रुहानी ने आवेश में कहा, “तुम कहाँ जा रही हो? ऐसे कदम मत उठाओ।”
रचना ने धीरे से उसकी बाँह पकड़ी और रोते हुए समझाने की कोशिश की, “रुहानी, life में ऐसे decisions लेकर सब कुछ खो दिया तो क्या मिलेगा? अपने माँ-बाप को सोचो — तुम उनकी इकलौती बेटी हो।”कई दिनों की रौशनी और कई रातों की नींद टूटने के बाद भी रुहानी के मन में वही डर और शर्म के दृश्य बार-बार लौटते थे। कॉलेज की पहली बारिश नहीं, बल्कि उन पाँच लड़कों की छीन-छाड़, बंद बाथरूम में झेलना — यही वह दृश्य था जो उसे चैन नहीं लेने देता था। किसी ने उसके कपड़े फाड़े, किसी ने उसे डराया, और किसी ने उसके कमरे की दीवार पर लफ्ज़ लिख दिए — ‘वेश्या’। पुलिस के पास जब रुहानी चली गयीं, तो कहानियाँ अलग थीं—कोई प्रवीण सबूत नहीं, कोई साफ़ गवाह नहीं। कोर्ट में जाने के लिए भी उनके पास कुछ हाथ नहीं था।“मैं अपने आप से बदला लूँगी,” रुहानी ने एक रात फुसफुसाकर कहा — और यही फुसफुसाहट उसके भीतर एक ठंडे, पक्के इरादे में बदल गई।
अगले दिन उसने अपनी बाकी सहेलियों को सब कुछ बताया। सच सुनकर, कॉलेज की 20 लड़कियाँ एक हुए। कुछ ने कहा, “सिस्टम जब चुप रहे, तो हम ही आवाज़ उठाएँगे।” आरती ने योजना बनायी — शाम की क्लास के बाद एक-एक कर के वे सब उन लड़कों को उसी बाथरूम में ले आयेंगी जहाँ सब कुछ हुआ था।शाम आई। योजना के अनुसार, रोशनियाँ बूझीं, पहले झटका लगा — स्टनिंग बातों और चप्पलों की आवाज़ों के बीच-बीच में लड़कों को मारा गया। लड़कियाँ छिपकर बैठीं और जब वे लड़के घबरा गए तो आँखों पर पट्टी बांधी गई और हाथ बंधे गये। फिर एक-एक कर के उन लड़कों के हाथों पर कुछ शब्द लिखे गये — सजा के रूप में, शर्म के रूप में — और उनके कपड़े निकाल दिए गये। सब चीज़ें कैमरे में कैद कर ली गयीं; पर यह तस्वीरें घृणा का सहारा नहीं थीं, बल्कि एक चेतावनी। बिना किसी टिप्पणी के, लड़कियाँ वहाँ से चली गयीं।अगली सुबह कॉलेज में अफ़रा-तफ़री मची हुई थी। उन लड़कों को याद था कि रात को क्या हुआ, पर अब वह सब हलके और समझदार दिखने लगे। किसी ने पुलिस को बुलाया, किसी ने रोना शुरू किया — पर असली सवाल वही था: क्या यह कदम सही था? रुहानी ने बदला लिया था, मगर क्या उसके अंदर का दर्द कम हुआ? या काँच की तरह टूट चुकी ख़ामोशी अब कुछ और तो नहीं उगल रही थी?
सुबह का सूरज कॉलेज की दीवारों पर अटका था, लेकिन भीतर अँधेरा और गहरा था।
हर तरफ फुसफुसाहट थी — “सुना तुमने? कल रात कुछ हुआ है स्पोर्ट्स अकैडमी के पास…”
प्रिंसिपल ऑफिस में पुलिस बैठी थी, और लड़के डरे हुए चेहरों के साथ नीचे झुके थे।रुहानी चुपचाप कोने में खड़ी थी। रचना उसके पास आई, “सब डर गए हैं, लेकिन तू ठीक है?”
