tanhai-3 in Hindi Women Focused by Deepak Bundela Arymoulik books and stories PDF | तन्हाई - 3

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तन्हाई - 3

एपिसोड 3 
तन्हाई
भावनाओं की सीमाएँ और समाज का भय

संध्या के ऑफिस में अब हर दिन कुछ अलग महसूस होता था, अमर की उपस्थिति एक तरह की ऊर्जा लेकर आती थी जैसे किसी पुराने कमरे की बंद खिड़की अचानक खुल जाए और हवा अंदर आ जाए, अब दोनों के बीच कोई औपचारिक झिझक नहीं रही थी, पर एक अनकही दूरी अब भी थी वह दूरी जो समाज, उम्र और मर्यादा की दीवारों से बनी थी।
ऑफिस के गलियारों में, फाइलों के बीच, बैठकों के दौरान अमर और संध्या की नज़रें अब अक्सर टकरातीं, हर बार संध्या आँखें चुराने की कोशिश करती, पर देर-सबेर मुस्कुरा देती, वही अमर की मुस्कान सीधी, ईमानदार और अनजानी थी, उसमें कोई दिखावा नहीं था, बस एक सच्चा अपनापन था.

एक दिन कॉफी मशीन के पास दोनों अचानक आमने-सामने हो गए।
अमर ने कहा,
"मैम, आपको ब्लैक कॉफी पसंद है, सही?”
संध्या ने चौंककर देखा,
"इतना कैसे जान लिया?”
"क्योंकि आप हर बार मीटिंग में कॉफी का कप पूरा छोड़ देती हैं… दूध से आपको परेशानी होती होगी।”
संध्या के चेहरे पर हल्की हँसी आई,
"तुम बहुत ध्यान रखते हो।”
अमर सहजता से बोला,
"ध्यान नहीं मैम, आदत है… जो लोग चुपचाप सब संभालते हैं, उनका कोई तो खयाल रखे।”
वो शब्द हवा में देर तक ठहरे रहे।
संध्या ने बस कहा,
"चलो, कॉफी ठंडी हो रही है।”
लेकिन भीतर कुछ गर्म होने लगा था- शायद मन.
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धीरे-धीरे संध्या को अमर के परिवार के बारे में पता चला, वो मूलतः देहरादून के पास एक छोटे से कस्बे से था, पिता की मृत्यु बहुत पहले हो चुकी थी, माँ घर संभालती थीं, और दो छोटी बहनों की पढ़ाई-शादी की ज़िम्मेदारी अमर पर थी।

अक्सर लंच के समय वो अपनी माँ का फोन उठाता, हँसते हुए कहता,
“अरे माँ, मैं ठीक हूँ… हाँ, आपने दवाई ले ली।”
या फिर किसी दिन कहता,
"छोटी वाली को कॉलेज भेजना है, फीस मैं इस महीने भेज दूँगा।”
संध्या के भीतर एक भाव उमड़ता-
उसके स्वर में वही अपनापन था, जो कभी उसके पति राजीव के स्वर में होता था।
ज़िम्मेदारी का वही बोझ, वही सादगी…
बस फर्क इतना था कि अब वो आवाज किसी और की थी- और उस आवाज में उसे सुकून मिलता था।
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एक हफ्ते बाद विभाग की टीम को नैनीताल में एक सेमिनार के लिए जाना था, पहाड़ी सर्दी, झील के किनारे होटल, और तीन दिन का प्रवास, इस ट्रिप के दौरान अमर और संध्या को साथ में कई बार बात करने का मौका मिला।
एक शाम झील किनारे सब लोग कॉफी पी रहे थे, अमर ने पूछा-
"मैम, कभी सोचा आपने कि ज़िन्दगी इतनी जल्दी क्यों भागती है?”
संध्या ने झील में झिलमिलाती रोशनी को देखा और बोली,
"शायद इसलिए, क्योंकि हम उसे जीने से ज़्यादा समझने में लगा देते हैं।”
दोनों कुछ देर तक चुप रहे।
झील की लहरें हल्की ठंड में जैसे कुछ कह रही थीं, वो शब्द जो होंठों से नहीं, दिलों से निकलते हैं।

