Bhartiyata ka Punjagran - 2 in Hindi Spiritual Stories by NR Omprakash Saini books and stories PDF | भारतीयता का पुनर्जागरण (संस्कारों से आधुनिकता तक की यात्रा) - 2

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भारतीयता का पुनर्जागरण (संस्कारों से आधुनिकता तक की यात्रा) - 2

अध्याय – 2


भारतीय संस्कृति की स्वर्णिम धरोहर : संस्कार, परिवार और शिक्षा

भारतीय संस्कृति को यदि एक आयुवृद्ध वटवृक्ष माना जाए, तो उसके गहन मूल संस्कार हैं, उसका मजबूत तना परिवार व्यवस्था है और उसकी छाया में फलते-फूलते पुष्प-फल शिक्षा एवं ज्ञान हैं। यही तीन धरोहरें भारत को सहस्त्रों वर्षों तक सशक्त, संगठित और आध्यात्मिक बनाए रखने की आधारशिला बनीं।

संस्कार : जीवन का शुद्धिकरण

भारतीय जीवन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहाँ जन्म से मृत्यु तक मानव जीवन को पवित्र और उन्नत बनाने के लिए एक क्रमबद्ध प्रक्रिया निर्धारित की गई है। इन्हें षोडश संस्कार कहा गया है।

संस्कार का अर्थ केवल रीतियों का पालन नहीं, बल्कि मनुष्य में श्रेष्ठ गुणों का आरोपण करना है। वे हर पड़ाव पर आचरण की दिशा तय करते हैं।

गर्भाधान संस्कार भावी संतति के शुद्ध और उज्ज्वल स्वरूप का संकल्प है।
नामकरण संस्कार केवल नाम देने का कार्य नहीं, बल्कि जीवन के स्वरूप को पहचान दिलाने का प्रयास है।
उपनयन संस्कार बालक को शिक्षा और ब्रह्मचर्य के मार्ग पर आरंभ कराता है।
समावर्तन संस्कार विद्या-समाप्ति और समाज में प्रवेश का उद्घोष करता है।
विवाह संस्कार दो आत्माओं का पवित्र मिलन है, जो केवल दाम्पत्य नहीं, परिवार और समाज की स्थापना का आधार है।
और अंत्येष्टि संस्कार मृत्यु के बाद आत्मा की शांति और जीवन-यात्रा की पूर्णता का प्रतीक है।

इन संस्कारों का उद्देश्य यही था कि मनुष्य केवल प्राणी न रहे, बल्कि एक संस्कारित, उच्च चरित्रवान व्यक्तित्व बने।


परिवार व्यवस्था : भारतीय संस्कृति की रीढ़

भारत की सबसे बड़ी शक्ति रही है—संयुक्त परिवार प्रणाली।
यहाँ तीन-चार पीढ़ियाँ एक साथ रहती थीं और परिवार केवल रक्त-संबंधों का नाम नहीं, बल्कि संस्कारों का बंधन होता था।

परिवार में ही सुरक्षा मिलती थी, यहीं से जीवन-मूल्य और कर्तव्य-बोध प्राप्त होता था। माता-पिता, गुरु और बुज़ुर्ग मार्गदर्शक बनते, तो बच्चे सेवा और सहयोग की भावना सीखते।

शास्त्रों ने कहा है—
“मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव।”
अर्थात् माता, पिता और गुरु को देवता के समान मानो।

संयुक्त परिवार की विशेषताएँ थीं—साझा भोजन, साझा निर्णय, साझा जिम्मेदारी। इसी कारण भारतीय समाज टूटकर भी बिखरता नहीं था।


गुरुकुल शिक्षा : ज्ञान की आदर्श प्रणाली

भारत की प्राचीन शिक्षा-पद्धति केवल पुस्तक-ज्ञान पर नहीं, बल्कि जीवन जीने की कला पर आधारित थी।
गुरुकुल में शिक्षा का उद्देश्य था—विद्या + विनय + विवेक।

शास्त्र कहता है—
“साक्षादपि न हिंस्ति, स शिक्षितः।”
अर्थात् वही शिक्षित है, जो ज्ञान पाकर भी अहिंसा, अन्याय और असत्य से दूर रहे।

