बहुत-बहुत पुरानी बात है, जब धरती पर राजाओं की सभ्यताएँ उग रही थीं और ज्ञान के दीप हर दिशा में जलते थे। उस समय उत्तर-पश्चिम की ओर फैले विशाल अरण्य में एक महान गुरुकुल था। वहाँ दूर-दूर से शिष्य आते, वेद और विज्ञान सीखते, धनुर्विद्या और नीतिशास्त्र में पारंगत होते, और फिर संसार में अपने-अपने मार्ग पकड़ लेते।
इन्हीं में एक बालक आया था। उसकी चाल साधारण थी, पर उसकी आँखों में कुछ विलक्षण था—जैसे गहरे जल में झाँकने पर शांति और रहस्य दोनों दिखते हों। जहाँ अन्य शिष्य सत्ता, युद्ध या वैभव की बातें करते, वहाँ यह बालक मौन बैठा रहता। दूसरों को लगता, वह भोला है। पर गुरु ने उसकी नज़र में कुछ और ही देखा।
वर्ष बीतते गए। साथी शिष्य बड़े हुए, शिक्षा पूरी की और विदा ले ली। कोई राजा का मंत्री बना, कोई योद्धा, कोई आचार्य। मगर यह शिष्य वहीं रह गया। उसने कहा—
“गुरुदेव, मुझे कहीं और जाने की चाह नहीं। मुझे यहीं रहकर सेवा करनी है।”
और सचमुच, वह सेवा करता रहा। छोटे शिष्यों को पढ़ाता, बीमारों की देखभाल करता, आश्रम की अग्नि और उपवन सँभालता। लेकिन जब रात का अँधेरा उतरता और सब सो जाते, तब वह नक्षत्रों की ओर देखता और घंटों ध्यान में डूब जाता।
धीरे-धीरे उसके भीतर एक और ही प्रश्न आकार लेने लगा।
वह सोचता—“यदि सब कुछ क्षणभंगुर है, तो जीवन का उद्देश्य क्या है? लोग धन, शक्ति और इच्छाओं के पीछे भागते क्यों हैं? क्या कोई ऐसा सत्य नहीं जो इन सबसे परे हो?”
एक रात, चाँदनी में नहाए आँगन में उसने गुरु से प्रश्न किया।
शिष्य: “गुरुदेव, यह जगत मुझे स्वप्न सा प्रतीत होता है। हर कोई मोह और माया की जंजीरों में जकड़ा है। मैं उस सत्य की खोज करना चाहता हूँ जो अटल है, जो कभी न बदलने वाला है।”
गुरु ने उसे ध्यान से देखा। फिर धीमे स्वर में बोले—
गुरु: “पुत्र, सत्य की खोज सरल नहीं। यह मार्ग तप का है—जहाँ अकेलापन तेरा साथी होगा और कठिनाई तेरी परीक्षा। यदि तेरे मन में दृढ़ निश्चय है, तो जा। जा उन उत्तरी पर्वतों की ओर, जहाँ हिम और निस्तब्धता सदा के साथी हैं—हिंदूकुश की पहाड़ियाँ। वहाँ गुफ़ाएँ तेरा इंतज़ार कर रही हैं।”
अगले ही दिन शिष्य ने गुरु को प्रणाम किया और निस्संग होकर निकल पड़ा।
जंगल, नदियाँ, बंजर मैदान पार करता हुआ वह पहुँचा उन ऊँचे शिखरों तक, जहाँ आकाश धुंध से मिलता था और ठंडी हवाएँ शरीर को चीर डालती थीं।
वहाँ, एक गहरी गुफ़ा के द्वार पर खड़े होकर उसने प्रतिज्ञा की—
“जब तक सत्य मेरे सामने प्रकट न होगा, मैं यहाँ से नहीं लौटूँगा।”
वह बैठ गया—नेत्र बंद, श्वास स्थिर, मन एकाग्र।
दिन बीते, फिर ऋतुएँ बदलीं, वर्ष बीत गए। बाहर साम्राज्य उठे और गिरे, नदियाँ अपने मार्ग बदलती रहीं, नगर बने और उजड़ गए। पर गुफ़ा के भीतर वही मौन था, वही ध्यान।
शिष्य समय की पकड़ से परे जा चुका था |
गुफ़ा अंधेरी थी, पर भीतर बैठा वह शिष्य मानो स्वयं प्रकाश का स्रोत बन चुका था।
आरंभिक दिनों में उसका शरीर ठंड और भूख से काँपता रहा। पर वह अडिग बैठा रहा। धीरे-धीरे उसका मन देह की पीड़ा से ऊपर उठने लगा।
पहली परीक्षा आई अग्नि की।
