Silent Love - 2 in Hindi Love Stories by Naina Khan books and stories PDF | ख़ामोश मोहब्बत - 2

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ख़ामोश मोहब्बत - 2

*कहानी का नाम: "ख़ामोश मोहब्बत – भाग 2"*  

*(जहाँ मोहब्बत ने इम्तिहान लिया, वहीं तक़दीर ने राह दिखाई…)*  

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रौशनी की पीली किरणें बनारस की गलियों में शराब-सा फैल रही थीं। घाटों पर गंगा का पानी धीमी आवाज़ में गीत गा रहा था, और हवाओं में एक अजीब सी तन्हाई थी — जैसे ज़माने की हर भीड़ ने खुद को सुनाया हो कि यहाँ कोई मोहब्बत अधूरी खड़ी है।

ज़ैनब की ज़िन्दगी अब उस लाइब्रेरी की ख़िड़की से शुरू होती थी, जहां वह शहादत-ए-इश्क़ की शख्सियत बन चुकी थी। हर सुबह हठपूर्वक उठती, दुपट्टा संभालती और बाहर निकलती — जैसे उसका हर कदम एक दुआ हो। किताबों की ख़ुशबू उसके दिल को कभी हँसाती, कभी रुलाती।  

वो ढूंढती रही उस सुकून को जिसे उसने मोहब्बत कहा था — और हर बार, जब पन्ने पलटती, यूसुफ़ की याद आ जाती।  

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*1*

एक दिन, उस लाइब्रेरी में इश्तिहार贴ा गया:  

*“शाम-ए-नज़्म — एक मुशायरा”* —  

जहाँ शहर के शायर, फनकार इकट्ठा होंगे, और दिल की दास्तान सुनाई जाएगी।

ज़ैनब का दिल तेज़ धड़कने लगा।  

“क्या मैं वहाँ जाऊँ?” — वो खुद से पूछती।  

आँखों में जज़्बा, दिल में उम्मीद — उसने तय किया कि इस मुलाक़ात में वह खुद अपनी तन्हाई का ख़िताब पढ़ेगी।

उस शाम, जब चाँद ने पहली दफ़ा मद्धम मुस्कुराहट दी थी, ज़ैनब मंच पर बैठी हुई थी। मौन पहले ही छाया था — भीड़ के बीच खामोशी की उन आँखों को देखना काफ़ी था।  

जब उसका वक़्त आया, उसने आवाज़ धीमी-धीमी निकाली:

> **“तू दूर होकर भी जब पास लगे,  

> ये खामोशी तेरी आवाज़ बने;

> हर धड़कन में तेरा नाम उकेरूं,  

> ये अधूरापन तेरा नाम ले ले।”**

भीड़ खामोश थी — दिलों की दीवार टूट रही थी। और एक साया गर्दन झुकाए खड़ा था — यूसुफ़।

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*2*

शायरी ख़त्म होते ही यूसुफ़ उतरा मंच से।  

लोगों की अटकलों के बीच, उसने ज़ैनब की तरफ़ कदम बढ़ाया —  

और जैसे हवाओं ने उसे रास्ता दिखाया हो।

सड़कें रोशनी-ओ-छाँव की मिलनभूमि बन गई थीं।  

गली के मोड़ से लौटते हुए, ज़ैनब और यूसुफ़ आमने-सामने आ गए।  

“तू…” यूसुफ़ की आवाज़ काँप रही थी।  

“मैं…” ज़ैनब ने ज़ायके से जवाब देने की कोशिश की, मगर शब्द रुक गए।  

    *“तुमने ये शायरी हमारी खामोशियों से लिखी है?”*  

    यूसुफ़ ने धीरे से पूछा।  

    *“नहीं, मेरी हसरतों ने तुम्हें आवाज़ दी है,”* ज़ैनब ने कहा।  

गंगा की लहरों की तरह ये लफ़्ज़ बहते गए —  

और दोनों का इश्क़ ज़मीन पर उतर आया।

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*3*

उस रात, घाट की सीढ़ियों पर चाँदनी फैल रही थी।  

दो रूहें, दो खामोशियां, एक इरादा — मिलकर एक नई दास्तान लिखने का।

यूसुफ़ ने बोला,  

“तू जानती है कि मैं कितनी तन्हाई में बीता हूँ?”  