गुरुकुल की विशेषता यह थी कि विद्यार्थी जंगल के आश्रम में साधारण जीवन बिताते थे। गुरु ही उनके पिता, माता और मार्गदर्शक होते। शिक्षा के साथ-साथ श्रम, सेवा और संयम का अभ्यास कराया जाता। राजकुमार और सामान्य बालक—सभी को समान रूप से शिक्षा मिलती।

राम और लक्ष्मण ने ऋषि वशिष्ठ से शिक्षा पाई। कृष्ण और बलराम ने सन्दीपन मुनि के आश्रम में अध्ययन किया। एकलव्य ने बिना गुरु के सान्निध्य के भी अपनी श्रद्धा और तपस्या से धनुर्विद्या सीखी और अंगूठा देकर गुरुदक्षिणा का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया।

गुरुकुल शिक्षा ने केवल विद्वान नहीं, बल्कि चरित्रवान पुरुष तैयार किए।

भारतीय संस्कृति के इतिहास में अनगिनत ऐसे प्रसंग मिलते हैं, जो इस धरोहर की आत्मा को सजीव कर देते हैं। श्रवणकुमार अपने वृद्ध माता-पिता को कंधे पर बिठाकर तीर्थयात्रा के लिए निकले। यह केवल भक्ति नहीं, बल्कि सेवा और संस्कार का सर्वोच्च आदर्श है। राजा हरिश्चंद्र ने सत्य पालन के लिए अपना सब कुछ त्याग दिया, किंतु असत्य स्वीकार नहीं किया। यह सत्य का संस्कार था, जो उन्हें अमर कर गया। एकलव्य ने बिना औपचारिक शिक्षा के भी गुरु के प्रति श्रद्धा दिखाई और अपनी निष्ठा से समाज को गुरु-दक्षिणा की अद्भुत मिसाल दी।



भारत की आत्मा केवल वेदों और शास्त्रों में ही नहीं, बल्कि उसकी कला, उसके पर्व और उसकी नारी में भी झलकती है। यहाँ की सांस्कृतिक चेतना केवल ग्रंथों की सीमा में नहीं बंधी, बल्कि उसने लोकजीवन को सजाया, संवारा और उसमें प्राण फूँक दिए।


भारतीय कला : जीवन की साधना

भारत की कला कभी केवल मनोरंजन का साधन नहीं रही; वह साधना रही, संस्कार रही।
हर गाँव, हर प्रांत, हर जाति अपनी लोककला में अपनी आत्मा उड़ेलती रही।

नृत्य केवल शरीर की चेष्टा नहीं, आत्मा की अभिव्यक्ति था। भरतनाट्यम्, कथक, कथकली, ओडिसी और मणिपुरी जैसे शास्त्रीय नृत्य रूप केवल कलात्मक कौशल नहीं, बल्कि भक्ति और ध्यान का मार्ग बने। प्रत्येक मुद्राएँ देवी-देवताओं की स्तुतियाँ गातीं और साधक के लिए ये नृत्य ध्यान का साधन बन जाते।

संगीत का उद्गम सामवेद से हुआ। सुर और राग केवल आनंद देने के लिए नहीं, बल्कि आत्मा को परमात्मा से जोड़ने के लिए थे। भारतीय संगीत में भक्ति और ध्यान की गहराई है, जो साधक को भीतर से शुद्ध करती है।

चित्रकला ने भारत के जीवन-दर्शन को अमर रूप दिया। अजंता-एलोरा की गुफाएँ, मधुबनी की लोकचित्रकला, पिचवाई और पट्टचित्र—ये सब केवल रंग और रेखाएँ नहीं, बल्कि संस्कृति की जीवित स्मृतियाँ हैं।

लोककला—लोकगीत, भजन, कठपुतली, नाटक और लोकनृत्य—ने संस्कारों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी पहुँचाया। यही कारण है कि भारत का जनमानस अपनी जड़ों से कभी पूरी तरह नहीं कटा।


पर्व और उत्सव : जीवन का उत्सव

भारत को "पर्वों का देश" यूँ ही नहीं कहा गया। यहाँ हर उत्सव केवल हर्ष-उल्लास नहीं, बल्कि एक गहन सांस्कृतिक और सामाजिक संदेश लेकर आता है।