गुफ़ा के बाहर बिजली गिरी, तूफ़ान उठा, और पहाड़ पर आग भड़क गई। धुएँ और लपटों ने चारों ओर घेर लिया। सामान्य मनुष्य वहाँ टिक ही न पाता, पर वह तपस्वी आँखें बंद किए बैठा रहा। कुछ ही दिनों में अग्नि उसके भीतर शत्रु नहीं रही, बल्कि मित्र बन गई। उसकी देह अग्नि के ताप को सहने लगी। उसने अग्नि को आत्मसात कर लिया।
फिर आई जल की परीक्षा।
हिंदूकुश की पहाड़ियों पर बर्फ़ पिघली, मूसलाधार वर्षा हुई, और नदियाँ उमड़ पड़ीं। गुफ़ा जल से भरने लगी। कई दिन तक उसका शरीर डूबा रहा, पर उसने श्वास पर ऐसा नियंत्रण साध लिया कि पानी भी उसे परास्त न कर सका। जल उसके भीतर शांति बन गया।
तीसरी परीक्षा थी वायु की।
तूफ़ानी हवाएँ पहाड़ों को हिला देतीं। कई बार गुफ़ा के द्वार पर चट्टानें गिर पड़ीं। पर तपस्वी की श्वास इतनी स्थिर हो चुकी थी कि बाहर की आँधी उसके भीतर प्रवेश ही न कर सकी। उसने वायु पर अधिकार पा लिया।
सबसे कठिन परीक्षा थी मृत्यु की।
शरीर क्षीण हो चुका था, अस्थियाँ त्वचा से बाहर झाँकने लगीं। कई बार उसे लगा—अब जीवन का अंत निकट है। पर हर बार उसने भीतर से एक स्वर सुना, “सत्य की खोज मृत्यु से बड़ी है।”
उसने मृत्यु की आँखों में आँखें डाल दीं। मृत्यु ने हार मानी, और वह तपस्वी उस बंधन से भी मुक्त हो गया जिससे कोई मनुष्य नहीं बचता।
धीरे-धीरे वह देह से परे होता गया।
उसकी चेतना कभी हिमालय की चोटियों पर उड़ती, कभी नदियों के प्रवाह में बहती, कभी तारों के पार जाकर अनंत आकाश को छूती।
अनगिनत वर्षों की साधना के बाद तपस्वी का मन अब तत्वों से परे जा चुका था।
अग्नि ने उसे जलाया नहीं, जल ने उसे डुबोया नहीं, वायु ने उसे डिगाया नहीं, मृत्यु ने उसे हराया नहीं।
वह सोचने लगा — “तो क्या यही है मुक्ति? कि मैं तत्वों पर विजय पा लूँ?”
लेकिन भीतर से एक आवाज़ उठी — “नहीं। विजय ही सत्य नहीं है।”
और तभी उसे अनुभूति हुई —
सत्य कोई ऐसी चीज़ नहीं जिसे पाया जाए।
सत्य वही है जिसे इंसान बार-बार खोता है।
उसके सामने जैसे एक दर्पण खुल गया —
उसने देखा कि मनुष्य ही सृष्टि का निर्माता और विध्वंसक दोनों है।
देवता बाहर नहीं, भीतर हैं। असुर बाहर नहीं, भीतर हैं।
जब मनुष्य लोभ करता है, वही असुर बनता है।
जब करुणा करता है, वही देवता बनता है।
सत्य यह था —
“संसार में सबसे बड़ा बंधन बाहरी नहीं, भीतरी है।
माया बाहर नहीं, मन के भीतर है।
और जब तक मनुष्य स्वयं को जीत नहीं लेता, तब तक कोई तप, कोई धर्म, कोई साम्राज्य उसे मुक्त नहीं कर सकता।”
तपस्वी मुस्कुराया।
अब वह समझ गया —
उसका तप तत्वों पर विजय पाने के लिए नहीं था।
उसका तप केवल इस एक सीख के लिए था:
“सबसे बड़ा युद्ध मनुष्य का स्वयं से है। और वही युद्ध यदि हार गया, तो सब कुछ हार गया।”
उसने गहरी श्वास ली, आँखें खोलीं।
गुफ़ा का अंधकार अब उसे अंधेरा नहीं लगा — वह जान चुका था कि असली अंधकार बाहर नहीं, मनुष्य के भीतर छिपा है।
सदियों की तपस्या के बाद जब उसकी आँखें खुलीं, तो उसके भीतर का अंधकार टूट चुका था।
वह धीरे-धीरे उठा, और गुफ़ा के द्वार की ओर बढ़ा।
