अंदर बाहर (१९८४) — अपराध और कर्तव्य के बीच पनपी मित्रता की अनोखी कथा
१९८० के दशक की हिन्दी फिल्मों में यदि कोई फिल्म अपराध, रोमांच और मानव संबंधों की उलझनों को संतुलित रूप में प्रस्तुत करने में सफल रही हो, तो “अंदर बाहर” निश्चित रूप से उनमें से एक है। इस फिल्म में एक अपराधी और एक पुलिस अधिकारी के बीच की मजबूरी में जन्मी साझेदारी, समय के साथ एक गहरी मित्रता में परिवर्तित होती है, जो केवल अपराध की दुनिया की कथा नहीं, बल्कि एक मनुष्य के परिवर्तन की यात्रा है।
फिल्म का निर्देशन रवि टंडन ने किया है, जिनकी सृजनात्मक दृष्टि ने इस कहानी को यथार्थ के करीब बनाए रखा। प्रमुख भूमिकाओं में जैकी श्रॉफ (इंस्पेक्टर रवी खन्ना) और अनिल कपूर (राजा) हैं, जिनकी जोड़ी ने इस फिल्म को ऊर्जा और गहराई दी है।
कथा का सारांश
फिल्म की शुरुआत होती है राजा नामक एक शातिर चोर से, जिसे एक बड़े अपराध के पश्चात गिरफ्तार किया जाता है। उसका पुराना साथी शेरा (डेनी डेंजोंगपा) एक बैंक डकैती करता है, और लूट का धन ले भागता है। पुलिस शेरा को पकड़ने के लिए राजा की सहायता लेना चाहती है, क्योंकि शेरा तक पहुँचने का यही एकमात्र मार्ग है।
इंस्पेक्टर रवी खन्ना, एक युवा और सिद्धांतप्रिय पुलिस अधिकारी, राजा को अस्थायी रूप से हिरासत से बाहर लाकर शेरा तक पहुँचने की योजना बनाता है। प्रारम्भ में दोनों के बीच अविश्वास और टकराव रहता है। राजा, जो पुलिस से घृणा करता है, रवी के साथ चलने को बाध्य होता है, लेकिन समय के साथ दोनों के बीच एक जटिल लेकिन गहराती मित्रता पनपती है।
राजा की चंचलता और शरारत, रवी की गंभीरता और अनुशासन से टकराती है, किंतु यही विरोध, धीरे-धीरे सामंजस्य में परिवर्तित होता है। दोनों मिलकर शेरा को पकड़ने की योजना बनाते हैं। इस दौरान दोनों को न केवल बाहरी अपराधियों से, बल्कि व्यवस्था की जटिलताओं से भी जूझना पड़ता है।
पात्रों का अभिनय
जैकी श्रॉफ ने रवी खन्ना के पात्र में अनुशासन, सख्ती और नैतिकता का अद्भुत संतुलन दिखाया है। वह कठोर दिखते हैं, परंतु भीतर से न्यायप्रिय और करुणामय हैं। उनकी शांत संवाद शैली और आत्मविश्वासपूर्ण उपस्थिति पुलिस अधिकारी के रूप में विश्वसनीयता प्रदान करती है।
अनिल कपूर इस फिल्म की जान हैं। ‘राजा’ के रूप में उनका अभिनय चपल, चंचल, कभी क्रोधित तो कभी भावुक — एक जीवंत और बहुरंगी चित्रण है। राजा की जुबान पर हँसी है, पर आँखों में एक बीता हुआ अतीत और खोई हुई दुनिया की टीस भी है। अनिल ने इस पात्र को पूरी ऊर्जा, सहजता और गहराई से निभाया है।
डेनी डेंजोंगपा, जो ‘शेरा’ के रूप में खलनायक हैं, उनकी उपस्थिति में गरिमा और आतंक दोनों का संयोग है। उनका चरित्र पूर्ण रूप से नकारात्मक है, परन्तु उसका मनोविज्ञान भी गूढ़ है।
किम और मुन्मुन सेन ने नारी पात्रों के रूप में अपने-अपने सीमित परंतु प्रभावी योगदान दिए हैं। किम, राजा के प्रति आकर्षण रखने वाली युवती के रूप में कथा को भावनात्मक गहराई देती हैं।
गीत-संगीत
संगीतकार राहुल देव बर्मन ने फिल्म के लिए विविध रंगों से भरे गीत रचे हैं। गीतकार गुलशन बावरा के शब्द सरल, संप्रेषणीय और भावपूर्ण हैं। गीत न केवल मनोरंजन प्रदान करते हैं, बल्कि पात्रों के मनोभावों को भी उजागर करते हैं।
प्रमुख गीतों में:
“अंदर बाहर बाहर अंदर” – शीर्षक गीत, फिल्म की मूल भावना को दर्शाता है।
“हमको तो यारी से मतलब है” – एक जोशीला गीत जो रवी और राजा की बदलती मित्रता का प्रतीक है।
“मेरी आँखों में ज़रा झाँको तो” – एक रोमांटिक गीत, जो राजा और किम के संबंध को दर्शाता है।
“मौसम बड़ा सुहाना है” – एक मस्तीभरा गीत, जो कथा को हल्कापन देता है।
गायकों में किशोर कुमार, आशा भोंसले और सुरेश वाडकर जैसे महान स्वरकलाकारों की उपस्थिति गीतों को और भी प्रभावशाली बनाती है।
चित्रांकन और निर्देशन
फिल्म का चित्रांकन १९८० के दशक के मुम्बई की गलियों, अपराध की छाया और पुलिस की कार्यशैली को यथासंभव वास्तविक रूप में प्रस्तुत करता है। कैमरा प्रयोग, विशेषकर रात्रिकालीन दृश्यों में, पात्रों की मन:स्थिति और कथा की गंभीरता को उभारता है।
रवि टंडन का निर्देशन कहीं भी अति-नाटकीय नहीं है। उन्होंने कथा को सरल, रोचक और प्रवाहपूर्ण बनाए रखा है। उन्होंने पात्रों को अभिनय के भरपूर अवसर दिए, और किसी एक पर निर्भर न रहकर पूरी टीम को सामूहिक रूप से उभारा।
निष्कर्ष
“अंदर बाहर” एक ऐसी फिल्म है जिसमें अपराध और कानून के बीच की खींचतान के साथ-साथ दो विपरीत स्वभावों के बीच पनपी मित्रता को भी गहराई से चित्रित किया गया है। यह फिल्म केवल एक 'अभियान' की कहानी नहीं है, यह विश्वास, परिवर्तन और मानवता की पुनर्परिभाषा है।
यदि आप १९८० के दशक के हिन्दी सिनेमा में सामाजिकता, मनोरंजन और संवेदनशीलता का समुचित संतुलन देखना चाहते हैं, तो “अंदर बाहर” अवश्य देखिए। यह फिल्म आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, क्योंकि यह दिखाती है कि कभी-कभी सबसे असंभव व्यक्ति भी परिवर्तन की दिशा में पहला क़दम उठा सकता है — यदि कोई उस पर विश्वास करे।