दीपावली अंधकार पर प्रकाश और असत्य पर सत्य की विजय का प्रतीक है।
होली अच्छाई की बुराई पर जीत का उत्सव है, जो समाज में समता और आनंद का वातावरण रचता है।
रक्षाबंधन भाई-बहन के पावन बंधन का प्रतीक है।
नवरात्र और दुर्गापूजा नारीशक्ति के सम्मान का स्मरण कराते हैं।
मकर संक्रांति केवल ऋतु परिवर्तन नहीं, बल्कि कृषि-जीवन के उत्सव का भी प्रतीक है।

शास्त्रों ने कहा है—
“उत्सवप्रियः खलु मनुष्यः।”
अर्थात् मनुष्य का स्वभाव उत्सवप्रिय है। भारतीय संस्कृति ने इस उत्सवप्रियता को धर्म और संस्कार से जोड़कर उसे समाज की एकता और सामूहिकता का माध्यम बना दिया।


भारतीय नारी : शक्ति और मर्यादा का स्वरूप

भारतीय संस्कृति की सबसे अद्वितीय धरोहर उसकी नारी है। यहाँ स्त्री केवल गृहिणी नहीं, बल्कि संस्कृति की वाहक मानी गई। उसे “गृहलक्ष्मी”, “अन्नपूर्णा” और “अधिष्ठात्री शक्ति” के रूप में पूजित किया गया।

शास्त्र कहते हैं—
“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।
यत्र तैस्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः॥” (मनुस्मृति)
अर्थात् जहाँ स्त्रियों का सम्मान होता है, वहाँ देवता वास करते हैं; जहाँ उनका अपमान होता है, वहाँ सारे कर्म निष्फल हो जाते हैं।

भारतीय इतिहास और कथा-साहित्य में स्त्रियाँ आदर्श रूप में प्रस्तुत हैं—
सीता त्याग और मर्यादा की प्रतिमा बनीं।
सावित्री ने अपने पतिव्रत से यमराज को भी बाँध लिया।
अनसूया तपस्या और पतिव्रता का सर्वोच्च उदाहरण बनीं।
मीरा ने भक्ति और प्रेम की मूर्ति बनकर समाज को नई दिशा दी।
और झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने शौर्य और पराक्रम से भारत की नारी शक्ति का अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत किया।

भारतीय नारी ने कभी विदुषी बनकर (गार्गी, मैत्रेयी), कभी तपस्विनी बनकर और कभी योद्धा बनकर संस्कृति की रक्षा की।


सामाजिक महत्व

भारतीय संस्कृति की इन धरोहरों ने समाज पर गहरा प्रभाव डाला। कला और संगीत ने हृदय को कोमल बनाया। पर्वों ने समाज में एकता और सामूहिकता का भाव जगाया। और नारी ने संस्कार और मर्यादा की रक्षा का दायित्व संभाला।

इसलिए कहा गया—
“धर्मो रक्षति रक्षितः।”
अर्थात् जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है।

भारतीय संस्कृति की स्वर्णिम धरोहर : योग, आयुर्वेद और ज्ञान परंपरा

भारतीय संस्कृति ने मानवता को अनेक अमूल्य उपहार दिए हैं, किंतु इनमें सबसे अनुपम हैं—योग, आयुर्वेद और ज्ञान परंपरा। ये तीनों ही भारतीय जीवन-दर्शन की आत्मा हैं। उन्होंने न केवल भारत को गौरवान्वित किया, बल्कि सम्पूर्ण मानवता को दिशा और आधार प्रदान किया।


योग : आत्मा और परमात्मा का मिलन

योग भारत की सबसे बड़ी देन है। इसका अर्थ ही है—“जुड़ना”, अर्थात जीवात्मा का परमात्मा से मिलन। पतंजलि ने योगसूत्र में कहा—
“योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।”
अर्थात् योग वह अवस्था है, जिसमें चित्त की सभी वृत्तियाँ शांत हो जाती हैं और आत्मा ईश्वर में लीन हो जाती है।

