मकान को देखते ही उस रात भी मेरा मुंह लटक गया।
मकान के तीनों दरवाज़े मुंह बाए खड़े रहते।
सीढ़ियां चढ़ते ही टपकते नल वाले गुसलखाने का विकृत वह पहला दरवाज़ा मुझे सामने पा कर अपना मुंह फुला लेता ।
अस्त- व्यस्त बर्तनों की पृष्ठभूमि में हांफ़ रही विदीर्ण मां के चेहरे के साथ संतप्त वह दूसरा दरवाज़ा मेरे कदमों की आहट पाते ही मेरा मुंह ताकता ।
और असुहाते असबाब के बीच बहन की धवल रोग से अभिरंजित काया को संग चिपकाए विरूपित वह तीसरा दरवाज़ा मुझे प्रवेश देकर अपना मुंह बांध लेता।
मां छज्जे पर खड़ी थीं।मां भली भांति जानती थीं उनका अथवा बहन का वहां खड़े होना मुझे बेहद नापसंद था। इसीलिए मां अथवा बहन वहां कभी खड़ी होतीं भी तो फ़ौरन अपने अपने दरवाज़े पर जा लगतीं।
पर उस रात मां छज्जे पर आ कर रुकी रहीं।मुझे देख कर भी पीछे लौटी नहीं।
मेरे मन में अनेक कल्पित-अकल्पित संकट-संशय घूम उठे।
क्या पिता घर लौट आए थे? अथवा बहन का बुखार बढ़ गया था?
पिछले तीन वर्षों से पिता लापता थे। दवाइयों की एक साधारण-सी कंपनी के साधारण प्रतिनिधि होने के नाते वह काफ़ी-काफ़ी दिन घर से बाहर रहते थे। अंतिम बार घर से निकले थे तो मां ने अपनी आशंकाएं अपने तक ही सीमित रखीं थीं। मुझ से और चतुर मकान मालकिन से यही कहती रहीं,प्रभा के पिता कल ज़रूर आ जाएंगे। कंपनी का कुछ ऐसा काम आन पड़ा है कि वहीं अहमदाबाद में फंस गए हैं।
मकान मालिक ने ही आखिर पता लगवाया कि जिस कंपनी में हमारे पिता काम करते थे,वह उन के लापता होने से एक महीना पहले ही बंद हो चुकी थी और अब उन का पता- ठिकाना पाना कठिन ही नहीं,असंभव था।हालांकि उस पिछले महीने तक पिता पहले ही की भांति सुबह घर से निकल जाते रहे थे और देर शाम लौटा करते थे। पर मां थीं कि फिर भी लोग-बाग के जब- तब पूछने पर यही कहतीं,’देखिए वह लौटेंगे ज़रूर। हो सकता कल ही लौट आंए।’
“क्या बात है?”एक ही सांस में मैं मां के पास जा पहुंचा।
“रिक्शा देख रही थी। सोचती हूं प्रभा को उस के अस्पताल में ही दाखिल करवा दूं।”
पिता के लापता होते ही हमारे सभी रिश्तेदार हम से कतराने लगे थे।हमारे भरण-पोषण का बोझ उठाने में वे स्वंंय को सर्वथा असमर्थ मानते थे। पिता के परिचितों में ले-दे कर वही दो-तीन डाक्टर बचे थे जिन में दो- एक के पास खांसी- ज़ुकाम- बुखार के इलाज के लिए पिता मुझे अथवा बहन को ले जाया करते थे। और एक डाक्टर वह थे जो पिछले कई सालों से दमे की मरीज़ मां को जब-तब सांस की तकलीफ़ बढ़ जाने पर देख लिया करते थे। उन्हीं डाक्टरों में से किसी एक ने सुझाया था कि बहन को नर्सिंग का कोर्स तुरंत कर लेना चाहिए ताकि परिवार को भूख तथा धूप- आंधी से बचाया जा सके। इस तरह बहन की बी.ए. की पढ़ाई बीच ही में खत्म हो गई थी और एक निजी अस्पताल में उस की नर्स की नौकरी शुरू।
