Kurbaan Hua - Chapter 44 in Hindi Love Stories by Sunita books and stories PDF | Kurbaan Hua - Chapter 44

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Kurbaan Hua - Chapter 44

विराने में एक बंद घर

हर्षवर्धन की कार घने अंधेरे में सड़क पर तेज़ी से दौड़ रही थी। चारों ओर वीरानी थी, ना कोई आबादी, ना रोशनी का कोई नामोनिशान। सड़क किनारे ऊँचे-ऊँचे पेड़ बारिश में भीग रहे थे, उनकी शाखाएँ हवा में झूल रही थीं। संजना कार की पिछली सीट पर चुपचाप बैठी थी, उसकी आँखों में डर और गुस्से का अजीब सा मिश्रण था।

हर्षवर्धन ने एक निगाह पीछे डाली, संजना उसे घूर रही थी। वो

बारिश की मार और विरान घर

अचानक, आसमान में गड़गड़ाहट हुई और देखते ही देखते मूसलाधार बारिश शुरू हो गई। बारिश इतनी तेज़ थी कि सड़क का कुछ भी नज़र नहीं आ रहा था। वाइपर पूरी कोशिश कर रहे थे लेकिन पानी की धाराएँ इतनी तेज़ थीं कि सामने का दृश्य धुंधला पड़ गया था।

हर्षवर्धन ने गाड़ी की रफ्तार कम की और कोई सुरक्षित ठिकाना ढूँढने लगा। कुछ ही दूर पर उसे एक पुराना, वीरान घर दिखा। घर के बाहर एक बड़ा सा दरवाज़ा था, जो ताले से बंद था। खिड़कियाँ टूटी हुई थीं, घर की दीवारों पर वक्त की मार साफ़ झलक रही थी।

"चलो, यहाँ रुकते हैं," हर्षवर्धन ने संजना से कहा।

संजना ने व्यंग्यपूर्ण नज़रों से उसे देखा, लेकिन चुपचाप गाड़ी से बाहर निकली। बारिश इतनी तेज़ थी कि कुछ ही पलों में दोनों पूरी तरह भीग गए। हर्षवर्धन ने घर के दरवाज़े के पास पड़े एक भारी पत्थर को उठाया और ताले पर जोर से दे मारा। तीन-चार बार चोट करने के बाद ताला टूट गया और दरवाज़ा चरमराता हुआ खुल गया।

घर के अंदर

अंदर घना अंधेरा था, सिर्फ़ बिजली की चमक से ही चीज़ें कुछ-कुछ दिख रही थीं। हर्षवर्धन ने अपने फोन की फ्लैशलाइट जलाई। घर में पुराना फर्नीचर बिखरा पड़ा था, धूल और जाले जगह-जगह लगे थे। ऐसा लग रहा था कि इस घर में वर्षों से कोई नहीं आया था।

"ठीक है, जब तक बारिश बंद नहीं होती, हम यहाँ रहेंगे," हर्षवर्धन ने संजना से कहा।

संजना ने ठंड से कांपते हुए बालों से पानी झटका और एक पुराने सोफ़े पर बैठ गई।

"आराम कर लो," हर्षवर्धन ने धीरे से कहा।

संजना ने हंसकर जवाब दिया, "किडनैपर जी, आप भी कर लीजिए। क्योंकि जब से तुमने मुझे किडनैप किया है, मैं तो आराम ही कर रही हूं, लेकिन मेरी वजह से तुम्हारी नींद उड़ चुकी है।"

हर्षवर्धन ने उसकी तरफ देखा। सच में, संजना पूरी तरह शांत लग रही थी, जैसे उसे कोई फ़र्क ही न पड़ रहा हो। लेकिन हर्षवर्धन जानता था कि उसकी आँखों में जो चमक थी, वो सिर्फ़ बाहर से थी। अंदर कहीं ना कहीं वो भी डरी हुई थी, लेकिन उसने खुद को मज़बूत दिखाने की कोशिश की।

टकराव और सच्चाई

हर्षवर्धन ने एक पुराने लकड़ी के स्टूल को घसीटकर उसके पास रखा और बैठ गया।

"तुम्हें डर नहीं लग रहा?" उसने संजना से पूछा।

"डर?" संजना हंसी, "जिस दिन तुमने मुझे किडनैप किया, उस दिन डर लगना बंद हो गया। पहले लगा था कि तुम मुझे मार दोगे, लेकिन फिर अहसास हुआ कि तुम बस किसी मुसीबत में हो।"

हर्षवर्धन चुप रहा।

संजना ने उसे देखा और कहा, "बताना चाहोगे कि तुमने ऐसा क्यों किया?"

हर्षवर्धन ने गहरी सांस ली और खिड़की से बाहर देखने लगा। बारिश कुछ कम हो गई थी, लेकिन हवाएँ अब भी तेज़ थीं।

अतीत की परछाइयाँ

संजना ने उसे गौर से देखा, "शायद तुम उतने बुरे नहीं हो, जितने दिखते हो।"

हर्षवर्धन ने कड़वाहट से हंस दिया, "काश कि ये सच होता।"

दोनों कुछ देर तक चुप रहे। घर के कोनों में चूहों की हलचल सुनाई दे रही थी, बारिश की बूंदें टपक रही थीं, और बाहर हवाएँ सरसराहट कर रही थीं।

संजना ने लंबी सांस ली और कहा, "खैर, जो भी हो, जब तक तुम मुझे मारने का प्लान नहीं बना रहे, तब तक मैं यहीं आराम कर रही हूं।"

हर्षवर्धन ने सिर झुका लिया। वो जानता था कि ये सिर्फ़ एक रात की बात नहीं थी। उसके सामने एक ऐसा इंसान था, जो डर के बावजूद मज़बूती से खड़ी थी। और शायद, यही बात उसे परेशान कर रही थी।

बारिश का थमना और नए फैसले

कुछ घंटे बीत गए। बारिश रुक चुकी थी, लेकिन अब हर्षवर्धन के दिमाग़ में एक नई उलझन थी। उसे अब आगे क्या करना था?

घर के अंदर की नीरवता में सिर्फ़ एक सवाल गूंज रहा था—क्या किस्मत ने इन दोनों को किसी कारण से यहाँ पहुँचाया था?