Maa Savitri in Hindi Women Focused by Naina Khan books and stories PDF | माँ सावित्री

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माँ सावित्री

 *"वो माँ जो हारना नहीं जानती"*

 

शहर के एक कोने में एक पुरानी सी झोपड़ी थी। बाहर से टूटी-फूटी, लेकिन अंदर एक ऐसा दिल धड़कता था जो हर तूफ़ान से लड़ने का हौसला रखता था। उस झोपड़ी में रहती थी *सावित्री*, एक माँ — नायिका नहीं, लेकिन नायकों से कहीं ज़्यादा मज़बूत।

 

ज़िंदगी ने उसे कभी आसान रास्ते नहीं दिए। पति की अचानक मौत ने उसे अकेला कर दिया, और दो छोटे बच्चों की ज़िम्मेदारी उसके काँधों पर आ गिरी। लोग कहते थे, "अब कैसे चलेगा?" लेकिन सावित्री ने आँसू नहीं बहाए — उसने अपने आँचल को कसकर बाँधा और काम की तलाश में निकल पड़ी।

 

दिन में ईंट-भट्ठे पर मज़दूरी, रात में बच्चों को पढ़ाना। थक जाती थी, बदन दर्द करता था, लेकिन जब बच्चों की मुस्कान देखती, तो सारी थकान जैसे पिघल जाती। कई बार पेट खाली रहता, लेकिन उसने कभी बच्चों को भूखा नहीं सोने दिया। खुद भूखी रहकर भी उनके लिए रोटियाँ सेंकती रही।

 

एक रात, जब बारिश ज़ोरों से हो रही थी और झोपड़ी की छत टपक रही थी, उसका बेटा बोला,

*"माँ, तू कभी हारती क्यों नहीं?"*

सावित्री ने मुस्कराते हुए जवाब दिया,

*"क्योंकि मेरी हार तुम्हारी हार होगी, और मैं तुम्हें हारते नहीं देख सकती।"*

 

वो माँ थी — जो गिरती थी, टूटती थी, लेकिन हर बार उठती थी।

वो माँ थी — जो आँसुओं को ताक़त बना लेती थी।

वो माँ थी — जो ज़िंदगी की उलझनों को सुलझाना जानती थी।

 

सालों बाद, उसका बेटा एक बड़ा अफ़सर बना। लोग तारीफ़ करते, सम्मान देते। लेकिन जब उसने मंच पर बोलना शुरू किया, तो सिर्फ एक नाम लिया —
"मेरी माँ, सावित्री — मेरी असली प्रेरणा।"*"

 

---मेरी माँ, सावित्री — मेरी असली प्रेरणा।"*

 

 

*"वो माँ जो हारना नहीं जानती – भाग 2: इम्तिहान की अग्निपरीक्षा"*

 

सावित्री का बेटा *आरव* अब एक अफ़सर बन चुका था। उसकी कामयाबी पूरे शहर में गूंज रही थी। लोग कहते, “देखो उस माँ को, जिसने मिट्टी से सोना गढ़ा।” लेकिन सावित्री जानती थी कि ये सफ़र अभी पूरा नहीं हुआ।

 

एक दिन आरव घर आया, आँखों में चिंता थी।

*"माँ, मुझे ट्रांसफर मिल गया है। बहुत दूर जाना होगा।"*

सावित्री ने उसकी पीठ थपथपाई,

*"बेटा, जहाँ ज़िम्मेदारी बुलाए, वहाँ जाना चाहिए। माँ की ममता रोक सकती है, लेकिन माँ का विश्वास हमेशा साथ चलता है।"*

 

आरव चला गया। सावित्री फिर अकेली रह गई। अब उसका छोटा बेटा *नील* कॉलेज में दाख़िला लेना चाहता था, लेकिन फीस भरने के पैसे नहीं थे। उम्र ढल चुकी थी, लेकिन हौसला नहीं। उसने फिर से काम पकड़ लिया — अब वो पास के स्कूल में सफ़ाई का काम करने लगी।

 

लोग कहते, “अब तो आराम करो।”

वो मुस्कराती,

*"जब तक बच्चों के सपने पूरे नहीं होते, माँ का आराम अधूरा रहता है।"*

 

एक दिन स्कूल में एक समारोह था। नील ने भाषण दिया —

*"मेरी माँ ने मुझे पढ़ाया नहीं, मुझे जीना सिखाया। उन्होंने मुझे किताबें नहीं दीं, लेकिन हर दिन एक नया पाठ पढ़ाया — संघर्ष का, विश्वास का, और प्यार का।"*

 

पूरा स्कूल तालियों से गूंज उठा। प्रिंसिपल ने सावित्री को मंच पर बुलाया। पहली बार वो मंच पर खड़ी थी — जहाँ लोग सम्मान से झुकते हैं।

उसने कहा,

*"मैं कोई बड़ी औरत नहीं हूँ। मैं बस एक माँ हूँ। और माँ होना ही मेरी सबसे बड़ी पहचान है।"*

  

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*"वो माँ जो हारना नहीं जानती – भाग 3: प्रेरणा की लौ"*

 

सालों बीत गए। सावित्री अब उम्रदराज़ हो चुकी थी, लेकिन उसकी आँखों में वही चमक थी — जो हर माँ के सपनों में बसती है। आरव अब एक वरिष्ठ अधिकारी था, नील एक शिक्षक बन चुका था। दोनों भाई अपनी माँ को भगवान की तरह पूजते थे। लेकिन सावित्री की आत्मा अब भी चैन से नहीं बैठी थी।

 

एक दिन नील ने कहा,

*"माँ, अब तो आराम करो। हमने सब पा लिया है।"*

सावित्री मुस्कराई,

*"बेटा, जब तक इस समाज में कोई माँ भूखी सोती है, कोई बच्चा स्कूल जाने से वंचित रहता है — तब तक मेरी लड़ाई अधूरी है।"*

 

उसने अपने मोहल्ले की महिलाओं को इकट्ठा किया। उन्हें पढ़ना-लिखना सिखाया, हुनर सिखाया, आत्मनिर्भर बनना सिखाया। धीरे-धीरे सावित्री का नाम पूरे शहर में फैलने लगा। लोग उसे *"माँ सावित्री"* कहने लगे — एक ऐसा नाम जो सिर्फ एक व्यक्ति नहीं, एक विचार बन चुका था।

 

सरकार ने उसे *"नारी शक्ति सम्मान"* से नवाज़ा। मंच पर खड़ी सावित्री ने कहा:

*"मैं कोई महान नहीं हूँ। मैं बस एक माँ हूँ — और माँ कभी हार नहीं मानती।"*

 

उसकी कहानी अब किताबों में पढ़ाई जाती है। स्कूलों में बच्चे उसकी जीवनी से प्रेरणा लेते हैं। और हर बार जब कोई महिला संघर्ष करती है, तो लोग कहते हैं —

*"तू भी सावित्री बन सकती है।"*

 

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