“क्या हुआ, प्रभा?” बहन मुझ से चार साल बड़ी थी फिर भी मैं उसे नाम से पुकारता।
“मैं ठीक नहीं हूं, नंदू,” बहन ने बहुत दिनों बाद मुझे यों पुकारा । जब से पिता ने घर छोड़ा था,मेरा यह घर का नाम बहन के होठों पर अनायास नहीं आ पाता था।
“तो दवा लो,” मैं खीझ गया। पांच दिन पहले उस के अस्पताल में हुई उस की जांच ने उस के बुखार को टाएफ़ड बताया था। मगर वह पिता की भांंति दवा न खाती थी। दवाइओं की खरीदारी में इतना दखल रहते रहने के बाबजूद मैं ने अपने पिता को दवा खाते कभी नहीं देखा था।
“तुम्हें कभी तो मेरे पास बैठना ही चाहिए। मुझे नहीं लगता मैं अब ठीक हो सकूंगी,” बहन ने अपने माथे पर और अपने पैरों के तलवों पर रखी शीत पट्टियों की ओर इशारा किया। मकान मालकिन का फ़्रिज देर- सवेर हमारे काम आ ही जाया करता।
“लो,बैठ गया,” मैं बहन के निकट जा कर उस के बिस्तर पर बैठ गया, “मगर फिर ऐसी बेकार बातें मुझ से तो बोलना नहीं। तुम जानती हो दिल बैठाने वाली बातें मुझे कितनी नापसंद हैं।”
“तुम से बोलो नहीं,तुम से बात नहीं करो। क्यों नहीं बोलो? क्यों नहीं बात करो?” बुखार से हुई थरथराहट ने बहन के नियंत्रित व्यवहार को डगमगा दिया, “ क्या कुरूप और गरीब बहन को प्रेम के बदले प्रेम पाने का कोई अधिकार नहीं? क्या मैं ने यह बीमारी जान- बूझ कर मोल ली है?”
बहन की उत्तेजना कम करने के लिए मैं ने उस की कलाई पकड़ ली।उस की कलाई बहुत गर्म थी परंतु उस के ज्वर से अधिक उस के चेहरे ने मुझे चौंकाया।
बहुत दिनों से मैं ने उसे ध्यान से नहीं देखा था। पिछले दस वर्षों से उस का धवल रोग उस की त्वचा पर अपना संघात बढ़ाता रहा था,यह तो मैं जानता था,परंतु उस ने बहन के नाक, कान, गर्दन तथा बाहों के स्वाभाविक वर्ण को जहां- तहां जिस क्रूर ढंग से सफ़ेेद रंग के धब्बों से आच्छादित कर दिया था,यह मुझ पर उसी दिन प्रकट हुआ। जीवन में पहली बार उस के चेहरे की अटपटी चित्तियां,विषण्ण गुलाबियां और मर्म भेदी सिलवटें मेरे सम्मुख अनावृत हुईं तो मैं स्तंभित रह गया।
“मैं जानती हूं,” एक संवेदी कंपन से बहन की संपूर्ण देह ने झटका खाया, “मैं इस परिवार के दुर्भाग्य का एक बहुत बड़ा अंश हूं।मेरी त्वचा के बदल रहे रंग के गम ने ही मां को दमे जैसी बीमारी दी। बाबूजी को इस घर से दूर किया।”
“तुम रिक्शा ले आओ,नंदकिशोर,” पास बैठी मां की आवाज़ कांपी, “प्रभा को अस्पताल पहुंचाना बहुत ज़रूरी है।”
“मेरे टाएफ़ड को बस एक लंबी और गहरी नींद चाहिए,” बहन को बुखार ने फिर झकझोरा, “जितनी मौरफ़ीन मां के इंजेक्शन के लिए सही रहती है,उस की डेढ़ गुणा मेरे लिए सही रहेगी।”