हवा ठंडी थी, आसमान पर हिमालयी बादल तैर रहे थे।
गुफ़ा के बाहर कदम रखते ही उसे लगा मानो धरती ने खुद उसका स्वागत किया हो।
उसने क्षितिज की ओर देखा, पहाड़ों के पार फैली हुई धरती पर —
और उसके मन में एक ही विचार गूंजा:
“यह ज्ञान केवल मेरा नहीं हो सकता। यदि मैंने इसे अपने भीतर ही कैद रखा, तो मेरी तपस्या व्यर्थ हो जाएगी।”
उसने अपने भीतर की शांति को महसूस करते हुए कहा:
“अब समय है कि इस दीक्षा को अपने लोगों तक पहुँचाऊँ।
अब समय है कि उन्हें दिखाऊँ कि सच्चा मार्ग बाहरी विजय में नहीं, भीतर की जीत में है।”
वह जान चुका था कि उसकी साधना सिर्फ़ व्यक्तिगत मुक्ति के लिए नहीं थी।
यह उसके युग, उसके लोगों, उसकी सभ्यता के लिए थी।
उसने हाथ से हिमालयी बर्फ को छुआ, मुट्ठी में उठाया, और धीरे से आकाश की ओर छोड़ दिया।
बर्फ़ की कणिकाएँ हवा में चमकीं — मानो उसकी प्रतिज्ञा ब्रह्मांड ने सुन ली हो।
और फिर उसने संकल्प लिया —
“मैं लौटूँगा। अपने लोगों के बीच। और उन्हें सही मार्ग पर ले जाऊँगा।”
तपस्वी ने गुफ़ा से बाहर कदम रखा।
हवा अब वैसी नहीं थी जैसी वह छोड़कर गया था—उसमें धुएँ, लोहा, और बेचैनी की गंध थी।
हिंदुकुश की चोटियाँ वही थीं, पर नीचे की धरती पर समय ने जैसे एक नया चेहरा उगा दिया था।
वह धीरे-धीरे उतरा, अपने मन में उस पुरानी भूमि की छवियाँ लिए जहाँ कभी गुरुकुल की घंटियाँ बजती थीं, जहाँ नदी किनारे शिष्य वेद गाते थे, जहाँ जीवन सरल और सत्य के निकट था।
पर अब...
जहाँ कभी आरण्यक रचनाएँ गूँजती थीं, वहाँ अब बंदूक की आवाज़ थी।
जहाँ वेदपाठ होता था, वहाँ अज़ान गूँज रही थी।
जहाँ कभी आर्यावर्त की मिट्टी महकती थी, वहाँ अब सरहदें थीं—नक़्शों पर खिंची हुई, मनुष्यों के दिलों में गड़ी हुई।
वह हैरान खड़ा रह गया।
उसकी आँखों के सामने वो भूमि थी, पर वह भूमि अब उसकी नहीं थी।
कंधार, जहाँ से उसका ज्ञान-मार्ग शुरू हुआ था, अब अफ़ग़ानिस्तान कहलाता था।
लोग नए वस्त्र पहने थे, नए नाम थे, नए विश्वास थे।
वह अपने पुराने गुरुकुल की जगह पहुँचा—
जहाँ कभी उसके गुरु ने उसे पहला मंत्र दिया था।
पर वहाँ अब केवल खंडहर थे।
पत्थरों के बीच झाड़ियों ने जन्म ले लिया था, और दीवार पर किसी ने लिखा था —
“ला इलाहा इल्लल्लाह।”
तपस्वी चुप रहा।
उसके भीतर न क्रोध उठा, न शोक—बस एक गहरा मौन।
वह समझ गया, यह वही धरती है, पर मनुष्य अब वही नहीं रहे।
समय ने न केवल सभ्यता बदली है, बल्कि स्मृति भी छीन ली है।
उसने आकाश की ओर देखा और धीरे से कहा —
“मैं हज़ारों वर्षों तक मौन रहा, और इस बीच मनुष्य ने सत्य से मुँह मोड़ लिया।
अब मेरी तपस्या का अर्थ यही है — इस अंधकार में फिर से प्रकाश जगाना।”
वह वहीं खड़ा रहा देर तक, उस टूटी हुई भूमि को निहारता हुआ।
हवा उसके चारों ओर घूमी, जैसे समय खुद उसके स्वागत में झुक गया हो।
तपस्वी उस पुराने गुरुकुल के खंडहर के सामने खड़ा था।
पत्थर ठंडे थे, हवा में राख और धूल मिली थी।
वह झुककर धरती को छूता है, आँखें बंद करता है, पर उसकी हथेली में अब मिट्टी नहीं, राख है।
तभी पीछे से एक आवाज़ आती है —
“बाबा, आप कौन हैं?”
