***********************
समर्पण
***********************
यह पुस्तक समर्पित है
मोहनलाल जी को -
जिन्होंने गाँव की ज़मीन की रक्षा के लिए
अपना पैर खोया,
अपनी जवानी के अनमोल दिन
टूटे हुए शरीर के साथ बिताए,
और उपचार के लिए
पाई-पाई जोड़कर अपना खून-पसीना बहाया।
फिर भी अंत में उन्हें यही सुनने को मिला -
"आपको किसने कहा था कि हमारे लिए लड़ो?"
"किसने कहा था कि अपना पैर तुड़वाओ?"
**************************
किसके लिए लड़े - मोहनलाल?
**************************
चित्तौड़गढ़ जिले के एक छोटे से गाँव में रहते हैं मोहनलाल - एक साधारण किसान, जिनकी ज़िंदगी संघर्ष, सेवा और आत्मसम्मान की मिसाल है।
आज भी वे बैल-गाड़ी से खेतों तक जाते हैं। उम्र ढल चुकी है, लेकिन हौसला अब भी वैसा ही है।
घर में पत्नी, बहू, एक पुत्र और पोते-पोतियाँ हैं। सब मिलकर खेती-बाड़ी करते हैं। ज़िंदगी सादगी से भरी है, लेकिन उसमें गहराई है।
मोहनलाल सिर्फ खेतों के आदमी नहीं हैं - वे पशुओं के भी मसीहा हैं। गाँव में जब भी कोई गाय या भैंस प्रसव में तकलीफ में होती, तो चिकित्सकों से पहले उन्हें बुलाया जाता।
न उन्होंने कभी धन लिया, न चाय का प्याला स्वीकारा। सेवा उनके लिए सौदा नहीं थी - वो उनका स्वभाव था।
उनका पुत्र मुंबई में रोटियाँ बनाकर परिवार चलाता था।
इसी बीच, 1980 से 1990 के बीच गाँव में एक भूमि घोटाला हुआ। नागोरी ने लगभग 100 हेक्टेयर भूमि अपने नाम करवा ली।
गरीबों को शराब, धन और लालच देकर हस्ताक्षर करवा लिए गए।
जब गाँववालों को सच्चाई पता चली, तो उन्होंने नागोरी के घर के बाहर धरना शुरू कर दिया।
जवाब में नागोरी ने करीब 100 मोग्यो को भेजा। आदेश था - "भूमि पर कब्ज़ा करो, किसानों को भगा दो।"
उस दिन मोहनलाल अपने खेत में थे। वर्षा शुरू हुई, तो वे परिवार के साथ घर लौटे।
लेकिन जैसे ही हमला होने की खबर मिली, वे बिना देर किए ‘मगरी’ की ओर चल पड़े - संघर्ष के लिए।
मोहनलाल सबसे आगे खड़े थे - गाँव की भूमि की रक्षा करने।
झड़प में उन पर पीछे से पत्थर फेंके गए, लाठियों से पीटा गया। उनका बायां पैर टूट गया।
पुत्र मुंबई से दौड़कर आया, उन्हें अच्छे चिकित्सालय ले जाने को तैयार था।
लेकिन गाँववालों ने कहा - "अभी आंदोलन जारी रहना चाहिए। शासन स्वयं उपचार कराएगा। यह चोट हमारे प्रकरण को मजबूत बनाएगी।”
दिन बीतते गए, उपचार नहीं हुआ। स्थिति बिगड़ती गई।
फिर उन्हें नीमच ले जाया गया, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
बाद में अहमदाबाद में शल्यक्रिया हुई, पैर में इस्पात की छड़ डाली गई।
लेकिन चलना-फिरना पहले जैसा कभी नहीं हो पाया।
फिर भी मोहनलाल ने हार नहीं मानी।
करीब 20 वर्ष तक उन्होंने न्यायालय में मुकदमा लड़ा। शरीर टूटा था, लेकिन आत्मा अडिग थी।
2016–17 में गाँववालों ने नागोरी से समझौता किया और भूमि वापस ली।
विजय हुई — लेकिन मोहनलाल के लिए नहीं।
कुछ गाँववाले, जिनमें उनके एक चचेरे भाई भी थे, उन्हें घर बुलाकर बोले —
"आपके त्याग के लिए एक भूखंड देंगे। कल शाम को मंदिर में घोषणा करेंगे। आप कुछ मत कहना, हम बात रखवा देंगे।"
अगले दिन मंदिर में जब कुछ बुजुर्गों ने मोहनलाल को भूमि देने की बात उठाई,
तो वही कुछ उकसाए हुए युवाओं ने कहा:
"आपने हमारे लिए लड़ाई क्यों लड़ी? हमने तो नहीं कहा था। भूमि सबको समान मिलेगी।"
ये शब्द किसी भी चोट से ज़्यादा गहरे थे।
जिसने गाँव की प्रतिष्ठा बचाने के लिए अपना पैर खो दिया, उसे अब कहा जा रहा था - "तुमने किया ही क्यों?"
