कई अनुसंधान और विश्लेषण से ये संकेत मिलते है कि मानव देह पचास साल तक या उससे कुछ ऊपर तक मन के अधीन काम करती है। एक उम्र की सीमा रेखा पार होने के बाद शरीर क्षय होती जिंदगी का अनुभव करने लगता है, इस अहसास के साथ की उसका इस संसार में अंतिम पड़ाव शुरु हो चुका है। कुछ ज्ञानी इसका अहसास कर लेते और अपने जीवन को आध्यात्मिक दर्शन से सलोना, सौम्य आकार देने की कोशिश में लग जाते है ।
एक उम्र तक तन, मन के अधीन काम कर चुका होता है, स्वाभाविक है, मन की दासता, आदत बन देह के परिवर्तन को अंदर से तमाम उम्र स्वीकार नहीं कर पाती। मन की किसी आज्ञा का पालन न कर देह, अपनी नई स्थिति के अनुसार मन से पूर्ण स्वतंत्रता चाहने लगती है। देह हर उस स्थिति का विरोध करती जो उसकी घटती क्षमता को अब मान्य नहीं होती। ऐसी स्थिति में हर देहधारी कहता उसकी इच्छा (मन) अनुसार अब उसका शरीर साथ नहीं देता है। कभी कभी ऐसी स्थिति पचास से पूर्व भी आ जाती है।
शरीर का मनोविज्ञान एक ऐसा अध्ययन क्षेत्र है जो मन (मानसिक प्रक्रियाओं और भावनाओं) और शरीर (शारीरिक कार्यों और शारीरिक प्रतिक्रियाओं) के बीच जटिल अंतः क्रियाओं का पता लगाता है। यह अध्ययन यह जानने की कोशिश करता है कि मन कैसे शरीर को प्रभावित करता है और शरीर कैसे मन को प्रभावित करता है ?
Bodily Psychology: यह शब्द शरीर और मन के बीच संबंध का अध्ययन करता है। यह बताता है कि कैसे शरीर हमारे विचारों, भावनाओं और व्यवहार को प्रभावित करता है और इसके विपरीत काम करने लगता है।
हमारा उद्देश्य यहां सीमित है, हम यहां जानना चाहते है, ऐसी स्थिति कब और क्यों बनती जब हम शरीर के साथ मन का समन्वय अंतिम क्षण तक क्यों नहीं कायम रख सकते है ? सवाल श्रेष्ठ है, उत्तर भी उससे श्रेष्ठ यह है, "शुरुआत की असंयमित जीवन शैली देह को भोगी बना देती है और अति भोग, देह की क्षमता को कमजोर करता रहता है। स्थिति ये आ जाती है कि मन और देह की आंतरिक कलह इंसान को हताशा के नर्क में ले जाकर उसे असंतोषी, चिड़चिड़ा बना, अति गहन गुणांक बीमारियों में उलझा देती, जिससे उसके मन को मरना पड़ता है। मन इतना अधमरा हो जाता कि उसके पास साहस नगण्य रह जाता। तब जीवन कई तरह के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों क्षणों में असंतुलित हो जाता है।
आधुनिक युग में साधनों की अधिकता इंसान को हर दिन नई इच्छाओं का स्वादिष्ट जहर पिलाता रहता है। मन जब इच्छाओं की पूर्ति की मांग करने लगता तो उसके अच्छे साथी विवेक,चेतना, संयम, चिंतन और धैर्य से इतनी दूरी हो जाती कि वो असहाय हो जाते है।परंतु इंसान ये जानकर भी अनजान रहता की साधनों की विस्तृता पर कोई रोक नही है, परन्तु उम्र की तो सीमितता है।
संक्षिप्त में अगर हम मन और इच्छाओं की पूर्णता पर गौर नहीं करते है, तो अवसाद के क्षण हर पल हमें सहज नहीं रहने देंगे। संत, महात्माओं ने जिंदगी की इस कमजोरी को समझा। कबीर दास जी इस दोहे से ऐसा अनुभव किया जा सकता है।
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ।।
भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि माया धन और इंसान का मन कभी नहीं मरा, इंसान मरता है शरीर बदलता है लेकिन इंसान की इच्छा और ईर्ष्या कभी नहीं मरती।
