देश की आज़ादी के लिए ना जाने कितने अनाम या कम जाने गए स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने घर-परिवार छोड़ा और गृहस्थ जीवन का मोह त्याग बलिदान की राह पर चलकर अपनी कुर्बानियाँ दीं। तब कहीं जा कर बड़ी मुश्किल से हमें यह दिन देखने को नसीब हुआ कि हम सगर्व अपने देश के स्वतंत्रता दिवस को मना पाते हैं। मगर आज के संदर्भ में बहुत से लोग इन कुर्बानियों, इन बलिदानों को इस हद तक बिसरा चुके हैं कि उनके लिए स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस का मतलब महज़ एक छुट्टी भर रह गया है। इसी छुट्टी के दिन में अगर संयोग से कुछ और छुट्टियाँ जुड़ जाएँ तो इसे सोने पे सुहागा समझ आज के युवा घूमने-फिरने के लिए पहाड़ों इत्यादि पर निकल जाते हैं। दोस्तो... आज मैं यहाँ देशप्रेम से ओतप्रोत एक ऐसे उपन्यास '1931- देश या प्रेम' जिक्र करने जा रहा हूँ जिसे लिखा है प्रसिद्ध लेखक सत्य व्यास ने। ये एक ऐसा ऐतिहासिक उपन्यास है, जिसमें सत्य एवं कल्पना के समावेश से लेखक ने 1931 के क्रांतिकारी माहौल को पुनः जीवित करने का प्रयास किया है।सत्य घटनाओं को आधार बना कर लिखे गए इस उपन्यास के मूल में कहानी है पश्चिम बंगाल के अलीपुर इलाके में पनप रहे क्रांति के उस माहौल की जिसने ब्रिटिश सरकार की चूलें तक हिलाते हुए उसके हुक्मरानों की नींदें उड़ा दी थी। इस उपन्यास में जहाँ एक तरफ़ कहानी है 1931 के उस हिजली डिटेंशन कैंप की जहाँ पकड़े गए क्रांतिकारियों से राज़ उगलवाने के लिए उन पर अमानवीय अत्याचार किए गए। तो वहीं दूसरी तरफ़ आम जनता को भी निर्दोष होने के बावजूद बक्शा नहीं गया। इन सभी को इस हद तक दर्दनाक यंत्रणाओं के दौर से गुज़रना पड़ा कि किसी के हाथ-पैरों के नाखून तक उखाड़कर अलग कर दिए गए तो कोई अंग्रेज़ों के अमानवीय अत्याचारों की वजह से पागल हुए बिना नहीं रह पाया। इस उपन्यास में जहाँ एक तरफ़ पश्चिम बंगाल के मिदनापुर इलाके के क्रांतिकारी परिवेश, गांधीजी के नमक सत्याग्रह, और भगत सिंह जैसे साथी क्रांतिकारियों की शहादत की घटनाओं को रोचक ढंग से समाहित किया गया है। तो वहीं दूसरी तरफ़ इस उपन्यास में मानवीय पक्ष के विभिन्न पहलुओं का ज़िक्र भी बड़ी सहजता एवं तसल्लीबख्श ढंग से होता दिखाई देता है कि किस तरह देश की स्वतंत्रता के लिए लड़ी जा रही लड़ाई प्रबोध एवं अन्य किरदारों के सामाजिक, पारिवारिक एवं व्यक्तिगत जीवन को प्रभावित करती है।इस उपन्यास में एक तरफ़ कहानी है किवंदती बन चुके उस क्रांतिकारी विमल गुप्त की जो ब्रिटिश सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद भी मरता नहीं और फ़ीनिक्स बन कर उनके तथा आम लोगों के ज़ेहन में मंडराता रहता है। तो वहीं दूसरी तरफ़ में कहानी है बम बनाने की प्रक्रिया सीख चुके क्रांति दल के उस सबसे युवा सदस्य प्रबोध की जो बम के इस्तेमाल से उस वक्त के जिलाधिकारी जेम्स पेड्डी की हत्या करना चाहता है क्योंकि वह क्रांतिकारियों के समूल विनाश के मंसूबे के साथ मैदान में उतर चुका है।इस उपन्यास में जहाँ एक तरफ़ बंगाल के मिदनापुर में घटी क्रांति की असली घटनाओं को आधार बना कर अँग्रेज़ों द्वारा बनाए गए डिटेंशन कैंप में कैदियों पर हुए अमानवीय अत्याचारों का जिक्र होता दिखाई देता है तो कहीं पंजाब और बंगाल के क्रांतिकारी आज़ादी के उद्देश्य से आपस में एक-दूसरे को सहयोग के रूप में हथियार मुहैय्या करवाते नज़र आते हैं। कहीं युवा प्रबोध के अपने विद्यालय की लैबोरेट्री से ही बम बनाने के लिए ज़रूरी सामान का जुगाड़ करने की बात होती दिखाई पड़ती है तो कहीं प्रबोध के पड़ोस में रहने वाली कुमुद, जो उसे मन ही मन चाहती है, उसके इस उद्देश्य के लिए किसी न किसी बहाने उसकी प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से मदद करती दिखाई देती है।इसी उपन्यास में कहीं डलहौज़ी स्क्वायर में क्रांतिकारियों के हड़बड़ाहट एवं जल्दबाज़ी में अंग्रेज़ों की कार के ऊपर बम फेंकने की प्रक्रिया में एक-दूसरे को मार बैठने की घटना का जिक्र पढ़ने को मिलता है तो कहीं क्रांतिकारियों द्वारा अदालत परिसर में ही अलीपुर के वरिष्ठ जज जस्टिस गार्लिक की इस वजह से हत्या होती दिखाई देती है क्योंकि उसने दिनेश गुप्त और रामकृष्ण विश्वास नामक दो क्रांतिकारियों को फाँसी देने का आदेश दिया था। इस उपन्यास में लेखक कहीं देशप्रेम से ओतप्रोत क्रांतिकारियों के साहस एवं जज़्बे की बातों को प्रभावी ढंग से कहते दिखाई पड़ते हैं तो कहीं कुमुद के कोमल मन में उपजती भावनाओं को भी अपनी लेखनी के ज़रिए सहजता से उकेरते दिखाई पड़ते हैं। 212 पृष्ठीय इस रोचक उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है दृष्टि प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 199/- रुपए जो कि कंटैंट एवं क्वालिटी के हिसाब से जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।