इंजेक्शन देने की कारीगरी मेरे हाथों को हासिल थी। मां का दमा मां ही को नहीं,मुझे भी परेशान रखता। कई बार जब उन की सांस उखड़ने लगती तो उन्हें देर तक खांसते और घरघराते देेखता- सुनता तो पिता की तरह मैं भी हो- हल्ला करने लगता। ऐसे अवसरों पर बहन अक्सर उन्हें मौरफ़ीन का इंजेक्शन दे कर सुला दिया करती। फिर जब बहन को लगा मैं इंजेक्शन संभाल लूंगा तो बहन ने मुझे प्रशिक्षित कर मां को इंजेक्शन देने का काम मेरे सुपुर्द कर दिया। देर- सवेर वह अस्पताल में जो रहा करती।
सामने लगी मेज़ की दराज़ में धरी आलमारी की चाबी लेकर मैं रसोई में आ गया।
इंजेक्शन उसी आलमारी की दराज़ में रहते थे। पिता के लापता होने से पहले वह आलमारी पिता के कब्ज़े में रही थी। पिता जब भी बाहर से आते,तत्काल उस आलमारी का ताला खोलते, उस में दवाइओं वाला अपना बैग खाली करते और तत्क्षण ताला लगा देते। उन के बाहर रहने पर भी आलमारी बंद ही रखी जाती थी। उस की चाबी उन्हीं के पास रहती और जब कभी उस में रखे सामान की उन्हें ज़रूरत लगती, वह उस सामान को निकालते और तुरंत ताला लगा दिया करते।
आलमारी खोलते ही मुझे बहन की नर्स वाली पोशाक दिखाई दे गयी।
बुखार की वजह से बहन उस पोशाक के प्रति अपनी सतर्कता भूल गयी लगती थी। वह जानती थी उस की वह पोशाक मुझे दुःसह पीड़ा देती थी और उसे वह हमेशा मेरी नज़र बचा कर दूसरे कपड़ों के नीचे इस ताले वाली आलमारी में रखती थी।अस्पताल आते- जाते वह सामान्य कपड़े प्रयोग में लाती थी। बहन के नर्स होने को ले कर मेरी एक मनोग्रन्थि ने मुझे उस आंतरायिक स्नायुरोग के हवाले कर रखा था जिस के अंतर्गत मैं कभी तो नितल हतोत्साह से लबालब भर जाता तो कभी प्रदाही कोप मुझ पर हावी हो उठता।
आलमारी के ऊपर वाले खाने में रखी रहती ब्रांडी की बोतल की खाली सतह जांचने के लिए मैं ने सब से पहले वही उठायी। यह देखने के लिए कि मां की खांसी या बहन के बुखार को कम करने के लिए उस में से कितनी ब्रांडी प्रयोग में लाई गई थी।
सतह पहले से काफ़ी नीची थी। फिर भी आदतन मैं ने उस में से एक लंबा घूंट भर ही लिया।यह जानना कठिन था उन मां- बेटी में से किसे ब्रांडी की ज़्यादा आवश्यकता रही थी। सर्दी-खांसी में ब्रांडी के उपयोग से हमारा परिचय पिता ही ने हम लोग को करवाया था। जभी उन के बाद भी घर में उसे हमेशा उपलब्ध रखा जाता और बाज़ार से उसे लिवाने का ज़िम्मा मेरा रहा करता।
वैैसे घर में मेरी टिकान नाम ही की रहा करती। अपनी सुबहें मैं अपने इंटर कालेज के प्रधानाचार्य की अनुमति से उस के पुस्तकालय की किताबों को पढ़ने या वहां नयी आई किताबों की सूची तैयार करने में बिताया करता और दिन का बाकी समय एक वकील के दफ़्तर में । जिस की फ़ाइलें समेटने और टाइप करने का काम मैं अपनी बारहवीं कक्षा की अपनी पढ़ाई खत्म करते ही मांंगने लगा था।
