अंधेरी भूख
✍️ लेखक: राज फुलवरे
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अध्याय 1 — काला घाट का नामोनिशान
संजय, शहर का साधारण लेकिन मेहनती आदमी।
उसका टूर्स एंड ट्रेवल्स का काम लोगों की तरह छोटा नहीं था—
वह हर ग्राहक को सम्मान से ले जाता था।
लोग उसे भरोसे का ड्राइवर मानते थे।
लेकिन शहर के नक्शे पर एक जगह ऐसी थी जहाँ लोग पैदल भी नहीं जाते थे—
काला घाट का जंगल।
लोग कहते थे—
> “वहाँ अंधेरा खुद ज़िंदा है।”
“वहाँ पेड़ हवा में नहीं… किसी और की साँसों से हिलते हैं।”
“वहाँ रात नहीं, मौत उतरती है।”
“वहाँ आत्माएँ रहती हैं, जो इंसानों को रास्ता नहीं… मौत देती हैं।”
संजय इन बातों पर हँसता था।
वह आधुनिक था, पढ़ा-लिखा था—
उसे लगता था कि ये सब कहानियाँ बुजुर्गों की बनाई हुई हैं।
एक दोपहर उसका फोन बजा—
स्क्रीन पर नाम चमक रहा था: कल्पेश।
संजय ने कॉल उठाया—
> संजय: “हाँ बोल भाई, कहाँ जाना है?”
कल्पेश: “एक भाड़ा मिला है, आर्मी भर्ती वाला लड़का। रात तक ट्रेन पकड़नी है। जल्दी जाना पड़ेगा।”
संजय: “ठीक है, कहाँ से उठाना है?”
कल्पेश: (हल्का झिझकते हुए) “काला घाट वाले शॉर्टकट के पास से…”
संजय हँस पड़ा—
> संजय: “फिर वही जगह? लोग डराते ही रहते हैं।”
कल्पेश: “डराने वाली बात नहीं। काम अच्छा है। पैसे भी अच्छे मिलेंगे।”
संजय ने बिना ज्यादा सोचे इंजन स्टार्ट किया और निकल पड़ा।
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अध्याय 2 — अंधेरा जो खत्म न हो
संजय ने शॉर्टकट का मोड़ लिया।
रास्ता पुराने समय का था—
कहीं पेड़ झुके हुए, कहीं सड़क टूटी हुई, कहीं धुआँ-धुआँ सा महसूस होता।
चारों तरफ पेड़ ऐसे खड़े थे, जैसे पहरेदार।
धूप भी उन पत्तों के बीच से डरते-डरते उतरती थी।
कई किलोमीटर चलने के बाद आगे एक काली आकृति नज़र आई।
गाड़ी पास आई तो वह आदमी बिल्कुल सामने खड़ा था।
चेहरा मानो धुएँ से बना हो…
आँखें इतनी गहरी कि जैसे किसी अंधे कुएँ में झाँक रहा हो।
संजय ने गाड़ी रोकी।
आदमी ने धीमे से कहा—
> अजनबी: “तुम ही संजय?”
संजय: “हाँ… आप ही भाड़ा?”
अजनबी: “हाँ। मुझे अंधर कहते हैं।”
उसका नाम सुनते ही हवा का तापमान अचानक घट गया।
अंधर गाड़ी में बैठ गया और बोला—
> अंधर: “आगे मेरे तीन और दोस्त खड़े हैं। उन्हें भी उठाना है। हम सब एक साथ जा रहे हैं।”
संजय ने बिना पूछे गाड़ी आगे बढ़ा दी।
पर रास्ता जितना आगे जाता…
अंधेरा उतना ही गाढ़ा होता जाता।
ऐसा लगा कि सूरज भी इस रास्ते को रोशन करने से डरता है।
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अध्याय 3 — चार नाम, एक ही अंधेरा
एक मोड़ के बाद दूर तीन और आकृतियाँ खड़ी दिखीं।
उनका शरीर इंसानी था…
लेकिन उनकी चाल, उनके खड़े रहने का तरीका…
सब कुछ असामान्य था।
तीनों गाड़ी में बैठ गए।
> पहला दोस्त: “मेरा नाम अंधवान।”
दूसरा: “मुझे अंधदत्त कहते हैं।”
तीसरा: “और मैं अंधेश।”
चारों नाम सुनकर संजय के माथे पर पसीना आ गया।
> संजय (मन में): ये कैसे नाम हैं? ये लोग कौन हैं? और ये सब एक जैसे क्यों हैं…?
