🌙 रात का राजा भाग 1
✍️ लेखक: राज फुलवरे
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अध्याय 1 — सूर्य की छाया में अंधकार
राज्य का नाम था अमृतगढ़ — चारों ओर फैले घने जंगल, मधुर नदियाँ, और ऊँचे पहाड़ उसकी पहचान थे।
यह राज्य अपनी समृद्धि, न्यायप्रिय राजा और प्रजाजन के सुख के लिए दूर-दूर तक प्रसिद्ध था।
लेकिन उस वैभवशाली महल की दीवारों के भीतर एक ऐसा रहस्य छिपा था,
जो सूरज की पहली किरण के साथ ही उजागर हो जाता था —
राजा वीरेंद्र सिंह की आँखों से रोशनी गायब हो जाती थी।
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🌞 सुबह का महल
सूर्योदय होते ही महल में शंखनाद गूंजता। सैनिकों के कदमों की आवाज़, सेवकों की हलचल और राजमहल में फैला सुगंधित धूप का धुआँ — सब एक नई सुबह का स्वागत करते।
लेकिन उस सुबह का स्वागत करने वाला एक चेहरा हर बार अंधेरे में डूब जाता।
राजा वीरेंद्र सिंह अपने शयनकक्ष की बालकनी में खड़े थे।
उन्होंने सूरज की दिशा में हाथ उठाया, पर आँखें किसी भी दृश्य को पहचान नहीं पा रहीं थीं।
उनकी आवाज़ भारी थी —
> “फिर वही अंधकार... वही जलन... ये दिन मेरे लिए अभिशाप बन चुका है।”
राजवैद्य चतुर्भुज पास झुककर बोले,
> “महाराज, यह कोई सामान्य रोग नहीं है। आपकी आँखें सूरज की रोशनी को सहन नहीं कर पातीं। हम सब औषधियाँ आज़मा चुके हैं।”
राजा ने गहरी साँस ली,
> “वैद्यराज, मैं नहीं चाहता कि मेरी बीमारी मेरे राज्य की कमजोरी बने। जब तक रात लौटती है, मेरी दृष्टि लौटती है... तो शासन भी रात्रि का ही होगा।”
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🌙 रात्रि की पहचान
राजा वीरेंद्र सिंह के लिए रात ही जीवन थी।
जैसे ही सूर्य अस्त होता, अंधकार फैलने के साथ उनकी आँखों की रौशनी लौट आती।
महल की दीवारों पर लगे दीपक उनके चेहरे को उजाला देते, और दरबार फिर सज जाता।
उस समय दरबार में वही हलचल होती जो अन्य राजाओं के यहाँ दिन में होती थी।
सैनिक मशालों की रोशनी में खड़े रहते, मंत्री, वैद्य, कोषाध्यक्ष — सभी अपनी रिपोर्ट लेकर उपस्थित होते।
प्रजा के लिए यह एक अनोखा दृश्य था —
जहाँ दूसरे राज्य सुबह के आदेशों से चलते थे,
अमृतगढ़ में रात के फैसले सुबह की हकीकत बनते थे।
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🏰 राजमाता का दुख
एक रात महल के भीतर, राजमाता अपने बेटे के कक्ष में आईं।
उनके हाथ में दीपक था, जिसकी लौ काँप रही थी।
> “वीरेंद्र, दिन के उजाले से मत डरो बेटा। ये सूरज तुम्हारा दुश्मन नहीं है।”
राजा ने धीरे से उत्तर दिया,
> “माँ, मैं सूरज से नहीं डरता...
पर उसकी किरणें जैसे मेरी आत्मा को जला देती हैं।
दिन मुझे अपने लोगों की पीड़ा दिखाने से वंचित कर देता है।”
राजमाता ने उसकी हथेलियाँ थाम लीं —
> “याद रखो, बेटा, जो राजा रात में भी अपनी प्रजा को देख सके,
वह उन राजाओं से बड़ा है जिन्हें सूरज के नीचे सब दिखता है लेकिन संवेदना नहीं।”
उनकी आँखों में आँसू थे,
पर राजा ने सिर झुकाकर केवल इतना कहा —
> “अगर भगवान ने दिन का उजाला मुझसे छीना है, तो शायद उसने कोई कारण रखा होगा।
मैं इस राज्य को अंधेरे में भी उजाला दूँगा।”
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📣 ऐलान का दिन
अगले ही दिन (जो राजा के लिए सबसे कठिन समय था), उन्होंने महल की छत से एक सार्वजनिक घोषणा की।
घंटियाँ बजीं। सैनिकों ने नगर के हर कोने में राजा का संदेश सुनाया:
> “सुनो अमृतगढ़ की प्रजा!
