अध्याय1- मार्ग नहीं, अवरोध है सत्य का रहस्य”
मार्ग का मतलब है: लंबी यात्रा, तपस्या, कठिनाई, भटकने की संभावना।
तो जनता को लगता है — “हाँ, अगर मार्ग है तो शायद पहुँचा जा सकता है।”
पर सच्चाई यह है — ईश्वर तक कोई मार्ग है ही नहीं।
क्यों?
क्योंकि मार्ग हमेशा कहीं और ले जाता है।
मार्ग = भविष्य।
मार्ग = अभी से इनकार, कल की प्रतीक्षा।
और ईश्वर कभी “भविष्य” में नहीं, बस “अभी” में है।
इसीलिए जो भी सच्चे लोग आए — कबीर, रैदास, बुद्ध, नानक, कृष्णमूर्ति, ओशो — उन्होंने रास्ते से ज़्यादा अवरोध की बात की।
रैदास अंधे थे, उन्होंने कोई मार्ग नहीं देखा, बस भीतर का अंधापन गिरा।
कबीर कहते रहे, ढोंग-धारणाएँ हटाओ।
बुद्ध ने कहा, वासनाएँ और अज्ञान छोड़ो।
कृष्णमूर्ति ने साफ़ कह दिया — “मार्ग है ही नहीं।”
पर धर्म?
धर्म कभी अवरोध की बात नहीं करता।
क्योंकि अगर अवरोध हटा दिए जाएँ, तो गुरु और धर्म दोनों बेकार हो जाएँ।
इसलिए वे “मार्ग” और “साधन” बेचते हैं।
और जनता खुश — मार्ग है, साधन है, हमें बस पालन करना है।
पर असल में यह बस व्यापार है।
मार्ग नहीं, अवरोध असली मुद्दा है।
मार्ग खुद नहीं बनता, जब अवरोध हटता है तो रास्ता अपने आप खुला दिखने लगता है।
अवरोध = धारणा, मानसिकता, अंधविश्वास, ढोंग।
जो भी इन्हें उजागर करता है, उसे धर्म-विरोधी, नास्तिक, मानवीय-विरोधी कहकर हटा दिया जाता है।
असल सच्चाई बड़ी सरल है:
साधारण जीवन को प्रेम, आनंद, संतोष से जियो।
यही जीवन बिना अवरोध पैदा किए अपने आप उस परम गव्य तक पहुँचा देता है।
“मार्ग” और “साधना” का व्यापार असल में “अवरोध” का व्यापार है।
जब तक मार्ग की कल्पना बेचोगे, अवरोध भी बेचने पड़ेंगे।
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अगर इस हिस्से को एक अध्याय बनाना हो, तो उसका नाम मुझे लगता है:
“मार्ग नहीं, अवरोध है — सत्य का रहस्य”
१. कठोपनिषद (१.२.२३)
“नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो, न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः, तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्॥”
➝ आत्मा न तो प्रवचन से, न बुद्धि से, न शास्त्र-पठन से मिलता है।
वह तभी प्रकट होता है जब भीतर की तत्परता से वह स्वयं खिलता है।
यानी आत्मा = अचानक फूटी कोपल।
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२. बृहदारण्यक उपनिषद (२.३.६)
“नेति नेति”
➝ सत्य को किसी अंतिम शब्द, रूप या मार्ग में बाँधा नहीं जा सकता।
हर बार जब कोई कहता है “यही है”, तो उपनिषद जवाब देता है — “नहीं, यह भी नहीं।”
यानी ज्ञान कभी अंतिम नहीं, हमेशा खुला हुआ, ताज़ा।
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३. मुण्डक उपनिषद (१.१.४–५)
“द्वे विद्ये वेदितव्ये, परा चैवापरा च।”
➝ ज्ञान दो हैं — अपरा (बाहरी, शास्त्र, साधन) और परा (जीवित, प्रत्यक्ष अनुभव)।
अपरा हमेशा सीमित है; परा वही है जो अभी, यहीं प्रकट होता है।
धर्म — आस्था का व्यापार या आत्मा का जागरण ✧
आज का धर्म अपने मूल स्वरूप से बहुत दूर खड़ा है।