ज़ैनब ने सर हिलाया।

“मैंने तुम्हें पाया नहीं — पर मैंने तुम्हें महसूस किया।  

मुझमें कोई झूठ नहीं — सिर्फ एक इश्क़ बाकी है।”  

ज़ैनब की आँखों में नमी थी।  

“और मैं…” उसने कहा, “तेरी खामोशी की हर आहट सुनती रही।”  

वे हाथ मिले — ए़क पल के लिए दुनिया थम गई।  

और उस रात, तक़दीर ने एक नया ऑफ़र पेश किया —

*“अब मैं तुम्हें तुम्हारी तन्हाई में नहीं, तुम्हारी मोहब्बत में बाँध लूँगा।”*

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*4*

अगले दिनों, ज़ैनब और यूसुफ़ शहर की गलियों में साथ-साथ चलने लगे।  

लाइब्रेरी में, किताबों से बातें होतीं —  

“ये पन्ने तुम्हारी याद दिलाते हैं,” ज़ैनब कहती;  

“ये लफ़्ज़ तेरे हुस्न को देखे बिना अधूरे हैं,” यूसुफ़ मुस्कुराए।

उन्होंने मिलकर एक छोटी सी कॉपी बनायी —  

“*ख़ामोश मोहब्बत — गाथा इश्क़ की*” —  

जिसमें दोनों ने अपनी दास्तान लिखी।  

हर पन्ने में खामोशियाँ, हर शेर में तड़प,  

और बीच-बीच में एक पहचान — *दो दिल, एक सफ़र*।

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*5*

मगर इश्क़ की राह आसान कहाँ है?  

रिश्तों की बंदिशें, समाज की आवाज़ें,  

“ये मोहब्बत कहां तक चलेगी?” वो कहते।  

और ज़ैनब की आम्मी — जो उसकी शादी तय करना चाहती थीं —  

वो इस नए मोड़ को स्वीकारना चाहती थीं?

एक दिन अम्मी आई लाइब्रेरी में —  

ज़ैनब को देखकर आँसू भर आए।  

“बेटी, क्या ये वही रास्ता है?”  

ज़ैनब ने हाथ पकड़कर कहा,  

“माँ, ये रास्ता कोई मज़ाक नहीं — ये हमारी ज़िन्दगी है।”

अम्मी चुप रहीं, लेकिन अंदर ही अंदर रूह रो रही थी।  

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*6*

फाइनल मोड़ में, ज़ैनब और यूसुफ़ ने फैसला किया —  

*“हम अपनी मोहब्बत की हिफ़ाज़त खुद करेंगे।”*  

माना कि रास्ता कांटों से भरा है, मगर साथ चलेंगे, हाथों में हाथ डालकर।

शाम ढले, उन्होंने फिर से बनारस की घाटी तक पैदल यात्रा की।  

गंगा की लहरों को छूते हुए, दोनों ने एक-दूसरे की आँखों में देखा —  

और एक वादा किया —

**“काश ये मोहब्बत कभी ख़ामोश न हो,  

हर सांस तेरी आवाज़ बने।”**

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*अंत (लेकिन कहानी खत्म नहीं हुई…)*  

मोहब्बत ने परीक्षा ली, रिश्तों ने सवाल किए।  

मगर ज़ैनब और यूसुफ़ ने साबित किया —  

कि अगर दिल सच्चा हो,  

तो ख़ामोश मोहब्बत भी ज़ुबान बन जाती है।

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