“सपाट सड़कों पर गाड़ी बहुत दौड़ा ली। आज ऊबड़- खाबड़ रास्ते नापते हैं। शहर के बाहर निकलेंगे,” सन उन्नीस सौ सत्तर के उन दिनों मैं एंबेसडर पर कार चलाना सीख रहा था।
“नहीं,भैया जी,” पंद्रह साल पुराना हमारा ड्राइवर मेरे उत्साह में सम्मिलित नहीं हुआ, “शहर के बाहर कोई दांए- बांए नहीं देखता। हर कोई अपने को सड़क का मालिक मानता है…..”
“इत्मीनान रखो,” मैं हंसा, “अपनी स्पीडोमीटर की सुई मैं वहां भी साठ से ऊपर लांघने नहीं दूंगा…..”
किंतु जैसे ही मेरी गाड़ी अपनी परिचित सड़क के अंतिम छोर से आगे निकली, एक अजानी साइकल एकाएक मेरी कार के आगे आ गई।
मैं ने फुर्ती से ब्रेक लगाई मगर उस के बावजूद साइकल गाड़ी की बौनेट से टकरा गई।
जभी कई लोग मुझ पर झपट लिए, “पकड़ लो,इस अमीरज़ादे को…….”
एक ने मेरी बांह खींची तो दूसरे ने मेरा कालर पकड़ कर मुझे गाड़ी से बाहर घसीट लिया। तीसरे ने मेरी पीठ पर घूंसा जमाया और चौथे ने झांपड़ दे मारा।
“इन की कोई गलती नहीं थी,” ड्राइवर ने बाहर निकल कर उन्हें शांत करना चाहा, “गलती इस साइकल वाली से हुई जो अचानक सामने आ गई…..”
“गलती मेरी ही थी,” साइकल सवारी एक नवयुवती थी, “आप बेवजह इन्हें सता रहे हैं…..”
त्वरित उस की बुद्धि रंग लाई और सभी हाथ एक साथ रुक गए।
“आप की साइकल मैं अभी अपनी दुकान पर रख लेता हूं,” एक दुकानदार ने आगे बढ़ कर सुझाव दिया, “जब तक आप गाड़ी से इन की मरहम-पट्टी करवा आइए। दो सड़क छोड़ कर एक डाक्टर का क्लिनिक पड़ता है…..”
“गाड़ी अब मैं चलाऊंगा,” ड्राइवर ने मुझ से कहा, “आप इन के साथ पीछे बैठिए…..”
“नहीं,” नवयुवती ने कहा, “मुझे अपने साइकल के साथ रहना है। इसे कहीं छोड़ना नहीं..…”
“ठीक है,” मैं ने कहा, “आप की साइकल हम अपनी डिक्की में रखवा लेते हैं और आप की मरहम - पट्टी करवा लेने के बाद हम आप को इस के साथ आप के घर छोड़ आते हैं…..”
“घाव गहरा नहीं,” गाड़ी की बौनेट की रगड़ से नवयुवती के माथे पर उभर आई खरोंच व उछल आए गूमड़ की मरहम-पट्टी करने के बाद डाक्टर ने कहा, “हां, दो- तीन दिन बाद पट्टी ज़रूर बदलवा लेनी चाहिए…..”
बिना डाक्टर की दवा व पट्टी का मोल पूछे मैं ने अपने बटुए से सौ का नोट उस की ओर बढ़ा दिया।
“आज मंगल है,” डाक्टर ने अपने कैलेन्डर की ओर देखा और मेरा नोट पकड़ लिया , “आप इन्हें शुक्रवार को ले आइए…..”
“इन्हें पचास रुपए लौटा दीजिए,” नवयुवती ने डाक्टर से कहा, “बाहर आप की फ़ीस पचास रुपए लिखी है…..”
