*****************************
भूमिका
*****************************
मेवाड़ की धरती, इतिहास के उन पन्नों पर अंकित है जहाँ त्याग, बलिदान और स्वाभिमान की अनंत गाथाएँ सुनाई देती हैं।
"चित्तौड़ री गाथा" मेरे द्वारा रचित दो प्रमुख काव्यों - "जौहर" और "महाराणा प्रताप: युगां सूं जळती एक ज्योत" - का संकलन है।
1. "जौहर" – जिसे मैंने 27 अगस्त 2017 को लिखा था।
2. "महाराणा प्रताप: युगां सूं जळती एक ज्योत" – यह कविता मेरी पुस्तक "प्रताप: अंतिम स्वाभिमानी" का अंतिम पृष्ठ है, जिसे मैंने महाराणा प्रताप को श्रद्धांजलि स्वरूप मेवाड़ी भाषा में लिखा है। यह रचना उनके अदम्य साहस, स्वाभिमान और बलिदान की अमर गाथा को समर्पित है। मेरी यह पुस्तक एमेजॉन केडीपी पर उपलब्ध है, जहाँ आप इसे पढ़ सकते हैं।
"जौहर" में मैंने उस अद्वितीय बलिदान का उल्लेख किया है, जहाँ रानी पद्मावती ने हजारों रानियों के साथ अपनी पवित्रता और स्वाभिमान की रक्षा के लिए अग्नि में प्रवेश कर इतिहास को अमर कर दिया। वहीं, "महाराणा प्रताप: युगां सूं जळती एक ज्योत" में वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप की उस अनंत गाथा का चित्रण है, जो शौर्य, त्याग और अटूट स्वाभिमान का प्रतीक है।
ये दोनों काव्य मिलकर मेवाड़ की गरिमा और स्वाभिमानी परंपरा का ऐसा चित्र प्रस्तुत करते हैं, जो केवल अतीत की स्मृति नहीं, बल्कि आज भी प्रेरणा और चेतना का स्रोत है।
************************
समर्पण
*************************
यह संकलन समर्पित है -
रानी पद्मावती को, जिन्होंने चित्तौड़ के मान और आत्म-सम्मान की रक्षा हेतु स्वयं को अग्नि को समर्पित कर दिया।
और महाराणा प्रताप को, जिन्होंने जीवनभर स्वाधीनता और स्वाभिमान को सर्वोपरि रखा और अपने अदम्य साहस से इतिहास में अमर हो गए।
*****
1. जौहर
दिनांक – 27 अगस्त, 2017
मैं चित्तौड़ की उस पावन मिट्टी से गुज़रा, जहाँ हर पत्थर टूटा है, हर मूर्ति घायल है। ऐसा प्रतीत हुआ मानो आज भी इतिहास के घावों से रक्त रिस रहा हो। मैंने रानी पद्मावती का जल-महल देखा -
वो महल, जो मानो पानी की गोद में अपनी कथा अब भी कह रहा हो।
मैं हर पत्थर को छूता गया, हर पत्थर रोता गया। उनकी सिसकियों में मैंने सुना, हर टूटी प्रतिमा, हर बिखरी दीवार - अपनी आँखों-देखी पीड़ा मुझे सुना रही थी। मैं इतिहास में खोता चला गया,
पर उन राख की परतों में ज्यादा देर ठहर नहीं सका। वहाँ दफ़्न थे अनगिनत रानियों और मासूमों के बलिदान।
मैं आगे बढ़ा और पहुँचा काली माता के मंदिर में, जहाँ आज भी लोग रुपया चिपकाकर मनोकामनाएँ माँगते हैं। पर उस क्षण मेरे मन में एक ही प्रश्न कौंधता रहा - क्या कभी रानी पद्मावती ने भी वहाँ कोई मनौती नहीं माँगी होगी? या उनकी प्रार्थना माँ ने स्वीकार नहीं की? या शायद उस राजपथ पर पहले ही किसी और की मनोकामना भारी पड़ गई थी?
