Chapter 10 — भारमाली और बागा का अंत
आशानंद अब बागा और भारमाली के पास ही रहने लगे थे।
राजमहल की चमक-दमक छोड़कर वे इस छोटे से झोंपड़े में ऐसे रम गए जैसे उन्हें यहीं होना था।
बागा की हंसी, भारमाली की शरारत, और दोनों के बीच की अनकही समझ…
आशानंद इन सबको अपने दोहों में उतारते गए।
लेकिन जीवन कभी एक ही रंग नहीं रखता।
बागा युद्ध करने वाला आदमी नहीं था,
वह बस एक बागी दिल वाला इंसान था—
सिस्टम के खिलाफ, राजाओं के खिलाफ, और उन दीवारों के खिलाफ जो इंसान को बांध देती हैं।
बरसात के दिनों में उसे तेज़ बुखार चढ़ा।
पहले तो सबने सोचा—दो दिन में ठीक हो जाएगा।
पर बुखार उतरता ही नहीं था।
दिनों-दिन वह कमजोर होता गया, शब्द छोटे, साँसें भारी।
भारमाली उसकी हर करवट पर जागती रही,
पर उसकी आँखों में एक डर हमेशा लटकता रहा—
डर कि कहीं बागा उसकी हथेली से फिसल न जाए।
आशानंद यह सब देख रहे थे।
वे कुछ कर नहीं सकते थे, बस लिख सकते थे।
उनकी कलम से दर्द की एक पंक्ति निकली—
“स्नेह सदा अमर रहत है,
तन तो मिट्टी हो जात।
जिसके नयनन में प्रीत वसे,
उसका जीवन हो जात विगलात।”
एक रात बागा ने घुटती आवाज़ में कहा—
“माली… लगता है, मेरा समय आ गया है।”
भारमाली टूट गई।
उनकी दुनिया ही जैसे उसी साँस में थम गई थी।
बागा ने धीमे से उसका चेहरा अपनी हथेली में लिया—
“तूने मुझे वो दिया, जो पूरे राज में कहीं नहीं मिला…
मुक्ति।”
भारमाली रोई, पर न बोले—
क्योंकि हर शब्द उस क्षण को और भारी कर देता।
कुछ पलों बाद बागा की साँसें रुक-रुक कर चलने लगीं।
आशानंद मंत्रो की तरह बुदबुदाते रहे,
पर उनकी आवाज़ भी काँप रही थी।
और फिर… बागा चुप हो गया।
इतना चुप कि जैसे हवा भी थम गई हो।
सुबह होने से पहले ही भारमाली ने अपना निर्णय ले लिया था।
वह बागा के बिना जी ही नहीं सकती थी।
आसमान नीला होने लगा था, जब वह चिता के पास गई।
पर भारमाली मुस्कुराई—
ऐसी मुस्कान जिसमें दर्द भी था और निश्चय भी।
उसने चिता को छुआ और बोली—
“जिस जीवन में बागा नहीं…
उससे तो यह अग्नि बेहतर है।”
और वह अग्नि में समा गई।
लपटों ने दोनों प्रेमियों को एक कर दिया—
जैसे वे जन्म से ही इसी अंत के लिए बने हों।
आशानंद वहीं गिर पड़े।
उन्होंने अपने आँचल से आँसू पोछे और आख़िरी दोहा लिखा—
“एक जले तो दूजा जले,
प्रेम की रीत अनोखी।
धरती रोवे, नभ भी रोवे,
बागा-भारमाली जोड़ी।”
“मिट्टी तन की मिट्टी भई,
पर प्रेम रहा अविराम।
दो नदियाँ संग सागर मिले,
वैसे ही मिले ये प्राण।”
कहानी का अंत, पर प्रेम का नहीं
बागा और भारमाली की कहानी वहीं समाप्त हुई,
पर आशानंद ने उनके नाम को अपने शब्दों में अमर कर दिया।
उनके लिखे दोहे आज भी हवा में तैरते हैं—
जहाँ कहीं प्रेम सच्चा होता है,
वहाँ बागा और भारमाली की कहानी फिर से जीवित हो जाती है।
बागा और भारमाली के जाने के बाद आशानंद अपनी कलम एक दिन बाँधकर रख दी।
राजा का दूत आया, संदेश आया—
“आशानंद लौट आओ दरबार में।”
पर मेरा मन अब उस जगमगाहट का नहीं रहा।
जहाँ इतनी सच्ची कहानी मेरे सामने जन्मी और समाप्त हुई,
वहाँ से बेहतर कोई दरबार नहीं।
मैंने वहीं रहना चुना—
उसी रेत पर, उसी कच्चे घर में,
जहाँ कभी बागा हँसता था और भारमाली चूड़ियाँ खनकाती थी।
हवाएँ अब भी चलती थीं,
पर उनमें एक अलग सुगंध थी—
दो अधूरे प्राणों की।
“धूप बसी थी रेत में,
छाँव बसी थी प्रीत।
बागा-भारमाली गये जहाँ,
वहीं रुका हूँ मैं आज भी।”