“पचास रुपए मेरी मरहम और पट्टी के हैं,” डाक्टर मुस्कराया।
“ये किताबें क्या मैं देख सकता हूं?” गाड़ी में बैठते ही नवयुवती ने अपनी साइकल की टोकरी वाली किताबें अपनी गोदी में ले लीं थीं।
“ज़रूर,” वह मुस्कराई।
सब से ऊपर रखी किताब मैं ने सब से पहले खोली । किताब का नाम मैक्बथ था– बी.ए. औनर्र्ज़ की उन्नीस सौ सत्तर में लगी एक पाठ्यपुस्तक और किताब की स्वामिनी का नाम, अतुल्या।
“आप अतुल्या हैं क्या?” मैं ने उसे छेड़ा।
“नहीं। यह केवल मेरा नाम है…..”
उस की दूसरी और तीसरी किताबें किसी दूसरी भाषा में थीं, “ये कैसी किताबें हैं?”
“मेरे पिता एक अनुवादक हैं। आज कल वह इज़ाक बाबेल अनुवाद कर रहे हैं।”
“बाबेल?” मैं हंसा— उन दिनों राजनैतिक साहित्य में मेरी गहरी रुचि थी और मैं कस्बापुर विश्वविद्यालय से राजनीति- शास्त्र की एम.ए. कर रहा था— “अजीब संयोग है। बाबेल की ओडेसा टेल्ज़ मैं ने हाल में खत्म की है।”
“औडिसकिए रैसकैज़ी,” वह अपने उच्चारण में सुराघात ले आई, “मेरे पिता रैसकैज़ी का अनुवाद किवदंतियां दे रहे है। किस्से नहीं।”
“क्यों? क्या किस्से और किवदंतियां पर्यायवाची नहीं?”
“नहीं। किस्सा एक वृतांत है, एक आख्यान। जब कि किंवदन्ती में कल्पना भी एक अहम भूमिका रखती है…..”
“आप भी रूसी भाषा जानती हैं?”
“हां। मगर अपने पिता जितनी नहीं। फिर भी जानती हूं। सही और उपयुक्त शब्द ढूंढने की ज़िम्मेदारी मेरे पिता अक्सर मुझे सौंप दिया करते हैं…..”
उस के घर का दरवाज़ा कई टेढ़ी- मेढ़ी सड़कों और आड़े- तिरछे रास्तों के बाद प्रकट हुआ।
नगरोपरांत उस क्षेत्र में मकान वैसे भी कम थे।अधिकतर बागीचे ही थे : आम के, अमरूद के, नाशपाती के, अंगूर के। कहीं- कहीं गुलाब भी लगा था।
सड़क के जिस चप्पे के पास पहुंच कर उस ने गाड़ी रुकवाई,वह एक गुलाब के बाग का आखिरी सिरा था।
जहां एक गेट अपने पीछे एक मकान लिए था।
“धन्यवाद,” गेट खोलते ही उस ने मुझ से विदा ली, “आप की डिक्की से अपनी साइकल लिवाने मैं अपने भाई को भेजती हूं…..”
दो मिनट बाद गाड़ी में खाली बैठना जब मुझे खलने लगा तो मैं उस खुले गेट से अंदर जा पहुंचा।
वह मुझे अपने मकान के मुख्य द्वार पर खड़ी मिली।
उस के चेहरे पर चिंता की एक मोटी परत पसरी हुई थी और वह जाली के दरवाज़े पर टकटकी लगाए थी।
दरवाज़े के उस पार एक लड़का एक लंबे सांप को मारने की चेष्टा में था। सांप उस लड़के के हाथों अपने शरीर पर कई प्रहार सह चुका था। सांप की फुफकार और फ़ुर्ती अब उतार पर थी। वह मृतप्राय था और आगामी किसी भी पल अपनी मृत्यु प्राप्त करने वाला था।
“ध्यान से…..नन्हें…..ध्यान से…..बहुत ध्यान से…..” वह बड़बड़ाए जा रही थी।
“अब कोई डर नहीं,” लड़का जब तक सांप के दो टुकड़े कर चुका था, “खोलता हूं सिटकिनी!”
