उसके कपड़े फटे-पुराने थे और उसकी त्वचा पर बड़े-बड़े फोड़े-फुंसियाँ थीं, जिनसे निरंतर मवाद बह रहा था। उसके शरीर से दुर्गंध फैल रही ।
"वह घिसटते-घिसटते जैसे-तैसे राज्य के द्वार तक पहुंचा ही था कि
पहरेदारों की नज़र उस पर पड़ी।
उसकी दुर्दशा देखकर उन्होंने घृणा और क्रोध से वहां से भगा दिया परन्तु भिखारी फिर से दरवाज़े पर पहुंच गया ।
राजमहल का भव्य द्वार मानो स्वर्ग के द्वार की छवि प्रतीत होता था।
ऊँचे-ऊँचे स्तंभों पर सुन्दर नक्काशी की गई , जिन पर दिव्य आकृतियाँ और पौराणिक कथाएँ उकेरी गई ।
द्वार पर गाढ़े सोने की परत चढ़ी थी, जिस पर सूर्य की किरणें पड़ते ही वह चमक उठता, मानो आकाश में स्वयं सूर्योदय हो गया हो।
विशाल दरवाज़े के किनारों पर कीमती रत्न जड़े थे, जिनकी झिलमिलाहट रात के अंधकार में भी प्रकाश फैलाती थी।
द्वार के दोनों ओर विशालकाय सिंहों की मूर्तियाँ रखी हुई थीं, जिनकी आँखें ऐसे चमकतीं जैसे वे जीवित होकर राज्य की रक्षा कर रहे हों।
ऊपर की मेहराब पर कलश, पुष्पमालाएँ और घंटियाँ टंगी थीं, जो हवा के झोंकों से मधुर ध्वनि उत्पन्न करतीं।
जब यह दरवाज़ा खुलता, तो उसकी ध्वनि गर्जन जैसी प्रतीत होती और भीतर से आती शंखध्वनि, वीणा और नगाड़ों की गूँज उसके वैभव को और भी महान बना देती।
यह द्वार न केवल राज्य में प्रवेश का मार्ग था, बल्कि राज्य की महिमा, वैभव और शक्ति का प्रतीक भी था
एक बार भिखारी दरवाजे पर पहुंचा और राजा से मिलने की गुहार लगाता रहा था।
• जब पहरेदारों ने उसे बार बार समझाया और यह से जाने के लिए कहा
• पर भिखारी ने एक न सुनी। तब उने गुस्सा आ गया और उन्होंने मिलकर भिखारी की पिटाई कर दी
मार-पीट कर उसे वहाँ से भगा दिया।"
लेकिन भिखारी इंतजार किया और जब कोई भी ध्यान नहीं दे रहा था तब किसी तरह सभी की नज़रो से बचाकर राज्य के भीतर घुस आया
और इधर-उधर घूमने लगा।
जहाँ-जहाँ वह जाता, लोग उसे देखकर घबरा जाते।
उसकी विकृत अवस्था और दुर्गंध से त्रस्त होकर कई लोग उसे मारते-पीटते या पकड़कर दूर भगा देते।"
"उसकी हालत पहले ही बहुत दयनीय थी, लेकिन जब लोगों ने उसे मार-पीटकर दूर भगाया तो उसकी स्थिति और भी बिगड़ गई।
पहले से ही घावों से भरे उसके शरीर से और अधिक खून बहने लगा, और वह दर्द से कराहता हुआ ज़मीन पर गिर पड़ा।"
जैसे ही यह समाचार राजा के कानों तक पहुँचा, राजा स्वयं को रोक न सका।
वे नंगे पाँव ही सिंहासन से उठ पड़े और बिना किसी विलंब के दौड़ते हुए उस बीमार फकीर के पास पहुँच गए।"
**”दिन ढल रहा था और महल की ओर जाने वाले मार्ग पर हल्की धूप बिखरी हुई ।
तभी समाचार आया कि राज्य-द्वार पर एक अजीबोगरीब भिखारी पड़ा है, जिसकी दशा अत्यंत दयनीय है।
यह सुनते ही राजा का हृदय विचलित हो उठा।
वे नंगे पाँव ही सिंहासन से उठ खड़े हुए और तेज़ी से भागते हुए द्वार तक पहुँचे।
**"राजा का हृदय करुणा से परिपूर्ण था।
वे सदा अपनी प्रजा को संतानवत् मानते और उनकी पीड़ा देखकर स्वयं व्यथित हो उठते।
कोई भी दरबार में न्याय की गुहार लेकर आता तो वे धैर्यपूर्वक उसकी बात सुनते और निष्पक्ष निर्णय देते।
उनका न्याय इतना प्रसिद्ध था कि दूर-दराज़ के लोग भी उनकी अदालत में आने की इच्छा रखते थे।
राजा दानशील भी उतने ही थे। वे भूखों को अन्न, निर्धनों को धन और अनाथों को आश्रय देते।
कई बार तो वे स्वयं भेष बदलकर नगर भ्रमण करते और गुप्त रूप से दीन-दुखियों की सहायता करते।
उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य था—धर्म की रक्षा और प्रजा का कल्याण।
राजा का स्वभाव अत्यंत विनम्र था।
वे कभी अपने पद का घमंड नहीं करते।
महल के सेवक हों या साधारण प्रजा—वे सबके साथ स्नेहपूर्ण व्यवहार करते। उनकी यही नम्रता और पवित्रता उन्हें वास्तव में 'धर्मराज' बनाती थी।
परंतु अपने राज्य और धर्म के विरोधियों के सामने वे अडिग पर्वत की तरह कठोर भी हो जाते थे।
परन्तु आज उन्होंने जब इस भिखारी को देखा
जैसे ही उनकी नज़र उस भिखारी पर पड़ी, वे स्तब्ध रह गए।
उसके कपड़े चिथड़ों में बदल चुके थे, शरीर पर जगह-जगह बड़े-बड़े फोड़े-फुंसियाँ थीं, जिनसे मवाद टपक रहा और।
दुर्गंध से चारों ओर वातावरण दूषित हो रहा था।
उसका एक पैर गहरे घाव से सड़ चुका था और वह उठने तक की ताक़त नहीं रखता ।
लोग उसे घृणा और क्रोध से पीट-पीटकर भगा ने की कोशिश कर हर चुके थे।
राजा का हृदय करुणा से भर उठा।
और ग्लानि से भर गया ।आज उनके ही राज्य में इस दयनीय व्यक्ति के साथ दुनियाहार हुआ ।
उन्होंने तनिक भी घृणा न की और तुरंत आगे बढ़कर उस भिखारी को अपनी बाँहों में थाम लिया।
उनकी आँखों से आँसू बहने लगे।
बिना देर किए उन्होंने उसे पालकी में बैठाया और आदर सहित महल ले जाने का आदेश दिया।
वहाँ खड़े सैनिक और प्रजा राजा की इस करुणा और दया को देखकर विस्मय से भर उठे।“**
"राजा ने बिना किसी घृणा या हिचकिचाहट के उस फकीर को पालकी में बैठाया और वहीं से उसे महल ले आए।""
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प्यारे पाठकों नमस्कार 🙏🙏
यह कहानी सिर्फ शब्द नहीं,
मेरी माँ की आवाज़ का आशीर्वाद है।
इसीलिए मैं इसे छोटे-छोटे भागों में, पूरे मन से लिख रही हूँ—
ताकि उनकी कही हर बात, हर भावना, हर सीख
ज्यों की त्यों इस कहानी में जीवित रहे।