मोहनलाल को उस भूखंड की आवश्यकता नहीं थी, उन्हें एक दिन पहले सामने से घर पर बुलाया गया और फिर भूखंड देने की बात कही गई - इसलिए वे मंदिर पर गए थे।
लेकिन जब इस प्रकार की बात कही गई कि "आपको किसने कहा था लड़ने के लिए?" तो उन्हें थोड़ा क्रोध आया, लेकिन कोई उत्तर नहीं दिया। चुपचाप अपने घर लौट आए।
मोहनलाल को भूखंड नहीं मिला - कोई बात नहीं, उन्हें चाहिए भी नहीं था।
समझौते से पहले नागोरी ने कई बार मोहनलाल जी को अपने घर पर बुलाया था और कहा था कि "आप कहो तो 3–4 बीघा आपके नाम कर दूँ" लेकिन उन्होंने हमेशा मना किया था।
क्योंकि उन्हें उस गाँव में सम्मान से रहना था - कल को कोई ऐसा न कहे कि "नागोरी से मिल गए।"
उन्हें बस दुःख हुआ तो इस बात का - कि मुझे घर बुलाकर कहा कि आपको भूखंड देंगे और फिर मंदिर में अपमानित किया।
वे दुःखी लेकिन मौन रहे और कहते रहे - "जगन्नाथ बावजी मेरे साथ हैं, फिर चिंता किस बात की।"
और जैसे जगन्नाथ बावजी ने भी उनकी बात हमेशा सुनी थी -
उनके पोते बड़ी कंपनियों में अभियंता हैं और भगवान की कृपा से अच्छा अर्जन कर रहे हैं, एक भूखंड तो क्या - दस भूखंड खरीद सकते हैं।
जिस मिट्टी ने मोहनलाल को ठुकराया था, उसी ने उनकी विरासत को सबसे ऊँचा स्थान दिया।
लेकिन वह भूखंड नहीं मिला क्योंकि उन्हें उसकी चाहत नहीं थी - चाहिए होता तो नागोरी पहले ही नाम पर करवा देता।
उन्हें मिला - सम्मान, विरासत और कर्म की मौन विजय।
** कर्म बहुत शक्तिशाली होता है - जिन्होंने उन्हें मंदिर में अपमानित किया, उनके पास उसका फल लौटकर अवश्य आएगा - यह मेरा विश्वास है। **
**************************
मोहनलाल की मिट्टी
**************************
छोटे गाँव की साँझ में, एक नाम सादगी से चमकता है,
मोहनलाल - वो किसान, जो ख़ामोशी से लड़ता है।
बैल-गाड़ी की धूल में, जिनका स्वाभिमान चलता,
हर सुबह खेतों में, जैसे सूरज खुद पलता।
न धन की चाह, न चाय की प्याली,
सेवा थी उनकी इबादत, न कोई सवाली।
गाय की पीड़ा में, भैंस की पुकार में,
चिकित्सकों से पहले, वो थे हर द्वार में।
भूमि घोटाले की आँधी आई,
नागोरी ने छल से ज़मीन हथियाई।
गाँववालों ने जब सच्चाई को पहचाना,
धरना दिया, रास्ता रोका, आवाज़ उठाई।
मोहनलाल उठे, जैसे धरती की पुकार सुन ली,
पत्थरों की मार खाई, पर आत्मा न झुकी।
पैर टूटा, पर हौसला नहीं,
बीस वर्ष तक न्याय की राह चली।
ना शासन ने सुना, ना गाँव ने सहारा लिया,
उपचार टलता गया, पीड़ा बढ़ती रही।
घर पर बुलाया, एक वादा किया –
"आपको भूखंड मिलेगा, कल घोषणा होगी।"
अगले दिन सभा में जब बात उठी,
तो वही लोग बोले - "किसने कहा था लड़ने को?"