सेमिनार के आखिरी दिन अचानक संध्या को हल्का बुखार हो गया, सुबह ऑफिस के लोग नीचे नाश्ते में थे, जब अमर संध्या के कमरे में आया तो उन्हें देख कर पुछा
"मैम, तबीयत ठीक है? 
संध्या ने कहा, "थोड़ा बुखार है, दवा ले ली है।”
" हूं...आपको ठंड लग गई हैं।”
अमर ने होटल स्टाफ से गर्म सूप मँगवाया, कमरे में बैठकर खुद देखा कि वो ठीक से खा रही हैं या नहीं, उसकी इस देखभाल में कोई औपचारिकता नहीं थी, ये एक साथी की संवेदना थी और वही संवेदना संध्या के भीतर कहीं गहरी उतर गई थी।
उस पल उसे महसूस हुआ-
"कभी-कभी कोई अनजान व्यक्ति वो सुकून दे जाता है जो अपना भी नहीं दे पाया।”
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वापसी के बाद संध्या के भीतर एक खामोश लड़ाई शुरू हो चुकी थी, वो खुद को समझाने की कोशिश करती-
"संध्या, ये एक जूनियर की ईमानदारी, एक दोस्ताना अपनापन।”
लेकिन मन कहता,
"तो फिर जब वो पास आता है, दिल क्यों धड़कता है?”
रात में वो अपने आप से बहस करती-
"उम्र का इतना फर्क… लोग क्या कहेंगे?”
"पर क्या लोग जानते हैं कि अकेलापन कैसा होता है?”उसकी परिपक्वता उसे रोकती थी, लेकिन दिल धीरे-धीरे अपनी सीमाओं को भूलने लगा था, हर सुबह ऑफिस जाने से पहले आईने में खुद को देखती, बाल ठीक करती, और मुस्कुराती-
"शायद आज वो कुछ बोले…”
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दूसरी तरफ अमर अब भी उतना ही सहज था।
उसे शायद अंदाज़ा नहीं था कि उसकी हर छोटी बात, हर मुस्कान, संध्या के दिल पर असर डाल रही है वो वही था- जिम्मेदार, सच्चा, और मासूम।
एक दिन उसने संध्या से कहा,
"मैम, आपने कभी सोचा, इतने बड़े पद पर होकर भी आप इतनी शांत कैसे रहती हैं? लोग तो हुक्म चलाते हैं, आप बस मुस्कुराती हैं।”
संध्या ने हल्के स्वर में जवाब दिया,
" जिनके भीतर शोर होता है, वो बाहर की आवाज़ें कम करते हैं।”
अमर कुछ पल उसे देखता रहा तब उसने पहली बार उसकी आँखों में वो शोर महसूस किया, जो उसने कभी सुना नहीं था।
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धीरे-धीरे उन दोनों के बीच एक अजीब-सी लय बन गई थी न ज़्यादा पास, न पूरी तरह दूर।
संध्या को डर था कि अगर उसने दिल की बात ज़ाहिर कर दी, तो सब कुछ बिखर जाएगा।
समाज, सहकर्मी, बेटे सब इस रिश्ते को गुनाह कहेंगे, पर जितना वो दूर रहने की कोशिश करती, अमर की सादगी उसे उतना ही खींचती, कभी वो उसकी हँसी में खुद की जवानी ढूँढ लेती, कभी उसकी बातों में खोए पलों की गर्माहट महसूस करती।
और हर शाम, जब अमर विदा लेकर जाता,
संध्या की आँखें दरवाज़े पर टिकी रह जातीं-
जैसे कोई अनकहा वाक्य उसके होंठों पर रह गया हो।

अब उनके बीच सिर्फ़ काम का रिश्ता नहीं रहा था, अब वहाँ एक अदृश्य डोर थी जो दोनों को बाँध भी रही थी और डर भी रही थी संध्या के भीतर पहली बार एक सवाल गूंजा-
"क्या किसी एहसास को सिर्फ़ इसलिए दबा देना चाहिए, क्योंकि वो उम्र या समाज की परिभाषा में फिट नहीं बैठता?”

वो जानती थी, जवाब आसान नहीं होगा।
और शायद आगे आने वाला वक्त उस जवाब को अपने तरीके से देगा…

क्रमशः