कम्प्यूटर पर हिंदी और अंग्रेज़ी में टाइपिंग करना मैं अपनी पढ़ाई के दौरान ही सीख चुका था । दोनों ही जगह कभी काम मिलता तो कभी नहीं भी । लेकिन फिर भी दोनों ही जगह अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहना मुझे ज़रूरी लगता। वकील से अगला काम मिलने के लोभ में । और जब-तब पुस्तकालय के कंप्यूटर पर उस की किताबों की सूचियां बनाते रहने पर अपनी टाइपिंग की गति को उपयुक्त बढ़ोतरी देने के लोभ में ।
उबालने के लिए सिरिंंज को गैस पर रखते समय मेरी नज़र उस के पास रखे परांठों के डिब्बे और आलू पर पड़ी तो मुझ से रहा न गया और मैं उन पर झपट पड़ा।
बहन के बुखार ने मां की पाकक्रिया में कोई बाधा न डाली थी और मेरे लिए रखा खाना रोज़ की तरह तृप्तिकर ही रहा।
हाथ धोकर मैं ने बाकी बची ब्रांडी भी मुंह में उंडेल ली। सोचा सुबह होते ही नयी ब्रांडी ले आऊंगा।
आलमारी के बीच वाले खाने में भगवद्गीता के नीचे बहन अपनी डायरी रखा करती।
डायरी मैं ने उठा ली। डायरी में से कुछ चिट्ठियां नीचे गिर गयीं। मैं ने वे पढ़ी नहीं। उठा कर ज्यों की त्यों उन्हें डायरी में लौटा दीं। मैं जानता था उन में कुछ काम का न था। दवाइयों की तमाम कंपनियों को बहन जब-तब चिट्ठी लिखती रहती और पिता के बारे में अपनी विफल पूछताछ जारी रखती।
उस डायरी में बहन की डयूटी का ब्योरा और रोज़ का हिसाब- किताब तो रहता ही,साथ ही कुछ रुपए भी उस में रखे रहते। डायरी के प्रति मेरे विशेष आकर्षण का वास्तविक कारण यही रहता। उन रुपयों में से कुछ रुपए मुझे अपनी फ़िल्मों के लिए निकालने होते। जिन के लिए मैं अपना रविवार हमेशा खाली रखा करता। जभी से जब बहन अपनी तनख्वाह पाने लगी थी। बेशक मैं भी थोड़ा- बहुत अब कमाने ज़रूर लगा था मगर अपनी कमाई का हिसाब मैं अलग ही रखा करता। आधा मां के हाथ में रखता और आधे में से अपने लिए कुछ बचा कर अपने नाम बैंक में जमा करा दिया करता। अपने भविष्य हेतु।
बहन मुझ से कुछ पूछती भी न थी। केवल अपनी डायरी के अगले पन्नों में मेरी ली हुई रकम एक प्रश्न चिन्ह के साथ अपने खर्च में जोड़ देती।
मैं ने डायरी में से पचास का एक नोट ले लिया। सोचा पिछले रविवार वाली फ़िल्म दोबारा देखूंगा। फ़िल्म -मरीचिका मेरी कल्पना के स्वप्निल स्थलों और मनोरम जन को धरातल और सत्ता देती और ऐंंद्रजालिक घोड़ों पर सवार हो कर मैं उन्मत्त फूलों, साएदार वृक्षों, लुभावने दुर्गों और निर्बाध हवाओं के बीच विचरता और उन कुछेक घंटों के लिए ज़िंदगी एक तिलिस्मी दीप्तिमंडल ओढ़ लिया करती।
उबल रही सिरिंज से उठ रहे धुंए ने मुझे चेताया और पिचकारी भरने के लिए मैं ने मौरफ़ीन की नई शीशी जा खोली।
पिचकारी की सुई शायद शीशी में ज़्यादा देर रही क्योंकि पिचकारी में मौरफ़ीन की दुगुनी मात्रा प्रवेश कर गयी। मैं ने उसे यथापूर्वक रहने दिया। सोचा इंजेक्शन लगाते समय हाथ रोक लूंगा।
इंजेक्शन ले कर जब मैं बहन के पास गया तो उस के शरीर की कंपकंपी पहले से भी उग्र थी।
