why did grow up -childhoodh is so beautiful ? in Hindi Travel stories by Varsha writer books and stories PDF | क्यों हो गए बड़े-बचपन सुहाना था

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क्यों हो गए बड़े-बचपन सुहाना था

शाम का समय था। खिड़की के बाहर हल्की-हल्की ठंडी हवा चल रही थी। मैं ऑफिस से थककर लौटा ही था कि अचानक टेबल पर रखी पुरानी डायरी नज़र आ गई। धूल से ढकी उस डायरी को उठाया तो जैसे अतीत के पन्ने अपने आप खुलने लगे। उसमें बचपन की लिखी छोटी-छोटी बातें, दोस्तों के नाम, खेलों की यादें और मासूम सपनों की तस्वीरें सजी थीं। आँखें नम हो गईं और दिल से बस यही सवाल निकला – “क्यों हो गए बड़े… बचपन कितना सुहाना था।”

बचपन का हर पल किसी खज़ाने से कम नहीं था। सुबह होते ही नींद खुलते ही सबसे बड़ा काम यही होता था कि मोहल्ले के बच्चों के साथ खेलना है। न कोई चिंता, न कोई तनाव। न पढ़ाई की टेंशन, न भविष्य की चिंता। बस एक दौड़ते-भागते, हंसते-खिलखिलाते दिन।

गली में छुपन-छुपाई, कबड्डी, गिल्ली-डंडा, पिट्ठू, रस्सी कूद, और गर्मियों की दोपहर में आम के पेड़ पर चढ़ना… यही थी हमारी सबसे बड़ी दुनिया। माँ की आवाज़ आती – “धूप में मत दौड़ो, बीमार हो जाओगे।” लेकिन हमें कहाँ रुकना था? हमें तो बस खेलना था।

बरसात आते ही छत पर जाकर कागज़ की नाव चलाना, कीचड़ में मस्ती करना और फिर गंदे कपड़े लेकर घर आना – यही तो असली बचपन था। उस समय गंदे कपड़े धोने की चिंता माँ की होती थी, हमें तो बस बारिश का मज़ा चाहिए था।

दादी की कहानियाँ भी याद आती हैं। रात को जब लाइट चली जाती थी तो हम सब चारपाई पर बैठ जाते और दादी हमें “राजकुमार और राक्षस” की कहानियाँ सुनातीं। कभी डर से सिहर जाते, तो कभी हँसी रोकना मुश्किल हो जाता। उस समय मोबाइल नहीं थे, लेकिन कहानियों में जो जादू था, वह आज की किसी फिल्म में भी नहीं।

पढ़ाई भी उस वक्त बोझ नहीं लगती थी। स्कूल का मज़ा ही अलग था। दोस्तों के साथ टिफ़िन बाँटना, एक-दूसरे की पेंसिल लेना, और छुट्टी की घंटी का इंतज़ार करना – ये सब आज की जिंदगी से कहीं ज्यादा रंगीन था। क्लास में डाँट खाने के बाद भी अगले ही पल हँसी में सब भूल जाना… बचपन की यही मासूमियत तो सबसे कीमती थी।

लेकिन आज… सब बदल गया है।

अब वही दोस्त बड़े हो गए हैं। कोई नौकरी में व्यस्त है, कोई पढ़ाई में। अब मिलना भी मुश्किल है। वो गली, वो खेल, वो पेड़ – सब जैसे अतीत के पन्नों में कैद हो गए हैं। आज ऑफिस का काम, ज़िम्मेदारियाँ, पैसे कमाने की दौड़ – सबने मासूमियत छीन ली है। अब न वो बेफिक्री है, न वो हँसी।

कभी-कभी सोचता हूँ कि बचपन क्यों खत्म होता है? क्यों हम बड़े हो जाते हैं? बचपन में तो सपने भी कितने सच्चे लगते थे। डॉक्टर, पायलट, अध्यापक बनने का सपना। लेकिन अब सपनों पर भी मजबूरियाँ हावी हैं।

बचपन का हर त्योहार भी खास था। दीवाली पर पटाखों की गूँज, होली पर रंगों की बरसात, और राखी पर भाई-बहन की नोकझोंक। उस समय त्योहारों में दिखावे से ज्यादा प्यार होता था। अब तो त्योहार सिर्फ छुट्टी और मोबाइल पर “Happy Diwali” लिखकर भेजने तक सीमित हो गए हैं।

माँ की डाँट भी उस समय कितनी प्यारी लगती थी। “पढ़ाई कर लो वरना बड़े होकर पछताओगे।” उस समय समझ नहीं आता था, पर आज लगता है माँ सही कहती थीं। मगर दिल ये भी कहता है कि माँ की वही डाँट भी सुनने को अब तरस जाते हैं।

आज जब कभी पुराना घर देखता हूँ, तो दिल में एक कसक उठती है। लगता है जैसे दीवारें भी फुसफुसा रही हों – “तुम्हारा बचपन यहीं तो था, अब कहाँ चले गए?”

वक़्त का पहिया कभी रुकता नहीं। हम बड़े हो गए, लेकिन दिल कहीं न कहीं आज भी वही बचपन ढूँढता है। वो मासूम मुस्कान, वो नटखट शरारतें, वो दोस्तों के संग बेफिक्र दिन।

अगर कोई पूछे – “जिंदगी का सबसे अच्छा समय कौन-सा है?” तो बिना सोचे जवाब होगा – “बचपन।”

लेकिन अफसोस… वो समय अब सिर्फ यादों में ही है।

आज जब बच्चो को देखते हैं तो लगता है – काश! हम भी फिर से बच्चे बन पाते। बिना किसी बोझ, बिना किसी टेंशन के। काश! फिर से वही मासूमियत लौट आती। लेकिन हक़ीक़त यही है कि बचपन लौटकर कभी नहीं आता।

बस रह जाती हैं यादें… और दिल से निकली यही एक पुकार –

“क्यों हो गए बड़े… बचपन कितना सुहाना था।”


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