जिन्होंने बुलाया, वही मुकर गए,
जिन्होंने वादा किया, वही सवाल कर गए।
वो भूखंड चाहिए नहीं था,
पर अपमान की चोट गहरी थी।
ये सवाल नहीं थे - ये ज़ख़्म थे, जो लफ़्ज़ों की शक्ल में दिए गए।
जो ज़मीन की हिफ़ाज़त में सबसे पहले खड़ा हुआ,
उसी से महफ़िल में पूछा गया - "तुमसे किसने कहा था लड़ने को?"
जिन्हें ज़मीन की हवस थी, उन्होंने बुलाकर कहा -
"तुम्हें देंगे", फिर वही लोग बोले - "तुमने क्यों लड़ा?"
क्या यही है क़स्बे की तहज़ीब?
नहीं दिया जवाब मोहनलाल ने -
बस ख़ामोशी ओढ़ ली, और लौट गए उस घर में,
जहाँ इज़्ज़त अब भी साँस लेती है।
जगन्नाथ बावजी का नाम लिया,
और जीवन की पीड़ा को गीत बना दिया।
नागोरी ने कई बार कहा - “ले लो ज़मीन,”
पर मोहनलाल ने कहा - “सम्मान ही है मेरी तिज़ोरी।”
भूखंड नहीं मिला - पर मिला सम्मान,
कर्म की विजय थी, यही था असली वरदान।
अपमान सहा, पर मन में विष नहीं पाला,
हर चोट को मोहनलाल ने मौन से ढँक डाला।
आज भी खेतों में बैल-गाड़ी चलती है,
और मोहनलाल की कहानी हर साँझ में पलती है।
**************************
लेखक की बात
**************************
मोहनलाल जी और उनका परिवार हमेशा गाँव के साथ खड़ा है -
हर मुश्किल में, हर संघर्ष में, हर पुकार पर।
और मैं विश्वास से कहता हूँ -
अगर फिर कभी गाँव को ज़रूरत पड़ी,
तो फिर खड़े होंगे,
बिना किसी शोर, बिना किसी शर्त।
पर एक बात है जो मेरे दिल में हमेशा चुभती रहेगी -
जिस भूखंड की उन्हें कोई आवश्यकता नहीं थी,
जिसे उन्होंने कभी माँगा भी नहीं,
उसी के नाम पर उन्हें मंदिर में अपमानित किया गया।
उनसे कहा गया -
"आपको किसने कहा था कि हमारे लिए लड़ो?"
यह वाक्य नहीं था - यह एक तीर था मोहनलाल जी के लिए।
और यही पीड़ा, यही चुभन,
इस कहानी को लिखने की सबसे बड़ी वजह बनी।
मोहनलाल जी को आपसे कभी कुछ नहीं चाहिए था,
लेकिन उम्मीद करता हूँ कि कम से कम गाँववालों यह ज़रूर महसूस हो -
कि उन्हें वो शब्द नहीं कहने चाहिए थे।
स्नेह और सम्मान सहित - आपका हार्दिक धन्यवाद।