“तुझे क्या कहा था बाबा ने?” सांप के कटते ही वह वहीं से लड़के पर बरसने लगी, “इस बार घर में सांप दिखाई देगा तो तू अपनी बहादुरी नहीं दिखाएगा…..”
“यह सांप पानी वाला था,” लड़का हंसा, “ज़हरीला न था। बेखटके इस का मुकाबला किया जा सकता था। मगर तुम्हें क्या हुआ? यह पट्टी कैसी है?”
“यह रास्ते में गिर गईं थीं,” मैं ने लड़के की ओर हैंडशेक की मुद्रा में हाथ बढ़ाया, “पट्टी के लिए डाक्टर के पास जाना पड़ा…..”
लड़के ने मुझ से हाथ नहीं मिलाया। अपनी छड़ीनुमा लकड़ी के चारों ओर सांप के दोनों टुकड़े लपेटता रहा।
“बाबा का कहना कभी न सुनना,” अतुल्या की निगाहें अभी भी लड़के पर टिकी थीं— भाई की अशिष्टता पर उस का ध्यान न गया था— “हमेशा अपनी हांकना…..”
“मैं पानी पीना चाहता हूं…..” उन भाई- बहन का ध्यान अपनी ओर दिलाने की मंशा से मैं ने कहा, “क्षमा करिएगा, आप की असुविधा बढ़ा रहा हूं…..”
“आप रुकिए। यहीं रुकिए,” लड़के ने मुझे घूरा, “पानी मैं यहीं लेकर आता हूं…..”
“अंदर जाना मना है क्या?” घर के अंदर जाने के लिए मैं अधीर हो उठा, “आप की मां से मिल लेता…..”
“वह अब नहीं हैं,” अतुल्या अपने स्थान से हिली नहीं, “इस तरफ़ तब हम नए- नए आए थे। सांप के इलाज के बारे में कुछ न जानते थे। तिस पर शहर का अस्पताल यहां से बहुत दूर था। सो जब मां को एक सांप ने डसा तो मेरे पिता उन्हें यहीं पड़ोस ही एक डाक्टर को दिखाए थे। डाक्टर मूर्ख था। उल्टा इलाज कर दिया…..”
“लीजिए, पानी,” पीतल के जिस गिलास में वह लड़़का मेरे लिए पानी लाया था, उस पर जगह- जगह पर पानी की बूंदें देखी जा सकतीं थीं। गिलास बाहर से पोंछा नहीं गया था। पानी भी खूब गर्म था।
बाद में मुझे पता चला,उस परिवार के पास पानी संचित करने का प्रचलन ही न था। घर में कोई सुराही तक न थी। फ़्रिज तो,खैर, उन की कल्पना की बाहर की चीज़ थी। परिवार में जिस किसी को प्यास लगती तो पानी वह हैंडपंप से निकाल लिया करता।
पानी के दो घूंट पी कर मैं ने वह गिलास अतुल्या को थमा दिया, “अब मैं शुक्रवार को आंऊगा। आप की पट्टी को बदलवाने उस डाक्टर के पास जाना होगा…..”
“बिल्कुल नहीं। वहां मैं अपने पिता के साथ जाऊंगी। आप के साथ नहीं…..”
अतुल्या को फिर से देखने- मिलने के लोभ में मैं ने अपनी एंबेसडर अगले ही दिन उस के घर के सामने जा लगाई।
गाड़ी की आवाज़ सुनते ही उस के पिता घर से बाहर चले आए। वह आधी बाहों की बुशर्ट के साथ एक पतलून पहने रहे।
“किधर जांएगे?” उन्हों ने उग्र स्वर में पूछा।
“बाबेल की ये किताबें लाया था,” मैं ने व्यवहारिकता दिखाई, “बाबेल की बेटी, नैथिली, ने अभी पिछले साल ही अमेरिका से इन के अनुवाद संपादित किए हैं……”
“मेेेरे पास बाबेल है। पूरा बाबेल है। जाइए, आप अपना रास्ता नापिए…..”
