सुबह का पहला उजाला अभी धरती को छू भी नहीं पाया था। ओस की बूंदें अभी भी हरे पत्तों के सिरों पर झूल रही थी। एक हल्की सी हवा आई और मेरे चारों ओर मिट्टी की खुशबू फैल गई। मैं ‘एक चींटी’, अपने छोटे से टीले के बाहर खड़ी थी। मेरा शरीर छोटा था, पर दुनिया बहुत बड़ी लगती थी। हर दिन, हर पल, कुछ नया देखने को मिलता था। कभी कोई रेंगती इल्लियां, कभी कोई गिरे हुए रोटी के टुकड़े, कभी किसी बच्चे की हँसी, तो कभी एक भारी पांव की छाया। हमारे लिए जीवन का मतलब है… सिर्फ ‘चलते रहना’। हमारे पास कोई धर्म नहीं, कोई तर्क नहीं, कोई दर्शन नहीं। बस कुछ रास्ते है, जिन्हें हमने बार-बार चलकर सीखा हैं। कहाँ खाना है, कहाँ खतरा है, बस यही हमारी समझ हैं। मुझे याद है, एक बार बारिश के पहले दिन, हम सबने मिलकर मिट्टी के नीचे एक नया रास्ता बनाया था। हर कोई अपनी दिशा में काम कर रहा था। कोई किसी से बड़ा नहीं, कोई छोटा नहीं, सबका उद्देश्य एक ही था… ‘जीवित रहना’, वो भी सामूहिक रूप से। मुझे कभी यह नहीं लगा कि मैं ‘महत्वपूर्ण’ हूँ। मेरी मृत्यु से किसी को फर्क नहीं पड़ता, मेरे जन्म से कोई उत्सव नहीं मनाता। और यही तो सबसे सुंदर हैं क्योंकि जब तुम्हें कोई पहचान नहीं चाहिए, तब तुम सच में मुक्त होते हो। हमारे ऊपर से इंसानों के कदम गुजरते रहते हैं। कभी कोई कुचल जाता है, कभी कोई बच निकलता है पर यहाँ किसी की यात्रा अधूरी नहीं होती क्योंकि अधूरापन तो सोच से आता है और हमारे पास सोच नहीं, बस ‘जीवन’ हैं। मुझे वो दिन याद है, जब मैं पहली बार किसी मीठी चीज़ तक पहुँची थी। किसी इंसान के झोले से गिरा चीनी का एक दाना, मेरे लिए वो जैसे पूरा पर्वत था। मैं उस पर चढ़ी, उसे महसूस किया और फिर अकेली नहीं रही, देखते ही देखते मेरे दर्जनों साथी आ गए। हमने मिलकर उसे अपने घर की ओर ले जाना शुरू किया। कभी वो गिरता, कभी हम गिरते, पर हम रुके नहीं। उस दिन पहली बार मैंने ‘साथ’ को समझा। ना किसी शब्द में, ना किसी वादे में… बस चलने में, बस उठाने में और बस बांटने में। इंसानों को देखती हूँ कभी, वो भी भागते हैं, दौड़ते हैं, गिरते हैं, फिर उठते हैं। पर उनके चेहरों पर एक बोझ रहता है, जैसे उनका हर कदम किसी माप में बंधा हुआ है। शायद वो सोचते हैं कि उन्हें किसी मंज़िल तक पहुँचना है, जबकि असल में हर मंज़िल उसी मिट्टी में घुल जाती है जहाँ से वो चले थे। हम चींटियाँ ऐसा नहीं सोचतीं। हमारे लिए रास्ता ही मंज़िल है और चलना ही प्रार्थना है। मुझे याद है, एक बार मैं रास्ता भटक गई थी। चारों ओर घना अंधेरा था, बारिश शुरू हो चुकी थी। पानी की बूंदें मेरे शरीर से बड़ी थी, हर बूंद मुझे उड़ा देने के लिए काफी थी। मैं मिट्टी के एक कण से चिपकी रही, इतनी देर तक कि मैं खुद को ही भूल गई। ना डर, ना आशा, बस अस्तित्व। जब बारिश रुकी, मैंने अपने टीले की ओर लौटने की कोशिश की। हर रास्ता नया लग रहा था, हर गंध बदल चुकी थी। मैं अपने किसी साथी से नहीं मिली, शायद वो सब दूसरी दिशा में निकल गए थे। मैं कई दिन अकेली रही। खाना ढूँढा, खुद के लिए रास्ते बनाए। धीरे-धीरे मैंने समझा कि “साथ” भी तब तक है, जब तक तुम खुद को नहीं खोते। पर जब तुम खुद को पाते हो, तो पूरी प्रकृति तुम्हारा साथ बन जाती है। एक दिन, मैं फिर उसी जगह पहुँची, जहाँ से मैंने पहली बार सूरज को देखा था। मुझे लगा, मैं फिर से शुरुआत पर लौट आई हूँ, लेकिन अब सब कुछ वैसा नहीं था, शायद मैं बदल गई थी। और फिर… वो दिन आया। एक इंसान का पाँव मेरे ऊपर पड़ा। मुझे दर्द नहीं हुआ, बस एक हल्की गर्मी महसूस हुई, जैसे सब कुछ रुक गया हो। उस एक पल में मैंने जो देखा, वो हजारों सूर्योदयों से ज़्यादा सुंदर था। मुझे महसूस हुआ कि मैं मिट्टी में मिल रही हूँ, जैसे पानी में नमक घुल जाता है। कोई भय नहीं, कोई ‘क्यों’ नहीं। बस एक शांति, जैसे अस्तित्व ने खुद को गले लगा लिया हो। अब जब मैं “नहीं हूँ,” तो भी मैं हूँ… हर उस ज़र्रे में, हर उस धूल में, जहाँ कोई नई चींटी जन्म लेती है। हमारा जीवन कभी छोटा या बड़ा नहीं होता, वो तो बस होता है और होना, यही तो सबसे सुंदर अनुभव है। मैं, ‘एक चींटी’ कभी न यह सोचा कि जीवन मूल्यवान है, न कभी यह चाहा कि कोई मुझे याद रखे। क्योंकि मैं जानती थी, जिस क्षण मैं हूँ, वही क्षण पूर्ण है।
मेरा संदेश : - जीवन छोटा नहीं होता, हम ही उसे मापते-मापते छोटा बना देते हैं। हर प्राणी... चाहे वो एक चींटी हो या मनुष्य, अपने अस्तित्व में पूर्ण है। जिसे हम महत्वहीन समझते हैं, वो भी प्रकृति की महान रचना का एक आवश्यक कण है। जीवन का मूल्य किसी तुलना में नहीं, बल्कि उस क्षण में है जब हम पूरी तरह उपस्थित होते हैं। ना अतीत की चिंता, ना भविष्य की दौड़, बस होना… बस जीना। अगर हम चींटी की तरह चलना सीख लें, वो भी बिना शिकायत, बिना तुलना, बिना भय के... तो शायद हमें पता चले कि जीवन का अर्थ महत्वपूर्ण होने से कहीं ज्यादा बस होना ही काफी है।
लेखक - क्रायुनास्त्र एस के आर्या