. चाहिये तो यह था कि, वह पहले अपनी शिक्षा पूरी करता बाद में कुछ बनकर अपने परिवार की मदद करता. उस स्थिति में जबकि, मसीही बच्चों को मिशन की तरफ से शिक्षा निशुल्क प्राप्त करने का प्रावधान था. लेकिन उसने ऐसा नहीं किया. वह निकट के शहर में एक कांच की वस्त्यें बनाने वाली फैक्ट्री में जाकर काम करने लगा. वहाँ वह रात में काम करता और दिन में कहीं भी सड़क आदि के किनारे सो जाता. एक रात काम करते हुए गर्म कांच से शबल उसके पैरों पर गिर गया. उसके पैर बुरी तरह से जल गये थे. डाक्टरों ने इलाज किया मगर इन्फेक्शन लगने के कारण उसके दोनों पैर काटने पड़ गये थे. अब वह अपने घर पर, अपने मां-बाप पर उनकी सारी ज़िन्दगी का कभी-भी समाप्त न होने वाला कोढ़ बनकर बैठा हुआ है. रघुवीर मसीह के बड़े लड़के को मिशन वालों ने अपने एक टेकनीकल स्कूल में भिजवाया और वह वहां से फिटर कास प्रशिक्षण लेकर घर तो आया, लेकिन नौकरी का  बहाना करके घर से चला गया और फिर कभी वापस नहीं आया. बीच वाला लड़का जो बंधू के साथ हॉस्टल में पढ़ने गया था वह भी मात्र तीन महीनों के बाद ही घर वापस आ गया. उसे भी वहां रहकर पढ़ने में मन नहीं लगा.एक दिन जब रघुवीर मसीह जैसे अब मसीही समाज में अपने काम और उसके माहौल से ऊब से गये थे, अपना सब कुछ उठाकर उसी शहर में चले गये जहां पर उनके छोटे लड़के ने कांच फैक्ट्री काम करते हुए अपनी गंवायी थीं. बीच वाला लड़का भी उनके साथ गया और वह वहां पर रिक्शा चलाकर अपना पेट भरने लगा. फ्री में मिलने वाली पढ़ाई-लिखाई उसे रास नहीं आई. पढ़-लिख कर मान-सम्मान का जीवन उसे जीना नहीं था, शायद इसीलिये वह रिक्शा चलाता था? यही दशा रघुवीर मसीह की भी थी. उन्हें भी कायदे का जीवन नहीं जीना था. इसीलिये अब वे अपने पुराने धंधे में लिप्त हो चुके हैं. अरहर की दाल की झाड़ियों से वे डलियाँ, पले और तसले बनाकर तथा जनावर अर्थात सुअर पालन का धंधा और मुर्गिया, बत्तखें और उनके अंडों को भी बेचकर अपना जीवन चलाते हैं. इसे देखकर लगता है कि, अब वे जैसे बहुत प्रसन्न रहते हैं और अपने पुराने पुश्तैनी धंधे से संतुष्ट भी हैं? समय और भी आगे बढ़ा.कितने ही मौसम आये और चले गये. आकाश में उड़ने वाले पक्षियों के पंखों के रंग बदलते, वे कलाबाजियां लगाते और फिर एक समय के लिये वे विलीन भी हो जाते. कुछ ही वर्षों के अंतर में डलियागंज की मसीही बस्ती के रंग ही बदल गये. बंधू को अपनी पढ़ाई के लिए गये हुए एक वर्ष से अधिक हो चुका था. लेकिन वह घर नहीं आया. गर्मी की छुट्टियों में वह अपनी अतिरिक्त पढ़ाई करते हुए उसने वहां पर तीन वर्ष  व्यतीत कर दिए. बाद में इंटर की परीक्षा पास करने के बाद वह आगे की पढ़ाई के लिए दूसरे शहर चला गया. फिर आखिर में जब वह तीन वर्षों के बाद अपने घर डलियागंज आया तो उसे देखकर जैसे सब-कुछ उजड़ा-उजड़ा सा लगा. इन तीन वर्षों में मानो इस मसीही बस्ती कि हुलिया ही बदल चुकी थी. जैसे सारी काया पलट हो चुकी थी.थोड़े से लोग रह गये थे. जो लोग उसके सामने थे और जिन्हें वह छोड़कर गया था, उनमें से कुछ ही लोग उसे मिले थे. बाक़ी के अन्य या तो डलियागंज छोडकर दूसरे इलाकों में जा बसे थे अथवा परलोक सिधार गये थे.राय साहब अब अत्यंत बूढ़े और बहुत कमजोर हो चुके थे. उन्हें देखते ही लगता था कि, वे जैसे अपने पिछले रुतवे और साहबियत के दिन याद कर-करके कोई मातम मना रहे हों? वे अक्सर अपनी पत्नि के साथ चुप और खामोश बैठे नज़र आते थे.