तपस्वी मुड़ा।
एक बारह-तेरह साल का लड़का खड़ा था, सिर पर सफ़ेद टोपी, फटी कमीज़, और आँखों में जिज्ञासा।
वह मुस्कुराया, “मैं... यहाँ का हूँ।”
लड़के ने हैरानी से देखा —
“यहाँ का? पर यहाँ तो कोई नहीं रहता, यह तो पुराना खंडहर है। लोग कहते हैं, यहाँ जिन रहते हैं।”
तपस्वी मुस्कुराया, “हाँ, शायद रहते होंगे... यादों के जिन।”
फिर धीरे से पूछा, “बेटा, यहाँ पहले क्या था, जानते हो?”
लड़के ने कंधे उचका दिए —
“बुज़ुर्ग कहते हैं, बहुत पहले यहाँ किसी ‘हिंदू’ का मठ था... पर सब ख़त्म हो गया। अब तो लोग मस्जिद जाने लगे हैं। आप नमाज़ पढ़ते हैं?”
तपस्वी कुछ क्षण चुप रहा।
फिर बोला, “मैं ध्यान करता हूँ।”
लड़का कुछ समझ नहीं पाया।
“ध्यान? वो क्या होता है?”
तपस्वी ने मुस्कुराते हुए उसकी ओर देखा —
“जब मनुष्य अपने अंदर का शोर सुनना बंद कर देता है, तब जो सुनाई देता है... वही ध्यान है।”
लड़का कुछ देर तक उसे देखता रहा। फिर बोला,
“आप अजीब बातें करते हैं बाबा... पर अच्छी लगती हैं।”
वह भाग गया — जैसे कोई परछाईं के साथ खेल गया हो।
तपस्वी देर तक वहीं खड़ा रहा। हवा उसके चारों ओर घूमती रही,
और उसे पहली बार एहसास हुआ —
“सदियाँ बीत गईं, पर मासूमियत अब भी ज़िंदा है। शायद यही सबसे बड़ा सत्य है — समय बदलता है,
तपस्वी पहाड़ों से नीचे उतरा और एक छोटे से गाँव में पहुँचा।
वह गाँव कभी उसके गुरुकुल के आसपास ही बसा था — अब वहाँ मिट्टी की दीवारों पर अरबी लिखावट थी, गली में बच्चे ऊँची आवाज़ में खेल रहे थे, और हर घर के बाहर हुक्के और झगड़े का धुआँ था।
लोग एक-दूसरे से बहस कर रहे थे — कोई धर्म के नाम पर, कोई ज़मीन के नाम पर।
औरतें अपने बच्चों को डराकर चुप करा रही थीं, “चुप रहो नहीं तो दूसरे मज़हब वाले पकड़ लेंगे।”
तपस्वी ठिठक गया।
वह इन शब्दों को सुन नहीं पा रहा था।
यह वही भूमि थी जहाँ कभी लोग सत्यं वद, धर्मं चर कहते थे।
अब वहाँ “हम” और “वो” की दीवारें खड़ी थीं।
वह एक बुढ़े आदमी के पास गया जो मस्जिद के बाहर बैठा था।
“बाबा,” तपस्वी ने पूछा, “यह जगह इतनी बँटी-बँटी क्यों लगती है?”