रुहानी की आँखें सूखी थीं — आँसू जैसे अब कहीं रह ही नहीं गए थे।
“जो हुआ, उसे डर नहीं कहते रचना,” उसने धीमे से कहा,
“वो सज़ा थी — जो उन्हें समझ में आए, वही लिखा था उनके हाथों पर।”पुलिस ने सबको पूछताछ के लिए बुलाया। लड़कों की जुबान लड़खड़ा रही थी।
कोई कह रहा था, “हमें किसी ने मारा नहीं, बस डराया गया,”
तो कोई बोला, “हमें नहीं पता वो लड़कियाँ कौन थीं।”
कॉलेज प्रिंसिपल ने हाथ फैलाकर कहा, “ये सब हमारे संस्थान की बदनामी है। हम Internal Committee बनाएँगे।”
पर भीतर से वे खुद जानते थे कि अब इस कॉलेज में कोई भी लड़की चुप नहीं बैठेगी।शाम को हॉस्टल की छत पर, 20 लड़कियाँ फिर से मिलीं।
आरती ने कहा, “क्या अब हमें डर है?”
रचना बोली, “नहीं, अब डर उन्हें है।”
सबके चेहरों पर एक सन्नाटा-भरी राहत थी।
रुहानी ने आसमान की तरफ देखा —
सूरज ढल रहा था, पर उसे लगा जैसे कोई नया सवेरा उसके भीतर उग आया हो।
उसने मन ही मन कहा, “ये इन्तकाम नहीं था, ये मेरी आत्मा की आज़ादी थी।”
लेकिन नीचे ग्राउंड में वही लड़के किसी पत्रकार से बात कर रहे थे —“हमारे साथ भी गलत हुआ है… अब हम मीडिया में बताएँगे।”
और कैमरा उनकी तरफ घूम गया।
कॉलेज के बाहर मीडिया की भीड़ थी। कैमरे, माइक, सवाल — हर तरफ बस एक ही चर्चा:
“आर्यन कॉलेज में लड़कियों ने लिया बदला!”
रुहानी और बाकी लड़कियाँ हॉस्टल में बंद थीं। दरवाज़े पर गार्ड, अंदर जांच कमेटी।
प्रिंसिपल ने सख्त लहज़े में कहा,
“अगर ये साबित हुआ कि तुम लोगों ने हिंसा की है, तो सस्पेंशन तय है।”रचना ने हल्की हँसी के साथ कहा,
“जब हमें अपमानित किया गया था तब भी कोई कमेटी बनी थी क्या, सर?”
कमरे में सन्नाटा छा गया। कोई जवाब नहीं था।
शाम को पुलिस दोबारा आई। उन्होंने सबके मोबाइल लिए —
रुहानी के फ़ोन में वो तस्वीरें थीं, जिनमें लड़कों के हाथों पर लिखे शब्द दिखाई दे रहे थे।
“ये आपने ली हैं?”“हाँ, लेकिन हमने उन्हें चोट नहीं पहुँचाई — बस सबक सिखाया।”
पुलिसवाले ने ठंडी साँस ली, “कानून बदला नहीं समझता, बीटा।”
रचना आगे बढ़ी, “तो क्या कानून अपमान समझता है?”
उसकी आँखों में गुस्सा नहीं, बस थकान थी।अगले दिन कॉलेज का माहौल कुछ बदला-बदला था।
लड़के चुप थे, लड़कियाँ सिर ऊँचा करके चल रही थीं।
रुहानी को हर रास्ते पर कोई न कोई लड़की मुस्कुरा कर देखती — जैसे उसके भीतर की चुप्पी अब सबकी आवाज़ बन गई हो।
पर उस रात जब वह अकेली कमरे में थी,
आँखों के सामने वही पल लौट आए —
चीखें, ताने, डर… और फिर बदले की वो रात।
अब उसे खुद से सवाल था:
“क्या मैंने सच में शांति पाई है?
