आरे सुनती हो ताऊ आए हैं, कहाँ हो सब सुनती हो क्या ज़रा पानी लायो बबली कहाँ हो ज़रा भाभी को बोलो पानी लाएगी आरे दादा आज सुबह से पानी का एक बूँद नहीं आया है ,पता नहीं मोटर नहीं चल रहा है, क्या करूँ अभी थोड़ी देर मैं ला रही हूँ | सुनते हो राजू रेखा के ससुराल वाले आए हैं पता नहीं इन लोगों को अभी ही आना था बिलबिलाती उसी की सास रेखा तेरा भाई आया जयो देखो जरा ये सब सुनाती रेखा चूल्हे के पास मानो किसी सोच में डूब गई हो पता नहीं क्या - क्या नहीं सोची थी और आज मैं क्या कर रही हूँ|
रेखा जब पहली बार ससुराल आई थी, तो उसके सिर पर लाल रंग का भारी घूंघट था। उस घूंघट के नीचे सिर्फ उसका चेहरा ही नहीं, बल्कि उसके सपने, उसकी पढ़ाई और उसकी आज़ादी भी छुप गई थी। वह पढ़-लिखकर अफसर बनना चाहती थी, लेकिन यहाँ तो उसकी पहचान बस “बहू” बनकर रह गई थी।
रेखा पढ़ने में बहुत तेज़ थी। उसके पास नौकरी का भी मौका था, लेकिन शादी के बाद ससुराल वालों ने साफ़ कह दिया—
“हमारे घर की बहुएँ नौकरी नहीं करतीं, और घूंघट में ही रहती हैं।”
रेखा कुछ बोल न सकी। घूंघट के अंदर उसकी आँखें तो खुली थीं, लेकिन उसकी आवाज़ जैसे मानो दबा दी गई थी।
दिन बीतने लगे। सुबह उठकर रसोई, फिर सफ़ाई, फिर दोपहर का खाना—यही उसकी दुनिया बन गई थी। किताबें अब बक्से में बंद थीं और सपने आँखों में कैद।
एक दिन गाँव में सरकारी अफसर आए। वे औरतों को पढ़ाई और आत्मनिर्भर बनने के बारे में समझा रहे थे। रेखा भी दूर खड़ी होकर सुन रही थी। घूंघट के पीछे उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था। उसे लगा जैसे कोई उसकी ही बात कर रहा हो।
उसी दिन पहली बार रेखा ने अपने पति से कहा,
“मैं पढ़ना चाहती हूँ… कुछ बनना चाहती हूँ।”
पति ने पहले मना किया, लेकिन रेखा की आँखों में आंसू और हिम्मत दोनों देखकर वह सोच में पड़ गया।
कुछ दिनों बाद रेखा ने हिम्मत करके सास से भी बात की। सास ने गुस्से में कहा,
“बहुएँ घूंघट में ही शोभा देती हैं!”
रेखा ने धीरे से जवाब दिया,
“माँ जी, घूंघट चेहरे को ढक सकता है, हौसलों को नहीं।”
यह सुनकर सास चुप हो गई।
धीरे-धीरे पति ने रेखा का साथ देना शुरू किया। रेखा ने फिर से पढ़ाई शुरू की। शुरू में पूरे गाँव ने बातें बनाईं, ताने दिए—
“बहू सिर उठाने लगी है!”
“घूंघट छोड़ दिया!”
लेकिन रेखा रुकी नहीं।
कई साल की मेहनत के बाद वह एक दिन स्कूल की शिक्षिका बन गई। वही रेखा, जो कभी घूंघट में चुपचाप रसोई में खड़ी रहती थी, आज बच्चों को सपने देखना सिखा रही थी।
जिस दिन उसे नौकरी का पहला नियुक्ति पत्र मिला, उसने धीरे से अपना घूंघट उतार दिया। उसकी सास ने खुद उसके सिर से घूंघट हटाकर कहा—
“आज मेरी बहू नहीं, मेरी बेटी जीत गई है।”
रेखा की आँखों में आंसू थे, लेकिन इस बार दर्द के नहीं, गर्व के।
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🌿 कहानी की सीख:
घूंघट परंपरा हो सकती है, लेकिन अगर वह सपनों और आत्मसम्मान को ढकने लगे, तो उसे हटाना ही सही होता है। नारी की असली पहचान उसका साहस है।