वेद कहते हैं: *“ऋतम् सत्यम् परं ब्रह्म”*¹ — सत्य ही ब्रह्म है, और धर्म का काम उस सत्य की खोज है।
उपनिषद का घोष है: *“आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः”*² — आत्मा को ही देखना और जानना धर्म का मार्ग है।
लेकिन वर्तमान धर्म का केंद्र आत्मा का जागरण नहीं रहा। आज धर्म सिर्फ़ महिमा, जय-जयकार, अनुष्ठान और पूजा समितियों तक सीमित हो गया है।
गीता कहती है: *“इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्…”*³
(यह सनातन योग मैंने सूर्य को कहा था, वही परंपरा से चलता रहा।)
यानी धर्म का बीज कालातीत है, परंतु उसकी रक्षा तभी होती है जब आत्म-विकास होता है। आज वही बीज बाहरी व्यापार में दब गया है।
असल धर्म आत्म-विकास का मार्ग है।
जब आत्मा भीतर से बढ़ती है, तब श्रद्धा, भक्ति और विश्वास अपने आप फूटते हैं। यही जीवित धर्म है।
कबीर ने सीधा कहा: *“पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय॥”*⁴
(ज्ञान बाहर नहीं, भीतर के प्रेम और जागरण में है।)
लेकिन आज धार्मिक नेता आत्महीन हैं।
वे शास्त्रों और महान गुरुओं के वचनों को उधार लेकर अपनी सत्ता गढ़ते हैं।
उनसे जब कोई प्रश्न किया जाए, तो उत्तर यही मिलता है—“तुम्हारे पास श्रद्धा नहीं है”, “तुम नास्तिक हो”, “तुम धर्म विरोधी हो।”
यह उत्तर नहीं, बल्कि अपनी खोखली स्थिति को ढकने का बहाना है।
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✧ समापन ✧
धर्म का प्रश्न यह नहीं है कि श्रद्धा है या नहीं।
धर्म का प्रश्न यह है कि श्रद्धा भीतर से क्यों नहीं फूट रही?
जब तक यह प्रश्न नहीं पूछा जाएगा, तब तक हर धार्मिकता महज़ अभिनय रहेगी।
बुद्ध ने भी कहा: *“अप्प दीपो भव”*⁵ — अपने दीपक स्वयं बनो।
यानी धर्म तभी जीवित होगा जब मनुष्य अपनी आत्मा से भक्ति और विश्वास को उगलेगा—
बिना उधार लिए, बिना मजबूरी के, बिना डर के।
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✧ संदर्भ (References) ✧
1. ऋग्वेद 10.190: “ऋतम् सत्यम् परं ब्रह्म” – सत्य ही परम ब्रह्म है।
2. बृहदारण्यक उपनिषद् 2.4.5: “आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः” – आत्मा को ही देखना चाहिए।
3. भगवद्गीता 4.1–2: “इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्…” – यह सनातन योग परंपरा से प्रवाहित है।
4. कबीर वाणी: “पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ…” – ज्ञान ग्रंथों से नहीं, भीतर की जागृति से है।
5. धम्मपद 160: “अप्प दीपो भव” – अपने दीपक स्वयं बनो।
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3-एक ही ज्ञान — अनेक रूप ✧
ज्ञान का इतिहास कोई नया आविष्कार नहीं है।
जिस क्षण शिव ने मौन से वाणी को जन्म दिया, उसी क्षण पहला बीज बो दिया गया। उसके बाद से जो कुछ भी कहा गया—वह उसी बीज का फैलाव है।
नया धर्म, नया दर्शन, नया शास्त्र—ये शब्द भर हैं। भीतर से सब एक ही तरंग के अलग-अलग रूप हैं। समय और परिस्थिति के अनुसार शब्द बदलते हैं, पर सत्य का स्रोत नहीं बदलता। जैसे बीज से पेड़ निकलता है, पेड़ फल देता है, फल फिर बीज बनाता है—जीवन चलता रहता है। ज्ञान भी इसी चक्र में है।