ईसा नबी का बिगड़ा हुआ लड़का अखिल जब देखो तब ही जेल चला जाता था. सुनने में आया था कि, इस बार वह एक लंबे समय के लिए जेल में बंद कर दिया गया था. इसका कारण था कि, एक बार जब वह अपनी बूढ़ी मां से पैसे मांग रहा था और उसके न देने पर वह अपनी ही मां को घसीटता हुआ ले जाकर बाहर किसी कुएं में फेंकने जा रहा था. परन्तु एन वक्त पर लोगों ने उसकी मां को बचा लिया था. उसके बाद उसकी मां अपनी छोटी लड़की के पास चली गई और फिर कभी वापस नहीं आई. अखिल इसी कारण जेल में दोबारा बंद कर दिया गया. आज उसके घर में कोई भी रहने वाला नहीं है. मिशन वालों ने उसके घर में अपना ताला डाल दिया है. मज़े की बात देखो कि, उस ताले पड़े घर में जिसमें शायद कोई चिड़िया भी पंख नहीं मारती होगी, किसी ने रात में पीछे की दीवार में होल करके चोरी करनी चाही थी.मसीह भक्त की पत्नि की मृत्यु हो चुकी थी, मगर उनको ईसाइयों के कब्रिस्थान में दफन की की इजाजत नहीं मिली थी. इसका भी एक कारण था कि, उन्होंने ईसाई बनने के लिए बाकायदा बप्तिस्मा नहीं लिया था. तब इस स्थिति में मसीह भक्त ने अपने गाँव के खेत में दफन की रीति को पूरा किया था. इसके अतिरिक्त मसीह भक्त के बड़े लड़के का भी स्वर्गवास हो गया था. परन्तु उसके दफन के समय यह बात भी उजागर हुई थी कि, उसने अपनी एक दूसरी शादी भी चुपचाप से कर ली थी.इन सब बातों के अलावा अब इस मसीही बस्ती में अजीब-सी मनहूसियत छाई रहती थी. एक समय था जबकि, यहाँ पर युवा होती लड़कियों की चुहलबाजियाँ, उनकी आपस में बातों की खिलखिलाहटें और चहल-पहल ही दिखाई देती थी. लेकिन अब ऐसा कुछ भी नहीं बचा था. क्योंकि, वे अब कहीं भी दिखाई नहीं देती थीं. सब कुछ जैसे सूना-सूना और सन्नाटों में जाकर मानो लुप्त होने की कगार पर आ चुका था.बंधू को उपरोक्त खबरें तो वहां के लोगों ने बता ही दी थीं. मगर उपरोक्त बातों से कहीं बहुत अलग उसकी निगाहें अभी-भी जैस उस पागल लड़की मगदला को ढूँढ़ लेना चाहती थीं जिसने की वर्ष पूर्व उसे यहाँ से जाने के लिए मना किया था और वह उसे जाने भी नहीं दे रही थी. तब वह उसको किस तरह से चकमा देकर चुपचाप चला गया था. फिर जब उससे नहीं रहा गया तो बंधू ने मगदला के बारे में पूछ ही लिया. फिर जब उसे उसके बारे में असलियत मालुम पड़ी तो बंधू को लगा कि जैसे उसके पैरों से नीचे ज़मीन ही खिसक गई है.हुआ यह था कि, एक दिन जब मगदला को दौरा पड़ा और इस दौरे में जब वह अपनी पागलों जैसी हरकतें करने लगी थी तो उसे लोगों ने पकड़ना चाह था. परन्तु वह सबसे बचती हुई दीवार फांदकर खेतों में चली गई थी. उस दिन के बाद से फिर वह कभी भी लौटकर नहीं आई. नहीं आई तो जब उसे ढूंढा गया तो उसकी लाश किसी पुराने ईंट के भट्टे के अंदर क्षत-विक्षित दशा में मिली थी. लाश देखकर कोई यह तो नहीं बता था कि, सचमुच उसके क्या घटित हुआ था, क्योंकि मरने के बाद उसके जिस्म को लगता था कि जैसे रात के खूंखार जंगली जानवरों ने भी नोचा-खाया था. बाद में उसकी लाश के सभी टुकड़ों को एकत्रित करके बाकायदा उसके दफ़न की रीति व अंतिम संस्कार वहीं ईसाइयों के कब्रिस्थान में कर दिया गा था.   