बूढ़ा हँस पड़ा — सूखी, टूटी हुई हँसी।
“क्योंकि अब आदमी ईश्वर को नहीं ढूँढता... बस यह साबित करना चाहता है कि उसका ईश्वर दूसरे से बड़ा है।”
तपस्वी ने उसकी आँखों में देखा —
वह दर्द वही था जो सदियों पहले उसने छोड़ा था।
वह समझ गया कि सभ्यता आगे नहीं बढ़ी... बस नए नामों में पुराने ज़हर भर दिए गए हैं।
वह गाँव की गलियों से गुज़रा।
कहीं मंदिर के टूटे अवशेष थे, कहीं मस्जिद की नई दीवारें।
कहीं बच्चे पत्थर फेंकते हुए एक-दूसरे को “काफ़िर” और “मूर्तिपूजक” कह रहे थे।
उसके भीतर आग उठी।
पर वह जानता था — यह आग वही नहीं थी जो तप में जलती थी।
यह दुनिया की आग थी — नफ़रत की।
वह रुक गया, दोनों हथेलियाँ जोड़कर आसमान की ओर देखा और धीरे से कहा —
“प्रभु, मैंने अग्नि को साधा, जल को समझा, मृत्यु से भी पार हुआ...
पर इस नफ़रत को कौन साधेगा?”
हवा चली, और उसके वस्त्र लहराए — जैसे पहाड़ भी उसके दर्द को सुन रहे हों।
उसने संकल्प लिया —
“मैं फिर तप करूँगा, पर इस बार मनुष्यों के बीच
गाँव की मस्जिद के बाहर लोग जमा थे।
एक ऊँची दाढ़ी वाला मौलवी, सफ़ेद कपड़ों में, कुरान की आयतें पढ़ते हुए सबको समझा रहा था —
“काफ़िरों से दूर रहो, यह ज़मीन हमारी है, हमारी आस्था ही सच्ची है।”
तभी भीड़ के बीच से तपस्वी आगे बढ़ा।
धूल में लिपटा हुआ, चुपचाप खड़ा हो गया।
कुछ लोग पीछे हटे, कोई बोला, “कौन है ये?”
मौलवी ने उसकी ओर देखा —
“कौन हो तुम बूढ़े? तुम्हारा कोई मज़हब है?”
तपस्वी ने शांत स्वर में कहा,
“था... पर अब सिर्फ़ सत्य बचा है।”
मौलवी हँसा, “सत्य? सत्य तो वही है जो अल्लाह ने फ़रमाया है।”
तपस्वी ने धीरे से सिर हिलाया,
“हर युग में मनुष्य यही कहता आया है —
सत्य मेरे पास है।
पर जब हर कोई अपने सत्य को लेकर लड़ने लगे,
तो असल सत्य मर जाता है।”
मौलवी की आँखें सिकुड़ीं,
“तुम हमारे ईमान पर शक करते हो?”
तपस्वी ने जवाब दिया,
“नहीं, मैं तुम्हारे ईमान पर नहीं, तुम्हारे डर पर बात कर रहा हूँ।
जो ईश्वर में सचमुच विश्वास करता है,
वो किसी और के ईश्वर से क्यों डरता है?”
भीड़ में सरगोशियाँ फैल गईं।
कुछ लोगों के चेहरे पर उलझन थी, कुछ पर गुस्सा।
मौलवी उठ खड़ा हुआ, “तुम फ़ितना फैलाने आए हो!