इतिहास ने यहाँ केवल विनाश लिखा, न किसी का भला हुआ, न कोई सुख जन्मा। शेष रह गईं तो बस जली चिताओं की राख और पीड़ा से कराहते खंडहर। उन्हीं खंडहरों ने उस दिन मुझे एक स्वर्णिम गाथा सुनाई - एक ऐसा इतिहास, जहाँ एक राजा जीतकर भी हार गया, और एक रानी जलकर भी अमर हो गई।
वह गाथा कुछ इस प्रकार है...
जौहर...
पत्थरों से लिपटी पीड़ा,
खंडहरों की टूटी बानी,
हर दीवार कहती है किस्सा -
रानी पद्मावती की बलिदानी।
जा मिल्यो एक गद्दार ख़िलज़ी रे संग,
सुणाई पद्मावती री सुंदरता।
आयो खिलजी चित्तौड़ बनके मेहमान,
बोलियों...
"राणा रतन, सुन्यो बड़ी सुंदर थारी राणी है?"
देख रानी की छवि को दर्पण में,
पद्मावती को उसने पाने की ठानी,
फिर आया चित्तौड़ को जीतने,
ताकि झुका सके एक रानी की कहानी।
किले की दीवारें गूंजी,
तलवारों की टंकार से,
लहूलुहान हो गई धरती
वीरों की हुंकार से।
राजा गढ़ पर डटा रहा,
तलवारें चमक उठी थीं,
पर शक्ति भी झुक गई अंततः,
संख्या और छल से हारी थीं।
खून से लथपथ चित्तौड़,
हर द्वार पर रणभेरी बाजी।
आयो संदेश राणी रे पास,
"खिलजी छल स्यु जीत्यो है...
राणो वीरगति ने पायो है।"
कभी आग के निकट ना जाने वाली रानी,
जिसने जल-महल बनवाया था,
जब इज़्ज़त की घड़ी आई,
तो अग्नि को ही अपनाया था।
धधक उठी जौहर की ज्वाला,
रानी संग असंख्य नारियाँ,
जलकर राख हुईं मगर,
अमर कर गईं हजारों कहानियाँ।
मैं पत्थरों को सहलाता रहा,
वे रोते रहे, मैं सुनता रहा।
हर टूटा स्तंभ कह गया -
“हम टूट गए, लेकिन अड़े रहे।
हम ढह गए, लेकिन अमर हुए।”
मेरी आँखें भीग गईं…
ओर मन मेरा चीख पड़ा -
इतिहास ने सब छीन लिया।
खिलजी जीतकर भी हार गया,
राणी जलकर भी अमर हुई।
हर टूटी मूर्ति अब भी पुकार रही,
हर पत्थर अब भी रोता है,
चित्तौड़ का किला पूछ रहा -
"क्या सचमुच कोई जीता है?"
*****
2. महाराणा प्रताप: युगां सूं जळती एक ज्योत
"महाराणा प्रताप: युगां सूं जळती एक ज्योत" – यह कविता मेरी पुस्तक "प्रताप: अंतिम स्वाभिमानी" का अंतिम पृष्ठ है, जिसे मैंने महाराणा प्रताप को श्रद्धांजलि स्वरूप मेवाड़ी भाषा में लिखा है। यह रचना उनके अदम्य साहस, स्वाभिमान और बलिदान की अमर गाथा को समर्पित है। मेरी यह पुस्तक एमेजॉन केडीपी पर उपलब्ध है, जहाँ आप इसे पढ़ सकते हैं।
महाराणा प्रताप : युगां सूं जळती एक ज्योत...