योग की अनेक शाखाएँ हैं—

कर्मयोग : कर्म करते हुए भी ईश्वर से जुड़े रहना।

भक्तियोग : प्रेम और श्रद्धा के साथ भक्ति करना।

ज्ञानयोग : आत्मा और ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करना।

राजयोग : ध्यान और समाधि के द्वारा आत्मिक शांति पाना।


योग केवल शरीर को स्वस्थ करने का साधन नहीं, बल्कि मन को शांति और आत्मा को मोक्ष की ओर ले जाने का मार्ग है। यही कारण है कि आज योग भारत की सीमाओं से निकलकर पूरी दुनिया में स्वास्थ्य और शांति का पर्याय बन चुका है।


आयुर्वेद : जीवन का विज्ञान

भारत की दूसरी अनुपम धरोहर है—आयुर्वेद। यह केवल रोगों की चिकित्सा नहीं, बल्कि जीवन जीने का शास्त्र है। ‘आयुर्वेद’ शब्द का अर्थ है—“आयु का वेद”, अर्थात दीर्घ और स्वस्थ जीवन का ज्ञान।

चरक संहिता में कहा गया है—
“हिताहितं सुखं दुःखमायुस्तस्य हिताहितम्।
मानं च तच्च यत्रोक्तमायुर्वेदः स उच्यते॥”
अर्थात् आयुर्वेद वह शास्त्र है जिसमें जीवन के हित-अहित, सुख-दुःख और उसकी अवधि का वर्णन हो।

आयुर्वेद के प्रमुख सिद्धांत—

त्रिदोष सिद्धांत : वात, पित्त और कफ का संतुलन।

दिनचर्या और ऋतुचर्या : समयानुसार आहार और आचरण।

औषध और पंचकर्म : शरीर का शुद्धिकरण और रोग-निवारण।


चरक ने चिकित्सा-विज्ञान का आधार तैयार किया। सुश्रुत ने शल्यचिकित्सा का विकास किया और उन्हें “शल्यचिकित्सा के जनक” कहा गया। अस्थि-रोग, दाह और क्षत-चिकित्सा में भारत ने हजारों वर्ष पूर्व ही अद्भुत प्रगति की।

आज जब आधुनिक चिकित्सा-पद्धतियाँ भी आयुर्वेद को मान्यता देने लगी हैं, तब यह स्पष्ट हो जाता है कि आयुर्वेद केवल परंपरा नहीं, बल्कि विज्ञान का आधार है।



ज्ञान परंपरा : विज्ञान और दर्शन की ऊँचाई

भारत की ज्ञान-परंपरा भी उतनी ही गौरवशाली है। यह केवल धर्म और अध्यात्म तक सीमित नहीं रही, बल्कि यहाँ गणित, खगोलशास्त्र, साहित्य और दर्शन का भी अद्भुत विकास हुआ।

गणित :
शून्य और दशमलव पद्धति भारत की ही देन है।
आर्यभट्ट ने पृथ्वी के गोल होने और उसके घूमने का सिद्धांत बताया।
भास्कराचार्य ने गुरुत्वाकर्षण का उल्लेख न्यूटन से बहुत पहले कर दिया।

खगोलशास्त्र :
भारतीय पंचांग और ज्योतिष ने सूर्य-चन्द्रमा की गति, ग्रहण और नक्षत्रों का अद्भुत ज्ञान दिया।
वराहमिहिर ने खगोल और मौसम विज्ञान में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

दर्शन :
भारत में छह प्रमुख दर्शनों—सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदांत—ने जीवन को गहराई से समझने का आधार प्रदान किया।

साहित्य :
महाकवि कालिदास, भवभूति, तुलसीदास, सूरदास, कबीर और मीरा ने साहित्य को केवल कला ही नहीं, बल्कि भक्ति और संस्कार का माध्यम बना दिया।

भारतीय संस्कृति की इन धरोहरों को अमर बनाने वाले महान व्यक्तित्व भी उतने ही प्रेरक हैं।
पतंजलि ने योगसूत्र रचकर योग को विज्ञान का स्वरूप दिया।
चरक और सुश्रुत ने चिकित्सा विज्ञान को अमर ग्रंथों में ढाला।
आर्यभट्ट ने 499 ईस्वी में ही ‘पाई (π)’ का मान निकाल दिया।
कालिदास की ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ आज भी विश्व-साहित्य में अद्वितीय मानी जाती है।