जब तक मेरे नेत्र सूर्य के प्रकाश को सहन नहीं कर पाते,
तब तक मेरा दरबार हर रात्रि को खुलेगा।
अंधकार मेरे लिए जीवन है — और तुम सबके लिए मेरा शासन।”
लोग पहले तो चकित हुए, फिर तालियाँ बजाने लगे।
कुछ ने इसे ईश्वर की लीला कहा, कुछ ने इसे श्राप,
पर सब जानते थे — उनका राजा अंधा होकर भी सबसे न्यायप्रिय था।
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🕯️ रहस्यमयी रात
उस रात जब दरबार सजा, महल की छत पर चाँदनी बिखरी थी।
सैनिक मशालें थामे खड़े थे, और दीपकों की कतारें जैसे तारों की ज़मीन पर उतर आई हों।
राजा सिंहासन पर बैठे थे, उनकी आँखों में फिर से चमक लौट आई थी।
उन्होंने कहा —
> “प्रजा के प्रश्न, उनके दुःख, उनके झगड़े — सब आज प्रस्तुत करो।
मैं रात के राजा के रूप में तुम्हारे सामने उपस्थित हूँ।”
एक किसान आगे आया,
> “महाराज, आप दिन में नहीं देख पाते — तो कैसे शासन करते हैं?”
राजा मुस्कुराए,
> “दिन की आँखें तो हर किसी के पास हैं, किसान।
पर जो रात के अंधेरे में भी न्याय देख सके, वही सच्चा राजा होता है।”
पूरा दरबार तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा।
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🌿 बीमारी का रहस्य गहराता है
लेकिन राजवैद्य चतुर्भुज चिंतित थे।
उन्होंने दूसरे दिन राजमाता से कहा —
> “माताश्री, यह रोग स्वाभाविक नहीं है।
या तो किसी ने तंत्र से राजा पर असर किया है, या यह किसी दुर्लभ ग्रहदोष का परिणाम है।
अगर जल्द उपाय न हुआ तो यह अंधकार स्थायी बन सकता है।”
राजमाता घबरा उठीं,
> “क्या कोई उपाय नहीं?”
> “उपाय तो है, पर उसे खोजने वाला मनुष्य चाहिए... जो जड़ी-बूटियों, तंत्र और आस्था — तीनों का संगम हो।”
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🕯️ नई आशा की आहट
दिन बीता, रात आई — और फिर से दरबार सजा।
राजा सिंहासन पर बैठे ही थे कि सभा में एक हलचल हुई।
एक किशोर युवक आगे बढ़ा — दुबला-पतला, आँखों में आत्मविश्वास की चमक।
सैनिकों ने उसे रोकने की कोशिश की, पर उसने ऊँची आवाज़ में कहा —
> “महाराज! मुझे आपकी बीमारी का इलाज पता है।”
पूरा दरबार सन्नाटे में डूब गया।
राजवैद्य हँस पड़े —
> “अरे, ये तो कोई बालक लगता है! न उम्र, न अनुभव — और दावा करता है कि राजा की आँखें ठीक कर देगा!”
राजा ने गंभीर स्वर में कहा —
> “तुम्हारा नाम क्या है, बालक?”
> “आरव।”
> “और तुम्हें क्या ज्ञात है, जो हमारे वैद्य नहीं जानते?”
> “महाराज, कभी-कभी औषधि किताबों में नहीं, जंगल की मिट्टी में छिपी होती है।
अगर आप अनुमति दें, तो मैं जंगल से वही जड़ी ढूँढ लाऊँगा जो आपकी आँखों में उजाला लौटा देगी।”
सभा में हँसी गूंज उठी, पर राजा मुस्कुराए —
> “आरव, तुम्हारा आत्मविश्वास तुम्हारी उम्र से बड़ा है।
जाओ — तुम्हें मेरी अनुमति है। अगर तुम्हारी दवा काम कर गई, तो मैं तुम्हें अपना मंत्री घोषित कर दूँगा।”
राजवैद्य ने तिरस्कार से कहा —
> “महाराज, आप इस बच्चे पर भरोसा कर रहे हैं?”