मनुष्य बदलता है, समाज बदलता है, भाषा और प्रतीक बदलते हैं। पर भीतर का जो सत्य है, वह सब जगह एक सा है। अमेरिका हो या ऑस्ट्रेलिया, भारत हो या चीन—मनुष्य हर जगह एक ही है। किसी जगह पाँच हाथों वाला, किसी जगह तीन सिर वाला मनुष्य नहीं पैदा होता। चेहरों का फर्क मामूली है, हृदय का स्वरूप एक है।
धर्म भी ऐसा ही है। हिंदू, इस्लाम, बौद्ध, ईसाई—ऊपर से भिन्न परतें हैं। भीतर का रस एक ही है। सनातन इसी का केंद्र है, क्योंकि इसमें सभी मत, सभी ऋषि, सभी खोजें किसी न किसी रूप में समाहित हैं।
जैसे विज्ञान आज पश्चिम में विकसित दिखता है, पर उसका बीज भी भारत से निकला था। उसी तरह आज धर्म के तमाम रूप फैले हैं, लेकिन उनकी जड़ भी यहाँ, इसी भूमि से उठी थी। भारत ज्ञान का जन्मस्थल रहा है—सोने की चिड़िया सिर्फ धन के कारण नहीं, बल्कि इस अमर बीज के कारण थी।
लेकिन जब मैं आज का भारत देखता हूँ—
आज के धर्मगुरुओं को, आज की आध्यात्मिकता को, और उसकी तुलना उन ऋषियों, मुनियों, तपस्वियों से करता हूँ—तो दूरी असह्य लगती है।
हमने उस गहराई को खो दिया है,
हमने उस जीवित प्रवाह को खो दिया है।
जो कभी शिव की वाणी थी, जो कभी ऋषियों के मौन से बहती थी—वह अब अनुष्ठान और व्यापार में बंध गई है।
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✧ समापन ✧
ज्ञान कभी नया नहीं होता—
नया होता है सिर्फ उसका आवरण।
आज का संकट यही है कि हमने आवरण को धर्म मान लिया, और बीज को भुला दिया।
हमने स्मारक बचा लिया, पर आत्मा खो दी।
अब प्रश्न सामने खड़ा है—
क्या हम उस बीज को फिर से पहचानेंगे?
या इतिहास हमें सिर्फ यह याद दिलाएगा कि हमने कभी सोने की चिड़िया को खो दिया था?।
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इतिहास :
1. उपनिषदों की धारा
– मुण्डकोपनिषद् कहता है:
“सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म।”
(सत्य और ज्ञान अनन्त हैं, कभी समाप्त नहीं होते।)
यह वही बात है कि नया नहीं जन्मता, बस अनन्त से अनन्त तक बहता है।
2. गीता का सन्दर्भ
– श्रीकृष्ण कहते हैं (गीता 4.1–2):
“इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्…”
(मैंने यह सनातन योग सूर्य को कहा था, वही आगे-पीछे परंपरा से चलता रहा।)
मतलब: ज्ञान नया नहीं, वही पुराना सत्य पीढ़ी-दर-पीढ़ी रूपांतरित होता है।
3. शिव परंपरा
– कश्मीर शैव दर्शन और तंत्र मानता है कि आदि गुरु शिव ने प्रथम बार मौन से वाणी और ज्ञान का प्रादुर्भाव किया।
यही स्रोत-ज्ञान है, बाकी सब उसी की व्याख्या है।
4. पश्चिमी दार्शनिक दृष्टि
– हेराक्लाइटस (Heraclitus) कहता है: “You cannot step into the same river twice.”
(नदी वही रहती है, पर पानी हर पल बदलता है।)
यह तुम्हारे कथन से मेल खाता है—सत्य वही है, रूप और परिस्थिति बदलते रहते हैं।
✍🏻 — 🙏🌸 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