बंधू ने जब मगदला के बारे में उसके जीवन का इतने अधिक दुखित हश्र के बारे में सुना तो उसकी आत्मा दिल की गहराइयों तक हिल गई. इतना दुखद अंत? ऐसा कठोर और मर्मान्तक उस निर्दोष लड़की के जीवन का अंत? वह तो कभी भूल से सपने में भी नहीं सोच सकता था. वह स्दोचने लगास कि, 'भले ही चाहे डलियागंज समस्त ईसाई मगदला को पागल समझते थे, पर वह तो उसे कहीं से भी पागल नहीं लगती थी. उससे जब भी वह या कोई भी प्यार-मुहब्बत से बात करता था तो वह भी एक सामान्य लड़की के समान बातें करने लगती थी. उसका मन-मस्तिष्क, कितने अच्छे ढंग से काम करने लगा था. अगर इस मसीही बस्ती के लोग चाहते तो उसका इलाज कराते, उसका ध्यान रखते, तो हो सकता था कि वह बिलकुल अच्छी हो जाती? वह यहाँ से मगदला को अकेला और तन्हा छोड़कर चला गया था, अगर नहीं जाता तो शायद उसके मस्तिष्क का संतुलन सदा के लिए ठीक भी हो जाता?'इंसान जब किसी भी कारण से नीचे गिर जाता है और जब उसे यह एहसास हो जाता है कि, अब वह वहां से कभी ऊपर उठ नहीं सकेगा तब उसका वह घमंड और विश्वास भी फीका पड़ जाता है जिसके आगे वह इंसान होकर भी इंसानों की कदर नहीं कर सका था. मगदला के लिए वह बहुत चाहते हुए भी कुछ नहीं कर सका था, वह समझ चुका था कि, अपनी जिस पहचान को बनाने के लिए वह डलियागंज छोड़कर चला गया था उसकी वह पहचान मगदला की मृत्यु के आगे इतनी अधिक फीकी और महत्वहीन हो चुकी है कि, आज उसको अपना बजूद भी कहीं नज़र नहीं आ रहा था.मनुष्य अपना काम कराने, अपना बोझ उठाने और अपनी जरूरत पूरी करने के लिए चाहे किसी का भी सहारा ले सकता है, पर अपनी बीमारी का दर्द सहने और मरने के लिए वह खुद के अतिरिक्त किसी अन्य को अपने लिए इस्तेमाल नहीं कर सकता है. मगदला बीमार थी. दुखी थी. पागल थी. लोगों ने उसको जिस हालात में देखा और पाया, उसी प्रकार से उसके साथ व्यवहार भी किया था.  जब इस संसार से चली गई तो उसने यह साबित कर दिया था कि, दुनिया की तमाम भौतिक वस्तुएं खो जाने पर, नष्ट हो जाने के बाद एक बार फिर से मिल सकती हैं, लेकिन इंसान की ज़िन्दगी मरने के बाद कभी-भी दोबारा नहीं मिला करती है जबकि, इंसान का शरीर भी जीवन के रूप में भौतिक ही होता है. फिर भी ईसाई समाज यह विश्वास करता है, कि मानव शारीरिक जीवन समाप्त होने के पश्चात भी एक अनन्तकाल का जीवन और भी है, लेकिन वह जीवन आत्मिक है, भौतिक नहीं.बंधू ने जब इस प्रकार से सोचा तो वह खुद ही एक अपराध बोध की भावना से ग्रस्त हो गया. वह जान गया था कि, मगदला अब भले ही इस मसीही बस्ती और उसकी दुनिया से सदा के लिए जा चुकी थी, परन्तु कहीं-न-कहीं मगदला की अर्थी उठवाने और उसकी शव यात्रा की तैयारी में स्वयं उसका भी हाथ मैला हो चुका है.डलियागंज की इस ईसाई बस्ती के लोगों को वह क्या दोष दे? सब जानते और समझते हैं कि, यहाँ के लोगों का जैसा चलन था, जिस माहौल में वे पले-बढ़े थे, जैसी उनकी परिवरिश हुई थी और जिस स्थान से उठकर वे सब यहाँ आये थे, उसके हिसाब से उन्होंने भी वही सब किया था जो वे कर सकते थे. जब सब-कुछ सहूलियतें मिलने के बावजूद भी ये कायदे के इंसान नहीं बन सके तो आगे वे कभी बन भी नहीं सकते थे.बंधू उदास मन से अपने घर आया. घर के बगीचे उसने गुलाब के थोड़े-से पुष्प तोड़े और उन्हें एक रूमाल में रखकर, जब जाने लगा तो उसकी मां जो बड़ी देर से उस पर दृष्टि लगाये हुए थी, जाते हुए देखकर अचानक से बोली,'यह फूल लेकर कहाँ जा रहा है तू?''?'- अपनी मां के अचानक से कहने पर बंधू के कदम अपने ही स्थान पर रुक गये. उसने एक बार अपनी मां की तरफ देखा, सोचा और फिर कहा कि,'वह मामा मुझे मगदला के बारे में आज ही पता चला तो मैंने सोचा कि, उसकी कब्र पर श्रृद्धा के दो फूल रख आऊँ.''?'- बंधू की मां सुनकर चुप हो गई और गंभीर भी.तब बंधू जब चला गया तो उसकी मां ने अपने मन में ही कहा,

'अच्छा हुआ पगलिया मर गई. मेरे लड़के की क्या? वह तो गधा है ही. कहीं शादी न कर लेता ?'-समाप्त.