> “हाँ, वैद्यराज,” — राजा ने दृढ़ स्वर में उत्तर दिया —
“कभी-कभी भगवान सबसे छोटी उम्र में सबसे बड़ी रोशनी भेजता है।”
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और उसी रात आरव जंगल की ओर निकल पड़ा —
हाथ में मशाल, दिल में विश्वास, और लक्ष्य केवल एक —
“रात के राजा” की आँखों में फिर से उजाला लाना।
अध्याय 2 — रात्रि का दरबार
अमृतगढ़ में उस रात का चाँद कुछ और ही चमक रहा था।
आसमान साफ था, हवा में शीतलता थी, और महल के ऊपर उड़ती मशालों की रोशनी जैसे सितारों को छू रही थी।
महल के मुख्य प्रांगण में, राजा वीरेंद्र सिंह ने अपने विशेष “रात्रि दरबार” की शुरुआत की थी —
वो दरबार, जो किसी भी अन्य राज्य में नहीं लगता था।
लोग कहते थे,
> “हमारे राजा दिन में अंधे हैं, पर रात में सबकी आँख बन जाते हैं।”
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🌌 दरबार का दृश्य
दरबार की दीवारों पर सुनहरी चित्रकला थी, जिसमें देवताओं और नक्षत्रों की आकृतियाँ उकेरी थीं।
दीपकों की कतारें झिलमिलातीं, और संगमरमर की फर्श पर चाँदनी ऐसे गिरती जैसे किसी ने चाँदी का परदा बिछा दिया हो।
सैनिक अपनी-अपनी जगह पर स्थिर खड़े थे।
राजवैद्य, मंत्री, सेनापति, राजमाता — सभी राजा के बगल में बैठे थे।
पर हर किसी के मन में एक ही प्रश्न था —
क्या सच में वह किशोर आरव राजा की आँखों को ठीक कर सकेगा?
राजा सिंहासन पर बैठे, उनकी दृष्टि स्थिर थी — आत्मविश्वास से भरी हुई।
उन्होंने दरबार की ओर देखकर कहा,
> “आज से यह दरबार सिर्फ न्याय का नहीं, आशा का भी केंद्र होगा।”
सभा में सन्नाटा छा गया।
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🕯️ जनता की चर्चा
दरबार के बाहर, प्रजाजन समूहों में चर्चा कर रहे थे।
किसी को विश्वास था, किसी को संदेह।
एक वृद्ध किसान बोला,
> “कभी सुना है कि दिन में अंधा और रात में देखने वाला राजा? ये तो भगवान की लीला है।”
दूसरा हँस पड़ा,
> “और अब वो कह रहा है कि एक सत्रह बरस का छोरा उसकी आँखें ठीक करेगा? हाहा… ये तो मज़ाक है।”
पास खड़ी एक स्त्री बोली,
> “मज़ाक मत उड़ाओ, भाइयो। शायद भगवान उसी बालक को भेजा हो।
जब सब बड़े असफल हुए, तो छोटे में उम्मीद बची है।”
उसके शब्दों ने भीड़ को चुप कर दिया।
राजा का नाम हर घर में श्रद्धा से लिया जाता था, और अब सबकी नज़रें उसी लड़के आरव पर थीं।
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🌲 आरव की यात्रा की शुरुआत
रात के तीसरे पहर, जब दरबार समाप्त हुआ,
आरव महल से निकल पड़ा।
उसने सिर्फ एक झोला उठाया — उसमें कुछ औज़ार, सूखी रोटी, पानी की मशक और एक छोटी सी किताब थी जिसमें उसने अपनी खुद की नोट्स लिखी थीं —
जड़ी-बूटियों, पत्तों और औषधियों के बारे में।
महल के फाटक पर कप्तान रणजीत ने उसे रोका।
> “रात में अकेले जंगल जाना ठीक नहीं, बालक। वहाँ जंगली जानवर हैं, और अंधेरे में रास्ते नहीं दिखते।”
आरव मुस्कुराया,
> “राजा साहब की आँखें रात में लौट आती हैं।
शायद उनकी बीमारी का इलाज भी रात की किसी गहराई में छिपा है।”
रणजीत को उसकी बात में दम लगा।
वह बोला,
> “ठीक है, मैं सैनिक नहीं भेजूंगा, लेकिन ये मशाल ले जा।
और अगर किसी मुसीबत में फँस जाओ, तो बस तीन बार ये सीटी बजाना — सैनिक दौड़े चले आएंगे।”
आरव ने झुककर प्रणाम किया,
> “धन्यवाद, सेनापति जी। लौटूंगा तो राजा की आँखों में उजाला लेकर।”
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🌳 जंगल का रहस्य
रात घनी हो चली थी।
जंगल के पेड़ आसमान से बातें कर रहे थे,
झींगुरों की आवाज़ें हवा में गूँज रही थीं।
आरव मशाल लेकर अंदर बढ़ा।
जगह-जगह नीले, लाल, और सुनहरे रंग के जड़ी-बूटियाँ चमकती दिखतीं — जैसे किसी ने धरती पर छोटे तारे बिखेर दिए हों।
वह खुद से बुदबुदाया —
> “मेरे गुरु कहते थे, हर बीमारी का इलाज धरती ने खुद बनाया है। बस उसे ढूँढना आता हो।”
वह झुककर हर पौधे को ध्यान से देखता, पत्तों को सूंघता, नोट्स लिखता।
कई बार सन्नाटे में उसे किसी जानवर की आँखें दिखतीं, पर वह पीछे नहीं हटा।
घंटों चलने के बाद वह एक पुराने पीपल के वृक्ष तक पहुँचा।
वहीं एक वृद्ध साधु बैठे थे, उनकी दाढ़ी चाँदनी में झिलमिला रही थी।
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🧙 साधु से भेंट
साधु ने आँखें खोलीं और मुस्कुराए,
> “आ गया तू, बेटा। मैं तेरा इंतज़ार कर रहा था।”
आरव चौंक गया,
> “आप मुझे जानते हैं?”