यहाँ शांति है, हमारी रूह में ईमान है।”
तपस्वी ने बस एक वाक्य कहा —
“जहाँ डर है, वहाँ ईमान नहीं होता। जहाँ नफ़रत है, वहाँ ईश्वर नहीं रहता।”
मौलवी कुछ पल के लिए खामोश हो गया।
उसकी आँखों में वो आदमी नहीं, कोई अजनबी युग खड़ा था — जो न झुकता था, न डरता था।
फिर तपस्वी ने मुड़कर आसमान की ओर देखा,
“मैं लौटकर आया हूँ, ताकि लोग फिर से याद करें —
ईश्वर को नहीं, इंसान को पूजना सीखो।”
वह धीरे-धीरे भीड़ से निकल गया।
पीछे मौलवी के शब्द खो गए, बस हवा में वही वाक्य गूंजता रहा —
“जहाँ डर है, वहाँ ईश्वर नहीं।”
गाँव से निकलकर तपस्वी दूर चला गया।
पगडंडी के किनारे एक विशाल पीपल का पेड़ था
वहीं जाकर वह बैठ गया।
हवा ठंडी थी, पर उसकी देह अडिग और जवान थी।
उसने आँखें बंद कीं, और दुनिया का शोर धीरे-धीरे मिटने लगा।
धीरे-धीरे उसके मन में समय की धारा बहने लगी।
सदियाँ, राजवंश, युद्ध, धर्म, सभ्यता—सब उसकी आँखों के सामने घूमने लगे।
लोग मिट्टी से उठते, नगर बनाते, फिर वही नगर मिट्टी में लौट जाता।
राजा बनते, युद्ध होते, धर्म गढ़ते, और फिर वही रक्त किसी नए धर्म की नींव बन जाता।
अशोक ने शांति के लिए युद्ध छोड़ा, अकबर ने सत्ता के लिए ईश्वर को तोला, और कई ने आज़ादी के नाम पर अपने ही भाइयों का खून बहाया।
उसने सब देखा—आर्य, मौर्य, मुगल, अंग्रेज़—और अब नए झंडे, नए नारे।
हर युग बदल गया, पर मनुष्य वही रहा—अपने अहंकार और लालच में बँधा।
लेकिन अब तपस्वी केवल साक्षी नहीं था।
तपस्या ने उसे शक्ति दी थी—शरीर और मन पर नियंत्रण, तीक्ष्ण दृष्टि, और उम्र की पकड़ से मुक्त कर दिया था।
वह इतिहास को देख सकता था, महसूस कर सकता था, और अब उस पर निर्णय लेने और हस्तक्षेप करने की क्षमता रखता था।
पीपल की छाँव में बैठकर उसने मन ही मन कहा—
“अब मेरी तपस्या केवल देखना नहीं, बल्कि जगाना है।
मैं शक्ति के साथ आगे बढ़ूँगा और लोगों को सही मार्ग दिखाऊँगा।
जो अंधकार उनके मन में फैला है, उसे मैं चुनौती दूँगा।”
पक्षी लौट आए, हवा शांत हुई, और उसके चारों ओर समय भी मानो ठहर गया था।
तपस्वी उठ खड़ा हुआ—चेहरा जवान, देह अडिग, आँखों में गहन शक्ति।
वह अब केवल तपस्वी नहीं, एक शक्तिशाली साक्षी और मार्गदर्शक बन चुका था।
पीपल की छाँव से उठकर तपस्वी ने घोड़े की लगाम संभाली और लंबी सड़क पर निकल पड़ा।
आसमान पर हल्का चाँद था, हवा में ठंडक, और चारों ओर सन्नाटा।
घोड़ा धीरे-धीरे चल रहा था, मानो वह भी जानता हो कि यह रास्ता सिर्फ़ चलने का नहीं, समझने का है।
कई मीलों तक पहाड़ियों और सूखे खेतों को पार करने के बाद, तपस्वी को दूर एक छोटा-सा ज़ोपड़ा दिखाई दिया।
मिट्टी और घास से बना, उसके दरवाज़े पर एक पीली-सी लालटेन टिमटिमा रही थी।
रात गहराती जा रही थी; ठहरने की जगह चाहिए थी।
तपस्वी घोड़े से उतरकर दरवाज़े तक आया और हल्के स्वर में आवाज़ लगाई।
“कौन है?” अंदर से थकी-सी स्त्री-आवाज़ आई।
“राहगीर हूँ,” तपस्वी ने शांत स्वर में कहा। “रात गुज़रने तक बस आश्रय चाहिए।”
कुछ क्षण चुप्पी रही। फिर दरवाज़ा धीरे-धीरे खुला।
एक औरत बाहर निकली — साधारण कपड़े, चेहरे पर थकान, पर आँखों में नरमी।
उसने तपस्वी को देखा, घोड़े को देखा, फिर बिना कुछ पूछे बोली —
“आ जाइए, रात है… बाहर ठंड बढ़ रही है।”
तपस्वी अंदर आया।
ज़ोपड़े के भीतर मिट्टी का चूल्हा था, कोने में एक छोटा-सा बिस्तर, और फर्श पर दो पुराने बर्तन।
एक बच्चा कोने में चुपचाप बैठा था — बड़ी आँखों से अजनबी को देख रहा था।
औरत ने तपस्वी को बैठने को कहा और चूल्हे से खाना निकालकर रखा — सूखी रोटी और दाल।
तपस्वी ने चुपचाप आभार में सिर झुकाया और खाने लगा।
खाते-खाते उसने पूछा, “तुम्हारे घर में और कौन-कौन है?”