वो सिरफ एक रणबांकुरो ना हेतो,
वो मेवाड़ री आत्मा हेतो।
वो सिरफ तलवार ना,
वो आत्मबल री अग्नि हेतो।
राजगद्दी नै ठुकरायो,
स्वाभिमान नै अपनायो।
विलास नै छोड़ी,
जंगल रो वास चुन्यो।
जद हल्दीघाटी री धरती पर घोड़ा रा टापा गूँजा,
तद धरती ना, इतिहास काँप गयो।
मुगलां री लाखों फौज, तोप-तलवार सजा के आई,
पण प्रताप ने एक हुंकार ऐसो मेल्यो,
मुगलां री फौज दश कदम पाछे हरकी।
चेतक री टापां ऐसी गर्जी, रणभूमि आखी थर्राई।
पराक्रम ऐसो दिखायो चेतक – माथा पर लगी तलवार वाला हाथी सूँ भिड़ गयो,
टूटियां पैर सूँ नालों कूदयो, प्राण गंवायो
पण आखरी साँस सूँ भी चेतक -
स्वामी रो लाज बचायो।
रणभूमि में झाला मान उतरियों,
स्वामी री रक्षा खातिर खुद रो बलिदान दियो।
हकीम-खान-सूर लड़्यो,
मेवाड़ री आन खातिर प्राण दियो।
भामाशाह रो धन बह्यो,
तो प्रताप रो स्वाभिमान जीवित रह्यो।
मित्रा रा देह नै, गोद में ले राणो रोयो,
राणो उठ्यो ने तलवार घुमाई,
तो अकबर रो गद्दी डोल्यो,
रणभूमि री रेतां पर—मुगलां रो घमंड ढळ्ग्यो।
अकबर रो राजमहल काँप्यो,
दिल्ली री चौखट डरी।
अकबर बोल्यो – मेवाड़ रो बस एक राणो,
ओर सारा सल्तनत पर भारी पड़्यो?
चाल चाल्यो अकबर,
बोलियों - खदेड्यो राणा नै जंगल मा,
भूखो मारो, प्यासो मारो,
पण राणा नै हराणों है।
राणो गयो जंगल मा,
खूब लड़्यो ई जंगल री ठंडी रातां,
ओर भुखां री तपती आग मा।
घास री रोटियाँ खादी,
बेटा री भूख सहन कीदी,
सहन कीदा - बेटा रा आँखा सूँ घिरता मोती,
पण अकबर रा हाथ ना लाग्यो।
तन क्षीण गयो, पग भी डगमगायो,
पण आत्मबल,
वो तो कदी ना डोलायो।
राणे सब सहन किदो –
पण हृदय रो माण बचायो,
ओर कदी हिम्मत ना हार्यो।
जंगल रो अंधारो अपनायो,
पण मेवाड़ रो सूरज ना ढलवा दीदो।
पथरीली गुफां रो बास चुन्यो,
पण स्वाभिमान नै मिटवा कोनी दीदो।
यो आकाश आज भी गवाही देवे है,
“प्रताप रो नाम ल्यो तो रणभेरी बाजे,
ओर अकबर डर सूँ कांपे है।”
हल्दीघाटी री धरती आज भी फुसफुसावे है,
“यो जो आजादी रो रंग था देखो हो,
वो राणा रो रक्त सूँ रंग्यो है।”
राणा री ज्योत कदी बुझी ना…
वो आज थारे भीतर जळ री है!
ई पन्नो आखरी हो सकै है,
ई किताब रो,
पण ई गाथा ना।
ई बातां थम सकै है,
पण प्रताप री प्रेरणा, या कदी थमणी ना।
****************************
आभार
****************************
आप सभी पाठकों, मित्रों और परिवारजनों को इस यात्रा का हिस्सा बनने के लिए हृदय से आभार। यह पुस्तक आप जैसे पाठकों के कारण ही पूर्ण हो सकी – कोटिशः धन्यवाद।
यदि इस पुस्तक में अनजाने में कहीं इतिहास के साथ कोई चूक हुई हो, या आपकी भावनाओं को किसी भी प्रकार से ठेस पहुँची हो, तो मैं विनम्रतापूर्वक क्षमा प्रार्थी हूँ।
- नारायण लाल मेनारिया
पाठकों से संवाद:
यदि आप मुझसे संपर्क करना चाहें, सुझाव देना चाहें अथवा अपनी प्रतिक्रिया साझा करना चाहें, तो आप निम्नलिखित ईमेल पर लिख सकते हैं – jnrmenariya4@gmail.com
या फिर व्हाट्सऐप: 8239352896 पर भी संपर्क किया जा सकता है।
...
धन्यवाद।।