“देखिए, मुझे बाबेल बहुत पसंद है और मैं उस पर अपनी एम.ए. के डेस्रटेशन के अन्तर्गत सामग्री एकत्र कर रहा हूं और उस की पुस्तकों के बारे में बहुुत कुछ और भी जानना चाहता हूं। उस के राजनैतिक सरोकार मुझे आकर्षित करते हैं…..”
“इस समय नहीं। इस समय मैं व्यस्त हूं…..” उन का स्वर रूखे का रूखा बना रहा, “अभी मुझे अपने पुस्तकालय पहुंचना है। जहां किताबों की देख- रेख मेरे ज़िम्मे रहती है……”
“कौन से पुस्तकालय में?” मैं ने जिज्ञासा प्रकट की।
“टाउन हॉल वाले में…..”
“ वहां तो मैं भी अक्सर जाया करता हूं,” मैं ने गप हांकी, हालांकि वहां मैं कभी नहीं गया था, “मार्क्स पर बहुुत अच्छी किताबें हैं वहां। मार्क्स भी मुझे बहुत पसंद है हालांकि मेरे दादा एक पूंजीपति हैं। हरिदत्त पेंटस के मालिक। कस्बापुर में सभी उन्हें जानते हैं।”
“मैं एक कम्युनिस्ट हूं,” उन की आवाज़ और कड़ी हो ली, “और अपनी शान इसी में समझता हूं कि मेरा कोई भी रिश्तेदार पूंजीपति नहीं है क्योंकि पूंजीपतियों को मैं घटिया मानता हूं।”
“हम भी कोई वंशागत पूंजीपति नहीं,” मैं रोमांचित हो आया, “आप यकीन मानिए । तीस साल पहले तक मेरे दादा एक मज़दूर थे। फ़र्नीचर पर रोगन किया करते थे। एक दिन रोगन बनाते समय एक ऐसा जोड़ उन के हाथ लग गया, जिस का विसरण और प्रभाव जब उन्हें अपने हाथ वाले रोगन से कई गुणा बढ़ कर बढ़िया मालुम दिया तो उसी अटकलबाजी वाले उस जोड़ को उन्हों ने फिर अपना नाम दे कर खुले बाज़ार में भुनाना शुरू कर दिया और …..”
“जो भी हो, मुझे आप के दादा में कोई दिलचस्पी नहीं…..”
“और सच पूछें तो मुझे भी नहीं,” अपने उन स्नातकोत्तर वर्षों में राजनीति- शास्त्र पर मेरा अच्छा अधिकार था, “मैं भी उसी राजनीतिक संभावना में विश्वास रखता हूं जिस के अंतर्गत अन्ततोगत्वा राज्य लोप हो जाएगा और उत्पादन के सभी साधन सामुदायिक स्वामित्व के अधीन होंगें…..”
“सच्चे कम्युनिस्ट केवल जानकारी ही नहीं रखते,उस संभावना को कार्यान्वित करने के लिए शोषक वर्ग का विरोध भी करते हैं। शोषक वर्ग के सदस्य बन कर गाड़ियों में नहीं घूमते…..”
“आप ठीक कहते हैं। मुझे भी कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य बन जाना चाहिए…..”
“यह पार्टी का दफ़्तर नहीं है,” वह गंभीर बने रहे, “आप जाइए। अपनी राह नापिए…..”
