अमन हर हफ्ते अपनी जेब में एक छोटी-सी लाल डायरी रखता था, जिसमें पूरे सप्ताह उसे मिले अन्याय की सूचियाँ लिखी रहतीं—किसी का रिश्वत मांगना, किसी का कमजोर पर हाथ उठाना, किसी का सच को झूठ में दबा देना। वह हर नाम के आगे बस एक तारीख नोट करता—आगामी शनिवार। यह उसकी माँ की आख़िरी सीख का निभाया हुआ समझौता था: “गुस्सा हर दिन मत जी, उसे एक दिन का व्रत बना—और उस दिन सच के साथ खड़ा रहना।”
उस शनिवार सुबह, शहर धुंध में लिपटा था। अमन ने डायरी खोली—पहला नाम: महाजन, जो झुग्गी के बच्चों की किताबों की सप्लाई में आधी रकम काट लेता था; दूसरा: धीरज, जो अपने यूनिट में महिलाओं की ओवरटाइम पगार रोकता था; तीसरा: थाना प्रभारी राघव, जो दोनों की फाइलें महीनों से दबाकर बैठा था। तीन नाम, एक दिन। अमन जानता था कि घड़ी सख़्त है और उसका प्रण भी। रात बारह से पहले फैसला होना है।
पहला पड़ाव महाजन की गोदाम-सी ऑफिस। अमन ने ट्रक के बिल, वेयरहाउस के सीसीटीवी और बच्चों के नाम लिखे कागज़ एक फोल्डर में बाँध रखे थे। “रक़म लौटाओ और नया टेंडर साफ़ तरीके से—वरना ये फाइल बच्चों के हक़ में कोर्ट पहुँचेगी,” उसने शांत स्वर में कहा। महाजन हंसा, पर फोल्डर में जमा सुबूत और बाहर गेट पर खड़े कुछ अभिभावकों की आँखों का भरोसा उसे काँपने लगा। उसने उसी वक्त चेक काटा और सप्लाई का रेट पुराना किया। अमन ने डायरी में महाजन के नाम पर एक टिक लगाया—“हल हो गया।”
दूसरा नाम धीरज। फैक्ट्री की सायरन गूँजी तो औरतें लाइन में खड़ी थीं, पगार लिफ़ाफ़े हल्के। अमन ने यूनियन के नियम, लेबर कमिश्नर की गाइडलाइन और पेरोल के स्क्रीनशॉट सामने रखे। “या तो अभी ओवरटाइम दो, या आज रात जांच टीम आएगी।” धीरज ने मोल-भाव किया, पर भीतर से वह भी जानता था कि पेपर-ट्रेल साफ़ नहीं। एक-एक लिफ़ाफ़ा भरते हुए वह बड़बड़ाया, “किस शनिवार को आया है तू!” अमन मुस्कुराया—“सही शनिवार।” दूसरी टिक लग गई।
अब बचा राघव। थाने के बाहर शाम उतर रही थी। अमन की दोस्त काव्या—जो लीगल ऐड क्लिनिक में वालंटियर थी—फाइलों का पुलिंदा लेकर आई। “अगर डर लगे तो वापस चल,” उसने कहा। अमन ने सिर हिलाया, “डर को भी शनिवार मिला है।” दोनों अंदर गए। राघव ने कुर्सी पीछे झुकाई, “कानून सिखाने आए हो?” अमन ने बारी-बारी से केस नंबर, अर्ज़ी की रसीदें और तारीखें टेबल पर रखीं। “तीनों फाइलें आज अनहोल्ड होंगी, वरना कल सुबह मीडिया सेल और विजिलेंस।” कमरे में चुप्पी घुल गई। बाहर दीवार-घड़ी की सेकेंड सुई दौड़ रही थी।
एक मिनट, दो मिनट, फिर राघव उठ खड़ा हुआ। “डायरी बंद कर दे, दुनिया ऐसे नहीं बदलती।” अमन ने धीरे से कहा, “दुनिया नहीं, बस आज का दिन चाहिए।” उस रात 11 बजकर 42 मिनट पर रजिस्टर खुला, स्टैम्प पड़ा, और तीनों फाइलें चालू कार्रवाई में दाखिल हो गईं। तीसरी टिक भी लग गई। बारह बजने में आठ मिनट बाकी थे। शहर की सड़कों पर ठंडी हवा चल रही थी। अमन और काव्या ने चाय ली। “अगले शनिवार किसका नाम होगा?” काव्या ने पूछा। अमन ने डायरी बंद करते हुए कहा, “उम्मीद है किसी का नहीं—पर अगर होगा तो वही जिसका हक़ दबा हो।” घड़ी ने बारह बजाए। शनिवार का व्रत पूरा हुआ, और शहर ने हल्की-सी साँस ली—शायद अगला हफ्ता थोड़ी ईमानदारी के साथ शुरू होगा।