> “जो खोजता है, वह स्वयं आकाश में लिखे नाम से पुकारा जाता है।
तू उस राजा की आँखों का उजाला ढूँढने निकला है ना?”
आरव ने सिर झुका दिया,
> “जी... पर आप कैसे जानते हैं?”
साधु बोले,
> “क्योंकि यह बीमारी केवल शारीरिक नहीं है।
राजा की आँखों पर जो अंधकार है, वह एक पुराने शाप का परिणाम है।”
आरव ने विस्मय से पूछा,
> “शाप?”
> “हाँ, वर्षों पहले राजा के पूर्वजों ने एक निर्दोष साधक की तपस्या भंग की थी।
तब उसने कहा था — ‘तुम्हारे वंश में एक राजा ऐसा होगा जो दिन में अंधा और रात में देखने वाला होगा।’
अब वही शाप सक्रिय है।”
आरव का मन विचलित हुआ।
> “तो क्या इसका कोई उपाय नहीं?”
साधु ने कहा,
> “है — पर कठिन।
तुलसी और नागकेसर की जड़ को ‘अमृतधारा’ झरने के जल में उबालना होगा।
वह जल केवल आधी रात को नीले चाँद की रोशनी में मिल सकता है।
और हाँ — इस दवा को किसी लालची मनुष्य के हाथों नहीं,
सच्चे विश्वास वाले के हाथों से ही लगाना होगा।”
आरव ने दृढ़ स्वर में कहा,
> “मैं करूंगा। राजा के लिए नहीं — उस उजाले के लिए जो उन्होंने अपने राज्य में फैलाया है।”
साधु ने मुस्कुराकर आशीर्वाद दिया,
> “जा बेटा, अंधकार तेरी परीक्षा लेगा, पर तू डगमगाना मत।
याद रख — जिसे रात का भरोसा है, उसे दिन का डर नहीं होना चाहिए।”
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🌧️ यात्रा जारी
आसमान में बादल घिरने लगे थे।
बिजलियाँ चमकने लगीं,
मगर आरव मशाल लेकर बढ़ता गया।
वह झरने की ओर चल पड़ा — जहाँ “अमृतधारा” बहती थी।
बारिश की बूंदें उसके कपड़ों को भिगो रही थीं,
मगर उसके भीतर का जोश और विश्वास पहले से ज्यादा प्रज्वलित हो चुका था।
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🕯️ इस बीच महल में…
महल में राजमाता चिंतित थीं।
वह बार-बार राजवैद्य से पूछतीं —
> “क्या वह बालक लौटेगा?”
> “माताश्री, जंगल के रास्ते कठिन हैं।
लेकिन अगर उसकी नीयत सच्ची है, तो शायद वही भगवान का भेजा हुआ उपाय है।”
राजा खिड़की के पास खड़े थे,
बारिश को सुनते हुए बोले —
> “हर बिजली की चमक में मुझे लगता है जैसे कोई मेरा इलाज ढूँढ रहा है।
शायद वो लड़का… आरव।”
उनकी आँखों में उम्मीद झलक रही थी।
वो जानते थे —
कभी-कभी भगवान आँखें नहीं, विश्वास दिखाने के लिए अंधकार देता है।