मां उस के पेट की पट्टियां बदल रही थीं।
“इस का बुखार एक सौ चार आ रहा है,” मां ने कहा, “इसे अस्पताल पहुंचा आना चाहिए।”
“इंजेक्शन दे कर देखते हैं,” इंजेक्शन दे रहे मेरे हाथ रुकना भूल गए और मुझे पता न चला,पिचकारी कब खाली हुई।
बहन की कंपायमान देह ने कुछ ही देर में स्थावर दशा ग्रहण कर ली। पर उस का श्वास विकट रूप से मुखर हो उठा।
कुछ समय बाद वह नाद भी बंद हो गया।
“प्रभा अब सो गयी है। इसे अस्पताल सुबह ले जाएंगे,” मैं ने मां से आंखें नहीं मिलाईं।
“ ठीक है,” मां प्रभा की पट्टियां बदलतीं रहीं, “तुम खाना खा कर सो जाओ। प्रभा के पास मैं रहूंगी…”
“मैं खा चुका हूं,” मैं ने कहा और ऊपर छत पर आ गया।
भीषण गर्मी के उन दिनों में मैं छत पर सोया करता। मां और बहन नीचे रहतीं।
छत पर उमस नहीं थी।
जल्दी ही मैं सो गया।
भोर होने से कुछ पहले ही विराट आकाश की शीतलता ने मुझे जगा दिया।
भाग कर मैं बहन के पास आया। एक अजीब शांति से घिरी मां उस के पास बैठी हांफ़ रही थी।
“बुखार कैसा है?” मैं ने बहन का हाथ जा पकड़ा।
उस के हाथ की ऐंठन ने मेरे होश उड़ा दिए।
“प्रभा को क्या हुआ, मां?” मैं रोने लगा, “क्या मैं रिक्शा लाऊं? डाक्टर लाऊं?”
“तुम घबराओ नहीं,बेटा। प्रभा चली गयी है,” मां ने उठ कर मुझे अपने अंक में भर लिया।
“प्रभा को मैं ने मारा है,” मेरा विलाप बढ़ चला, “प्रभा ने मुझे इंजेक्शन लगाना सिखाते समय मुझे चेताया था, मौरफ़ीन की ज़्यादा मात्रा जानलेवा हो सकती है….”
“उस इंजेक्शन की बात किसी से न कहना,” मां ने अपना हाथ मेरे मुंह पर धर दिया, “अस्पताल के स्टोर से वे इंजेक्शन मेरे लिए प्रभा चोरी से लाती थी। कहीं बात खुल गई तो हम किसी को मुंह दिखाने लायक न रहेंगे।”
“अब हम क्या करेंगे ? मां?” मेरा रोना जारी रहा, “मेरे पास तो कोई ढंग की नौकरी भी नहीं।”
“तुम जी छोटा न करो,बेटा,” मेरी गालों पर बह रहे मेरे आंसुओं को मां ने पोंछ डाला, “भगवान ने सोच- समझ कर ही प्रभा को अपने पास बुलाया है। उसी की वजह से तुम्हारे बाबूजी घर छोड़ कर गए थे। अब वह जल्दी लौट आंएगे…”
“तुम सच कह रही हो,मां?” मेरे आंसू थम चले।
“हां,सच। बिल्कुल सच। पर इंजेक्शन वाली बात तुम अपने बाबूजी से भी मत कहना। यह बात हम दोनों के बीच ही रहनी चाहिए….”
“प्रभा की डायरी में दवा की कुछ कंपनियों के पते लिखे हैं,” मैं ने मां को गले लगा लिया , “मैं जल्दी ही उन पतों पर चिट्ठियां टाइप कर के भेजूंगा और बाबूजी लौट आंएगे।”
अनिश्चितता के उस चरम बिंदु पर एक -दूसरे के लिए हमारी सुख- अभिलाषा इतनी तीव्र हो आई थी कि सच जानते हुए भी हम ने एक- दूसरे के जीवन से वह अदम्य उलझाव मिटाना नहीं चाहा जो हमें अस्थिर करता हुआ भी हमारी आंतरिक घनिष्ठता तथा पारस्परिक प्रासंगिकता को और मज़बूत कर गया था।