उन के प्रतिकूल व्यवहार से अपने बीच उत्पन्न हुई उस युद्ध- स्थिति को मैं ने एक चुनौती के रूप में लिया।
आप कहना चाहें तो कह सकते हैं, वर्ग- विभेद मेरे लिए प्रेम- उकसाई का केवल एक उत्पादन रहा किंतु मेरा दावा है कि अतुल्या के साथ मेरी मनोग्रस्ति का आधार प्रेम ही रहा : प्रेम, विशुद्ध प्रेम।
मेरे आगामी प्रयास अब पूर्णरूपेण अतुल्या पर केंद्रित हो लिए। अपनी एंबेसडर अब मैं उस के पिता और भाई के दृष्टिक्षेत्र से दूर रखता। अतुल्या के सामने भी तभी पड़ता जब मैं निश्चित कर चुका होता वह मुझे निरुत्साहित नहीं करेगी।
मुझे घात में बैठे देख कर जब भी उस के साइकल की गति बढ़ने लगती, मैं जान जाता उस से मिलने का अवसर उपयुक्त नहीं। मगर जब भी मुझे देख कर वह अपने साइकल की गति मंद कर लेती तो मुझे अपना मार्ग प्रशस्त होता दिखाई देने लगता।
उस की मनचाही पूरे आठ महीने चली। किंतु उन आठ महीनों की मेरी दरबारदारी एकदम कवचभेदी सिद्ध हुई।
उस के पिता का निरस्त्रीकरण अब पूर्णतः सहज था।
अपने प्रति अतुल्या का रुझान निश्चित करते ही मैं अपने दादा के पास जा पहुंचा। उन्नीस सौ सत्तर के उस दशक में उन के वे ‘हरिदत्त पेंटस’ खूब बिकते थे। परिवार की आमदनी में दिन दुगनी रात चौगुनी में वृद्धि करते हुए। घाटे पर चले ‘हरिदत्त एंड सन्ज़’ पेंटस। जो बाज़ार में बाद में आए। जब मेरे ताऊजी सन उन्नीस सौ अस्सी में मेरे दादा की मृत्योंपरांत अपने चार बेटों के साथ मेरे पिता से अलग हो लिए थे।
“मुझे अपनी शादी के लिए अपनी पसंद की लड़की मिल गई है…..” उन दिनों हमारा संयुक्त परिवार इन्हीं दादा की सहमति-असहमति से बढ़ता- रुकता था।
“कौन?” वह हंसे थे।
“एक कम्युनिस्ट की बेटी …..”
“गरीब स्त्री का मेरा अनुभव अच्छा नहीं रहा,” मेरी दादी निर्धन परिवार से थीं, “स्त्री भली भी हो तो भी उस के रिश्तेदार नाक में दम किए रहते हैं…..”
“ लड़की के पिता गरीब ज़रूर हैं,” मैं भी हंस पड़ा, “मगर कहते हैं : गरीबी में, निगहेबानी खुदी की।”
इकबाल के बोलों ने अपना असर दिखाया और वह राज़ी हो गए।
विवाह के बाद भी हमारे प्रेम की सतह बराबर और स्थावर बनी रही थी। जिसे बनाए रखने में हमारे दो बेटों की भूमिका भी अहम रही थी। जिन के नाम रखे गए थे : संजीव तथा संदीप।
जमी हमारी गृहस्थी की सभी असहमतियां क्षणिक होतीं थीं और सारे मतभेद नगण्य। एक कौटुंबिक ब्याहता स्त्री के ठाठ व संकल्प- विकल्प भी अतुल्या ने संपूर्ण समर्पण व दक्षता के साथ शीघ्र ही ग्रहण कर लिए थे।
निजी सज्जा की ओर रही उस की विरक्ति ने भी विलीन होने में अधिक समय न लिया था। साथ की साथिनों को निरंतर रंग बरसाते देख कर उस ने भी उन्हीं का रंग काछ लिया था। अपने परिधान तथा दिखाव-बनाव को अब वह भी उन्हीं की भांति चोटी की प्राथमिकता देने लगी थी। कौटुंबिक एकीभाव के अंतर्गत हमारे परिवार के सभी धार्मिक अनुष्ठानों में भी सम्मिलित होने लगी थी। ईश्वरीय अनुकंपा एंव ईश्वरीय प्रकोप के संदर्भ में प्रत्येक घटना की व्याख्या करने वाली हमारे परिवार की ब्याहताएं पूजा- पाठ तथा व्रत में अगाध विश्वास रखती भी थीं। जभी उन्हीं की देखादेखी उस ने अपने पिता द्वारा पोषित आमूल नास्तिकता त्याग दी थी और पारंपरिक हमारे परिवार की ब्याहताओं का अनुकरण करने ही में अपना हित देखने लगी थी।
बंधे- बंधाए हमारे संसार में भूचाल लाई थी हमारी कार की वह सड़क दुर्घटना जिस कारण मृत्यु ने उस पर धावा बोल दिया था। जब कि उसी वर्ष की दस मई के दिन हम अपनी शादी की पच्चीसवीं वर्षगांठ मनाने वाले थे।
अपनी मृत्यु से वह अभी कुछ ही पल दूर थी जब वह बड़बड़ाई, “बाबा…..बाबा…..नन्हें…..नन्हें …..”