या मैं भी वही बन गई, जिससे मैं नफ़रत करती थी?”उसने आईने में खुद को देखा —
वही चेहरा, पर नज़रों में कोई नई ताक़त थी।
धीरे से बोली,
“शायद इंसाफ़ का रास्ता कभी आसान नहीं होता…
पर अगर हमारी आवाज़ ने किसी और को बचा लिया,
तो ये इन्तकाम नहीं, एक नई शुरुआत है।”कुछ हफ़्तों बाद कॉलेज ने नया “Anti-Ragging Committee” बनाया।
रचना और रुहानी को बुलाकर कहा गया,
“आप दोनों को Students’ Safety Council में शामिल किया जा रहा है।”
रचना ने मुस्कराते हुए कहा, “शायद यही असली जीत है।”
रुहानी ने खिड़की से बाहर देखा —
बारिश हो रही थी, पर इस बार वो डर नहीं, राहत की थी।
उसने मन ही मन कहा,
“अब किसी और रुहानी को टूटने नहीं दूँगी।”
तीन साल बीत चुके थे।
वो कॉलेज अब पहले जैसा नहीं था — हर कोने में सुरक्षा पोस्टर लगे थे, हर छात्रा की आवाज़ सुनी जाती थी।
कॉरिडोर के एक कोने में एक बैनर लगा था —
“Guest Speaker: Ms. Ruhani Sharma — Women’s Rights Counsellor”
हाँ, वही रुहानी।
अब उसके चेहरे पर वही पुराना डर नहीं था, बल्कि एक शांत आत्मविश्वास था।
उसने अपने दर्द को शब्दों में बदला, और अपने शब्दों को औरों की ढाल बना दिया।मंच पर आते ही तालियों की गूंज से हॉल भर गया।
रुहानी ने माइक पकड़ा और मुस्कराते हुए बोली,
“कभी मैं भी इस कॉलेज की एक चुप रहने वाली लड़की थी।
मुझे लगा था कि आवाज़ उठाने से लोग हँसेंगे, लेकिन जब हम चुप रहते हैं, तो लोग हमें तोड़ देते हैं।”
हॉल में सन्नाटा था। हर कोई उसके शब्दों में अपना अक्स देख रहा था।
“मैंने सीखा कि बदला कभी समाधान नहीं होता…
इंसाफ़ तब होता है, जब हम खुद को और मज़बूत बनाते हैं,
और किसी और को वो दर्द महसूस नहीं होने देते जो हमने झेला।”उसकी आँखों में आँसू थे, पर वो आँसू अब कमजोरी नहीं, ताक़त बन चुके थे।
कार्यक्रम के बाद कुछ लड़कियाँ उसके पास आईं।
एक ने कहा, “मैम, मैं भी बोलना चाहती हूँ… पर डरती हूँ।”
रुहानी ने मुस्कुराकर उसका हाथ थामा,
“डर हमेशा रहेगा, पर अगर तुम बोलोगी, तो डर छोटा हो जाएगा।”रात को जब वो अपने NGO के ऑफिस में बैठी थी,
टेबल पर एक फाइल रखी थी — “Project: Awaaz — Let’s Educate, Let’s Empower.”
वो रचना के साथ मिलकर एक नई मुहिम शुरू कर चुकी थी,
जहाँ हर लड़की को सिखाया जाएगा कि खुद की आवाज़ ही सबसे बड़ी ताक़त है।
खिड़की के बाहर हल्की बारिश हो रही थी —
वही बारिश, जो तीन साल पहले डर बनकर आई थी,
आज उसकी कहानी की स्याही बन गई थी।उसने डायरी खोली और लिखा —
“ज़िंदगी ने मुझे दर्द दिया,
मैंने उसे कहानी बना दिया।
और अब ये कहानी किसी और की हिम्मत बन रही है…”
रुहानी मुस्कुराई —
इन्तकाम अब खत्म नहीं हुआ था,
वो बदलाव में तब्दील हो चुका था।
(The End — A story of strength, healing, and new beginnings)