विज्ञान की बात करे तो उसने मन स्थिति में देह की भूमिका को इतनी अहमियत नहीं दी क्योंकि देह एक संचालित प्रणाली के अंतर्गत ही अपने कार्य को निभाने की कोशिश करता है। शरीर का एक अंग, कभी कभी अपनी धौंस शरीर पर जमाने की कोशिश करता, वो है , "हमारा दिल", जो मन की चापलूसी समय समय पर करता नजर आता है।
ये बात यहां थोड़ी हमें समझनी पड़ेगी कि दिल और मन क्या अलग है ? हकीकत कहती दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू है। दिल को अपने होने का अहसास नहीं देना पड़ता, मन अदृश्य होकर इंसान को आतंकवादी तक बना देता है। कुछ भावुक तत्व मन को अंतर्मुखीय प्रणाली से रोचक, दयनीय और कभी कभी भयानक संकल्प से युक्त कर देता है। प्रेम, भक्ति, दया, धर्म जैसे सकारात्मक भाव मन को पवित्रता और संतोष का भाव देते है। लालसा, घृणा, झूठ, मक्कारी और अंहकार जैसे तत्व मन को बीमारियों से ग्रसित कर दुःख और अवसाद जैसी स्थिति की और ले जाते है।
हम कितनी ही ज्ञान की बाते कर ले पर देह बिना न आत्मा का, न ही मन का कोई अस्तित्व है। दोनों ही देह के कारण महत्वपूर्ण है, इसलिए सबसे पहले दैहिक धर्म को जानना और उसको मानना हर प्राणी को कर्तव्य है। इनके विपरीत हो जाने से जीवन अस्तित्व ही खतरे में आ जाता है। देह धर्म क्या है ? संक्षिप्त शब्दों में समझे तो कहे, देह धर्म शरीर को निरोग रखना, मन को संयमित और आत्मा को पवित्र रखना है। कई और विकल्प होते है, जो समय के अनुसार हमारी देह को स्वस्थ रखने की जरूरत के लिए परिस्थितियों के अनुसार अपनाने होते है। वैसे तो इंसानी देह एक जैसी होती पर कुछ आंतरिक तत्व जो सिर्फ देह को संचालित करते अलग अलग होते है। आत्मिक और मन बोध सभी प्राणियों का आंतरिक और एक ही तरह का होता है, नहीं तो जीवन विवादात्मक और सार रहित हो जाता। सृष्टि के निर्माण कर्ता नहीं चाहता था, उसकी बनाई दुनिया किसी संदेह के तहत चले और उसकी मान्यता न हो।
कर्म ही एक तत्व है जिसके द्वारा किसी भी प्राणी की उपयोगिता स्थापित होती है, बिना उपयोगिता ऐसा कोई तत्व नहीं जिस पर अंगुली उठाई जा सके, बिना किसी कारण के। समय के अनुसार मानव देह में शुरुआती परिवर्तन के अलावा कोई भी परिवर्तन नहीं हुआपरन्तु मन और आवश्यकता की वस्तुस्थिति में तेजी से बदलाव आ रहा, जिसका रुकना अभी सहज नहीं लग रहा। जिंदगी को बदलने में सूचना तंत्र का तेजी से विस्तार होना प्रमुख कारण है। इंसानी जरूरतों की न खत्म होने वाली प्यास ने सारी मानवीय संवेदनाओं को निम्नतम स्तर तक का सफर करा दिया है। कभी कभी तो ये शंका हो जाती, कहीं हम इंसानियत विहीन होकर तो नहीं जी रहे है।
जीवन सार यही है, कुछ अवधि तक मिला, इंसानी शरीर अपनी अनेक सूक्ष्म विशेषताओं के बाद भी अनचाही आकर्षक चाहतों से विलासिता को अपना कर, गलत वासनाओं केमक़डी जाल में ऐसा उलझता की बिना मूल्य का होकर इस संसार से अनन्त काल के लिएप्रभु के इस सुंदर संसार से विदा हो जाता। इसलिए, प्रभु कई वेदनाओं के तहत हमें सांकेतिक चेतावनी भी देते परन्तु सवाल वही है, हम समझदार है, ही कितने ?
"Birth is not begining, Death is not the end."
लेखक **कमल भंसाली**