औरत कुछ देर चुप रही।
फिर धीमे स्वर में बोली, “बस मैं और यह बच्चा। उसके बाप… लड़ाई में मारे गए।
हम दोनों ही बचे हैं। यही ज़िंदगी काट रहे हैं।”
तपस्वी ने उसे देखा।
उसकी आँखों में न दया थी, न विस्मय, बल्कि गहरी समझ।
वह जानता था कि यह सिर्फ़ एक औरत की कहानी नहीं, उस समय के हजारों-लाखों लोगों की कहानी है —
जिन्होंने घर, धर्म, और अपने लोग सब खो दिए थे, और अब किसी तरह साँस ले रहे थे।
उसने धीरे-से कहा, “तुमने जो सहा, वह तुम्हारा दोष नहीं।
पर यह समय ऐसा है कि निर्दोष भी जलते हैं।”
औरत ने कुछ नहीं कहा।
बस अपने बच्चे को पास खींच लिया और चूल्हे की आँच बढ़ा दी।
ज़ोपड़े के बाहर हवा तेज़ हो रही थी, पर भीतर एक अजीब-सी शांति थी।
तपस्वी ने मन ही मन सोचा —
“यही वह दर्द है जिसे मैं रास्ते में देखूँगा। यही वह ज्वाला है जिससे मेरा संकल्प मज़बूत होगा।”
उस रात वह उसी ज़ोपड़े में ठहरा —
घोड़ा बाहर बँधा था, और भीतर तपस्वी, वह औरत और उसका बच्चा;
तीनों के बीच कोई शब्द नहीं, पर समय की गवाही सब दे रहे थे।
सुबह की हल्की धूप ज़ोपड़े की मिट्टी पर पड़ रही थी।
घोड़ा बाहर खड़ा था, और हवा में थोड़ी हलचल थी।
तपस्वी धीरे-धीरे जागा, चूल्हे की राख पर अपनी आँखें फेरते हुए।
औरत अपने बच्चे के साथ चुपचाप बैठी थी, जैसे रात की ठंडी हवा और डर अब भी उसकी नसों में उतर गया हो।
तभी बाहर से जोर-जोर की आवाज़ें आईं।
“चलो, ये औरत हमारे साथ आएगी!”
तपस्वी खड़ा हो गया और दरवाज़े की ओर दौड़ा।
कुछ आदमी ज़ोपड़े की ओर बढ़ रहे थे। उनके हाथ में लाठी और गले में धमक थी।
वह धीमे लेकिन गहरी आवाज़ में बोला—
“रुको!”
आदमी हँसे, “तुम कौन हो, बाबा? हट जाओ, ये तुम्हारा काम नहीं!”
तपस्वी ने कदम बढ़ाया।
उसकी आँखों में इतनी तीव्रता थी कि हवा में झुलसी हुई सी आवाज़ गूँजने लगी।
उसके हाथ में हल्की मुद्रा बनते ही एक अदृश्य शक्ति फैल गई —
धरती, हवा और हवा की ऊर्जा उसके चारों ओर घुम गई, और आदमी एक क्षण के लिए ठहर गए।
फिर तपस्वी ने तेज़ स्वर में कहा—
“एक कदम और, और तुम पछताओगे।”
आदमी पीछे हटे, पर एक ने धक्का दिया।
तपस्वी ने केवल एक हाथ उठाया — और वह आदमी ज़मीन पर गिर पड़ा, बिना किसी चोट के, पर पूरा शरीर जैसे किसी अदृश्य ताकत से स्थिर कर दिया गया।
बाकी लोग डर के मारे भाग खड़े हुए।
तपस्वी ने औरत की ओर देखा।
“डरो मत,” उसने कहा, “अब तुम सुरक्षित हो। बच्चे को पास रखो।”
औरत हँस पड़ी, आँसुओं में राहत थी।
“धन्यवाद… तुम कौन हो?”
तपस्वी ने मुस्कुराया, “मैं बस एक राहगीर हूँ, जो गलत को रोकना जानता है।”
बच्चा पास आया और तपस्वी के हाथ को पकड़कर बोला,
“आप हमारे लिए देवता हैं।”
तपस्वी ने हल्का सिर हिलाया, पर मन ही मन जानता था—यह केवल शुरुआत है।
रास्ता लंबा था, कुंभ अभी दूर, और इस यात्रा में उसे और भी दर्द, और भी अन्याय देखने को मिलेगा।