Dil ka Kirayedar - Part 1 in Hindi Love Stories by V R books and stories PDF | Dil ka Kirayedar - Part 1

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Dil ka Kirayedar - Part 1





सुबह के पाँच बजे। आरती आँगन में झाड़ू लगा रही थी। ठंडी हवा के साथ उसकी साँसों में थकान भी मिल गई थी। माँ खाँस रही थीं और छोटा भाई अमित अभी तक बिस्तर में गोल होकर पड़ा था।

आरती (तेज़ आवाज़ में): "अमित, उठो! स्कूल की घंटी तुम्हारा इंतज़ार नहीं करेगी।"
अमित अनमने अंदाज़ में करवट बदलकर बोला, "दीदी, नींद आ रही है…"
आरती ने गहरी साँस ली। वह जानती थी, ये नींद नहीं, पढ़ाई से भागने का बहाना है।
माँ ने कमरे से आवाज़ लगाई— "बेटा, गुस्सा मत करो उस पर। थोड़ा कमजोर है पढ़ाई में।"
आरती झुंझलाई लेकिन चुप रही। उसके मन में बस यही चल रहा था—“अगर पापा होते तो अमित की पढ़ाई के लिए मुझे इतनी मशक्कत नहीं करनी पड़ती।”

दोपहर को आरती स्कूल से लौटते अमित के हाथ में चिट्ठी देखती है। टीचर की लिखावट साफ़ थी: "अमित पढ़ाई में ध्यान नहीं दे रहा। ट्यूशन जरूरी है। वरना अगली कक्षा में मुश्किल होगी।"
आरती के पैरों तले जमीन खिसक गई। ट्यूशन का मतलब पैसे। और पैसे कहाँ से आएँ?
रात को खाना बनाते वक्त वही चिंता उसके माथे पर पसीने की तरह चिपकी रही।

ऊपर के कमरे से बिस्तर की चर्र-चर्र की आवाज़ आई। आरती ने नजरें उठाईं—विवेक किताब में डूबा बैठा था। उसे देखकर हमेशा यही लगता था कि जैसे यह लड़का पढ़ाई के अलावा किसी और चीज़ की परवाह ही नहीं करता।
उसके हाथ में मोटी-मोटी किताबें रहतीं, कभी नोट्स लिखता, कभी धीरे-धीरे गुनगुनाता। मोहल्ले में लोग कहते थे, "ये लड़का बहुत तेज है, मास्टरजी बनेगा।"
आरती की आँखों में अचानक एक ख्याल चमका। “क्या पता यही अमित को पढ़ा दे… पैसे तो नहीं दे सकती, पर उसके लिए कुछ और कर सकती हूँ।”

अगली शाम, आरती हिम्मत जुटाकर ऊपर गई। दरवाज़ा हल्का-सा खुला था। विवेक नोट्स लिख रहा था।
आरती (संकोच में): "सुनो… मैं तुमसे कुछ कहना चाहती हूँ।"
विवेक ने चश्मा उतारकर उसकी ओर देखा। "हाँ, कहो।"
आरती: *"असल में… मेरा भाई पढ़ाई में थोड़ा कमजोर है। स्कूल से शिकायत आई है। मुझे उसके लिए ट्यूशन लगानी है, लेकिन…" (वह रुक गई)
विवेक: "लेकिन पैसे नहीं हैं, है ना?"
आरती चौंक गई। "तुम्हें कैसे पता?"
विवेक मुस्कुराया। "तुम्हें देखकर समझ जाता हूँ। तुम्हारी आँखें हमेशा किसी बोझ का हिसाब लगाती रहती हैं।"
आरती ने नजरें झुका लीं। "हाँ… मैं चाहती हूँ कि वो पढ़ ले। मेरे पास देने को पैसे नहीं हैं, लेकिन अगर तुम चाहो तो मैं तुम्हारे लिए खाना बना दूँगी, कपड़े धो दूँगी, घर का छोटा-मोटा काम कर दूँगी। बदले में… तुम अमित को पढ़ा देना।"
कमरे में थोड़ी देर खामोशी छा गई।
विवेक ने धीरे से कहा, "अजीब सौदा है… लेकिन बुरा नहीं। खाना मुझे वैसे भी खुद बनाना पड़ता है, और सच कहूँ तो उतना अच्छा नहीं बनता।"
आरती की आँखों में हल्की उम्मीद जगी। "तो… मान गए?"
विवेक ने मुस्कुराकर सिर हिलाया। "हाँ। कल से शुरू करते हैं। लेकिन एक शर्त है।"
आरती चौकन्नी हुई। "कौन सी?"
विवेक: "तुम्हें अमित के साथ बैठकर सुनना होगा। उसे अकेला पढ़ाकर फायदा नहीं होगा। अगर तुम साथ रहोगी तो वो और ध्यान देगा।"
आरती ने अनजाने में सिर हिला दिया। उसे पता नहीं था—यही "साथ बैठने" की शुरुआत धीरे-धीरे उसके और विवेक के बीच कुछ और बुनने वाली थी।

To be continued...............