मैं चौंक लिया। क्यों नहीं उस ने बेटों को पुकारा? क्या वह भूल रही थी, तेेइस वर्षीय हमारा संजीव दिल्ली में एम.कौम. कर रहा था और बीस वर्षीय संदीप कानपुर में इंजीनियरिंग?
और फिर मैं था : उस का स्नेही, उस का स्वामी, उस का दास……
“बाबा…..बाबा…..” वह फिर बड़बड़ाई।
“क्या है?” मैं खीझा।
“मेरा एक कहा मानेंगे?” नीमबेहोशी में वह मुझ तक लौट आई।
“कहो,” मुझ से तत्परता न दिखाई गई।
“मेरी तरफ़ से मेरे पिता से माफ़ी मांगनी है,” अपने पिता को उस ने मेरे सामने उन्हें ‘बाबा’ कभी न कहा था। जब भी उन का उल्लेख किया, सदैव ‘मेरे पिता’ कह कर ही किया।
“माफ़ी? कैसी माफ़ी?”
“नन्हें……नन्हें से भी…..उसे अकेला छोड़ कर मैं कैैसे आप के संग इधर चली आई…..”
“अंतिम समय पर अतुल्या ने आप दोनों को पुकारा,” उस के दाह-संस्कार पर उस के पिता, भाई और भाई के परिवारजन सीधे श्मशान घाट पर आए। मेरे बंगले पर नहीं। उस के परिवार का कोई भी जन हमारे निवास- स्थान पर कभी न आया करता। देर- सवेर वही उन से मिलने उन के घर जाती।
“वह आप दोनों से माफ़ी मांग रही थी,” मैं ने कहा।
“नहीं,” शोकाकुल उस के पिता के आंसू एकाएक थम गए, “मैं उसे माफ़ी न दूंगा।”
“नहीं, बाबा,” उस के भाई की हिचकियां बंधने लगीं, “ऐसा न कहिए।”
“नहीं,” उस के पिता की सींकिया गर्दन की नसें तन गईं, “उस ने अपनी शान कायम नहीं रखी।”
“शान?” मैं उबल लिया, “कैसी शान? मुझ से मिलने से पहले वह आप के जूठे बर्तन धोती थी,साइकल की सवारी करती थी……”
“उस की शान तुम जैसा पूंजीपति नहीं आंक सकता,” उस के पिता ने अपने जबड़े भींच लिए, “तुम से मिलने से पहले वह एक पूर्णांक थी। एक पूरी इकाई । तुम्हारी चाकरी ने उसे एक शून्य बना कर रख दिया…..”
मेरे मन पर मथानी पड़ गई।
तो क्या इन पच्चीस वर्षों में वह इसी निगोड़ी- नाठी पृथ्वी की वासिनी रही थी ?
मेरी विहार- भूमि की नहीं?