संस्कृति का पथिक
पार्ट -3
भीमबेटका और सांची की आध्यात्मिक यात्रा के बाद, जब मैं वापस भोपाल की ओर लौट रहा था, तो दिन ढल चुका था। सड़कें अब शांत हो रही थीं, हल्की ठंडी हवा चेहरे से टकरा रही थी और आसमान पर रात के सितारे अपनी चमक बिखेर रहे थे। मन में एक अजीब-सी संतुलन और शांति थी — जैसे दिनभर की यात्रा ने केवल शरीर को थकाया नहीं, बल्कि मन और आत्मा को भी संवारा हो।
भोपाल पहुँचते ही सबसे पहले मेरी नजर पड़ी बड़ा तालाब की ओर। इस शहर की खूबसूरती यही है कि आधुनिकता और प्राकृतिक सौंदर्य का अद्भुत संगम यहाँ देखने को मिलता है।
तालाब के किनारे टहलते हुए मैं सोचने लगा — आज की यात्रा ने मुझे इतिहास के वीरों, धर्म के प्रतीकों और मानव चेतना के शुरुआती स्वरूपों से मिलाया। भोजपुर में मैंने शिवलिंग के विराट स्वरूप को देखा, भीमबेटका में मानव सृजन की प्राचीनतम झलक महसूस की, और सांची में बुद्ध के शांति और ध्यान की गहराई को अपने भीतर अनुभव किया। अब जब मैं इस आधुनिक शहर में लौट आया हूँ, तो यह अनुभव और भी जीवंत हो गया — क्योंकि यात्रा केवल स्थानों तक सीमित नहीं रहती, वह भीतर की यात्रा भी रही.
रात के इस समय भोपाल की गलियों पर चहल पहल थीं। मैंने अपने होटल के कमरे की खिड़की से बाहर झाँका, और तालाब पर प्रतिबिंबित चाँद की हल्की रोशनी देखी।
चाँद की परछाई और तालाब का शांत पानी मानो मन के भीतर की हलचल को भी स्थिर कर रहा था। मैंने महसूस किया कि यही वह पल है — जब यात्रा की बाहरी भागदौड़ से थोड़ी दूरी बनाकर, आत्मा को उसकी अपनी रफ्तार में बहने देना चाहिए। भोजन के बाद, मैंने तय किया कि थोड़ी देर पैदल चलूँ। मैं तालाब के किनारे बने फुटपात पर चलने लगा जो सुनसान था, लेकिन हर मोड़ पर शहर का जीवन अभी भी धड़क रहा था। बाजारों से हल्की-हल्की रोशनी आ रही थी, कहीं-कहीं मंदिरों की घंटियाँ धीमे स्वर में बज रही थीं।
मैंने सोचा — क्या यही तो वास्तविक यात्रा का सार नहीं है? जहाँ न केवल ध्वनि और दृश्य आपको घेरे, बल्कि आपको अपनी ही चेतना से मिलने का अवसर भी मिले फिर मैंने शहर के पुराने हिस्से की ओर कदम बढ़ाए सड़कों के किनारे खड़ी बड़ी बड़ी इमारते, छोटे-छोटे चौक और गलियाँ, जैसे अपनी ही कहानी बयाँ कर रही थीं। कुछ मकानों की बालकनी में दीपक जले थे, वहीं कुछ घरों से संगीत की धीमी ध्वनि आ रही थी। यह दृश्य मुझे अतीत और वर्तमान के बीच एक सेतु पर खड़ा कर रहा था इतिहास और आधुनिकता, ध्वनि और मौन, गति और स्थिरता — सब कुछ एक ही क्षण में अनुभव हो रहा था चलते चलते मैं शीतलदास की बगिया की और पहुंच चुका था सामने मंदिर शायद मेरा ही इंतजार कर रहा था क्योंकि मेरे कदम मंदिर की ओर अपने आप ही बढ़े जा रहे थे. भोपाल के इस पुराने हिस्से में कई छोटे मंदिर हैं, जो रात में भी अपनी उपस्थिति महसूस कराते हैं। मेरे कदम मंदिर के पास आकर रुक गए मंदिर में केवल हल्की धूपबत्ती की खुशबू थी और घंटियों की आवाज़ को सुन कर मैं अपने आप को रोक नहीं पाया और मंदिर के एकांत कोने में बैठ गया और अपनी आंखे बंद कर ध्यान लगाया उस सन्नाटे में केवल मेरे भीतर की आवाज़ सुनाई दे रही थी — और यह आवाज़ मुझे अपनी यात्रा के प्रत्येक पड़ाव की याद दिला रही थी।
भोजपुर का विशाल शिवलिंग, भीमबेटका की प्राचीन गुफाएँ, सांची का शांति स्तूप — सब मेरे भीतर एक धारा बनकर बह रहे थे।
तभी मैंनें अपने मन से पूछा- "क्या यही यात्रा का अंतिम उद्देश्य है? क्या केवल दर्शन करना ही धर्म है, या दर्शन के माध्यम से आत्मा का अनुभव करना अधिक महत्वपूर्ण है?”यह प्रश्न मुझे भीतर की गहराई तक ले गया।
होटल लौटते समय, मैंने शहर की रोशनी और उसके परछाईयों को देखा। कहाँ तेज रोशनी, कहाँ अँधेरा — यह सब मिलकर एक संतुलन बना रहे थे। मैंने सोचा — जैसे जीवन भी यही है, उजाले और अँधेरे के बीच संतुलन।
यात्रा के दिनभर के अनुभव, इतिहास और धर्म की गहराई, मानव और ईश्वर के मध्य का संवाद — सब कुछ मेरे मन में घूम रहा था।
रात के उस समय, मैं जान गया —
मैंने होटल के अपने कमरे में बैठकर एक छोटी डायरी खोली और आज के अनुभव लिखने लगा। शब्द धीरे-धीरे कागज़ पर उतर रहे थे, और मैं महसूस कर रहा था कि यह रात —
भोपाल की शांत झीलों और मंदिरों की छाया में बिताई रात — मेरे जीवन की यात्रा का एक अनमोल हिस्सा बन गई है।
रात के गहरे समय तक, मैं खिड़की पर बैठा रहा। सड़कें खाली थीं, तालाब और झीलें जैसे सो रही थीं, और मैं उस मौन में अपने भीतर की गहराई को महसूस कर रहा था।
यह रात केवल शरीर को विश्राम नहीं दे रही थी, बल्कि मन और आत्मा को भी पुनः ऊर्जा दे रही थी। मैंने महसूस किया कि यही यात्रा का सार है — स्थलों का दर्शन, इतिहास और संस्कृति का अनुभव, और सबसे महत्वपूर्ण — आत्मा की गहराई तक पहुँचना। और इस शांति में, मैं सो गया — यह जानते हुए कि कल की यात्रा फिर से नए अनुभव और नए बोध लेकर आएगी।
क्रमशः-