भारतीय संस्कृति की स्वर्णिम धरोहर : अतिथि देवो भव और सहयोग परंपरा

भारतीय संस्कृति की सबसे महान विशेषता है उसकी आतिथ्य-परंपरा। भारत में सदा से यह माना गया कि घर में आया हुआ अतिथि केवल मनुष्य नहीं, ईश्वर का स्वरूप है। वेद और उपनिषदों ने इस सत्य को उद्घोषित किया—“अतिथिदेवो भव।” यही कारण था कि प्राचीन भारत में अतिथि का स्वागत केवल औपचारिकता नहीं, बल्कि श्रद्धा का अनुष्ठान था। घर के स्वामी अपने परिवार से पहले अतिथि को भोजन कराते। साधारण से साधारण गृहस्थ भी मानता था कि अतिथि का आदर ही उसका कर्तव्य है। गाँवों में आज भी यह परंपरा जीवित है कि कोई भी आगंतुक भूखा नहीं लौटता।

इतिहास और कथाओं में भी यह आदर्श अनेक बार प्रकट हुआ है। महाभारत में जब कृष्ण ने दुर्योधन के राजसी भोज को अस्वीकार कर विदुराणी के सादे अन्न को स्वीकार किया, तो यह केवल साधारण घटना नहीं थी। यह इस बात का प्रतीक था कि स्नेह और समर्पण से परोसा गया साधारण अन्न भी ईश्वर के तुल्य होता है। इसी प्रकार राम ने शबरी के झूठे बेर प्रेमपूर्वक खाए, क्योंकि उनमें भक्ति और निष्ठा का अमृत घुला था। यह अतिथि-सत्कार भारतीय संस्कृति के हृदय की धड़कन है।

भारतीय संस्कृति केवल व्यक्ति-केन्द्रित नहीं, बल्कि समाज-केन्द्रित रही है। यहाँ जीवन का मूल भाव रहा—“परोपकाराय सतां विभूतयः”—अर्थात सज्जनों की सम्पत्ति केवल दूसरों के उपकार के लिए है। इसी भावना से गाँवों में श्रमदान की परंपरा विकसित हुई। उत्सव और विवाह केवल पारिवारिक नहीं, बल्कि सामूहिक होते थे, जहाँ पूरा समाज एक साथ कार्य करता था। संकट और आपदा के समय लोग एक-दूसरे के सहायक बनते। यही सहयोग भारतीय समाज की जीवन-रेखा था।

पांडवों के वनवास में अनेक ऋषियों और जनजातियों ने सहयोग दिया। साधु-संत और भिक्षुक जब गाँव-गाँव जाते, तो लोग उन्हें दान देकर उनके धर्मकार्य में सहभागी बनते। इस परंपरा ने समाज को बाँधकर रखा। अतिथि-सत्कार और परोपकार की यही भावना भारत की पहचान बन गई।

भारत की इस विशेषता ने उसे विश्वगुरु बनाया। विदेशी यात्रियों—फाह्यान, ह्वेनसांग और अल-बरूनी—ने अपने लेखों में स्वीकार किया कि भारतवासी दयालु, सत्यप्रिय और अतिथि-सत्कार में अनुपम होते हैं। गांधीजी ने भी कहा था—“भारत की आत्मा उसके गाँवों में बसती है।” और वास्तव में ये गाँव आतिथ्य और सहयोग की परंपरा से ही जीवित रहे।

इन सभी प्रसंगों और परंपराओं से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय संस्कृति का सार उसके सामूहिक जीवन में है। संस्कार और परिवार व्यवस्था जीवन को स्थिरता देती है, गुरुकुल शिक्षा विद्या और चरित्र का संगम बनाती है, कला और संगीत जीवन को उत्सवमय करते हैं, नारी शक्ति और मर्यादा की प्रतिमा बनती है, योग और आयुर्वेद आत्मा और शरीर को स्वस्थ करते हैं, ज्ञान परंपरा विज्ञान और दर्शन की ऊँचाई देती है, और अंत में, अतिथि-सत्कार तथा सहयोग समाज को करुणा और एकता में बाँधने वाली डोर बन जाते हैं। यही सब मिलकर भारतीय संस्कृति को विलक्षण, शाश्वत और विश्वोपयोगी बनाते हैं।


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