पर उसने चेहरे पर कुछ नहीं आने दिया।
सोचा—
“शायद गाँव के नाम अजीब होते होंगे… मैं ज़्यादा सोच रहा हूँ।”
लेकिन तभी—
संजय को लगा कि गाड़ी खुद-ब-खुद एक दिशा में मुड़ रही है।
मानो स्टीयरिंग उसके हाथ में नहीं…
किसी और के हाथ में हो।
चारों पीछे बैठे थे, पर उनका मौन इतना भारी था कि गाड़ी अंदर से दमघोंटू लगने लगी।
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अध्याय 4 — छुपा हुआ सच
संजय ने धीरे-धीरे बिना आवाज़ किए अपना मोबाइल निकाला।
उसने कल्पेश को कॉल लगाया और धीमी आवाज़ में बोला—
> संजय: “भाई, जो भाड़ा बताया था… वो मिल गया है।”
कल्पेश: “हैं? कौन-सा भाड़ा? मैंने तो किसी को भेजा ही नहीं! जिस आदमी की बात की थी वो आया ही नहीं!”
संजय का दिल रुक सा गया।
> संजय: “क्या…? पर यहाँ तो एक आदमी बैठा है… अंधर नाम है उसका…”
कल्पेश: (घबराकर) “संजय, बहुत ध्यान से सुन… अगर वो अंधर है… और तीन उसके दोस्त हैं… तो तू ग़लत लोगों के साथ है!
उन लोगों को पता मत चलने देना कि तू जान चुका है कि वे क्या हैं!
तू इंसानों के साथ नहीं है, वे—”
संजय ने जल्दी फोन काट दिया।
पीछे से आवाज़ आई—
> अंधर: “किससे बात कर रहे थे संजय…?”
संजय ने पूरी हिम्मत जुटाकर मुस्कराते हुए कहा—
> संजय: “घर से कॉल आया था। बस पूछ रहे थे कब लौटूँगा।”
अंधर ने एक लंबी, धीमी मुस्कान दी—
> अंधर: “लौटना… सबके बस की बात नहीं होती।”
उसकी आवाज़ में अजीब कंपन था।
मानो उसके अंदर कई आवाज़ें एक साथ बोल रही हों।
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अध्याय 5 — भूख का पहला संकेत
अब चारों पीछे आपस में बातें करने लगे।
संजय चुपचाप उनके हर शब्द सुन रहा था।
> अंधवान: “बहुत समय बाद इंसानी मांस मिलेगा…”
अंधदत्त: “आज दावत होगी… खुली जगह में…”
अंधेश: “मैदान में खाना बनाना अच्छा लगता है… धुआँ आसमान तक जाता है।”
अंधर: “और आज के खाने का पहला हिस्सा… ये ड्राइवर है।”
संजय के हाथ काँप गए।
लेकिन उसने स्टीयरिंग मजबूत पकड़कर खुद को सामान्य दिखाया।
इस बीच माहौल और भी अजीब होता जा रहा था—
गाड़ी के बाहर हल्की हवा चल रही थी,
पर पेड़ एक साथ झूम रहे थे,
जैसे किसी अदृश्य ताकत ने उन्हें झकझोरा हो।
गाड़ी अब ऐसे रास्ते पर थी जिसे संजय ने कभी नहीं देखा था।
संजय के मन में सिर्फ़ एक ही बात थी—
“जीना है… किसी भी तरह।”
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अध्याय 6 — मौत का मैदान
गाड़ी अचानक एक बेहद विशाल, सुनसान मैदान में जाकर रुकी।
चारों धीरे-धीरे गाड़ी से उतरे।
उनकी चाल इंसानों जैसी नहीं थी—
मानो उनकी हड्डियों में लचक ज्यादा हो या नसें टूट चुकी हों।
अंधर बोला—
> अंधर: “चलो संजय… आज की रात खास है। हमें… खाना पकाना है।”
अंधेश ने जमीन पर हाथ रखा और हँसते हुए बोला—
> अंधेश: “मिट्टी भी गर्म है… देखो… जैसे किसी का इंतज़ार कर रही हो।”
संजय की रीढ़ में सनसनी दौड़ गई।
अंधवान ने कहा—
> अंधवान: “संजय, नीचे से लकड़ियाँ निकालने में हमारी मदद करो।”
यही वह क्षण था।
संजय को बस एक मौका चाहिए था… एक छोटा-सा… और वह जान बचा सकता था।
संजय ने गाड़ी से उतरने का बहाना किया।
धीरे-धीरे पीछे हटता गया।
अंधर कुछ पकड़ों में व्यस्त था।
और तभी—
जब वे चारों दूसरी दिशा में देख रहे थे—
संजय पूरी ताकत से भाग पड़ा।
पीछे चारों की चीख गूँजी—
> अंधर: “भागकर क्या करेगा… इंसान…?”
अंधवान: “यह अंधेरा हमारा है…”
अंधदत्त: “हम सब देख रहे हैं…”
अंधेश: “आज तो तुझे खा कर रहेंगे…”
पर संजय भागता रहा।
ताबड़तोड़।
बिना पीछे देखे।
बिना रुके।
अंधेरा उसके पीछे-पीछे दौड़ रहा था।
जैसे हवा भी उसे पकड़ना चाहती हो।
काफी देर बाद उसे एक रोशनी दिखी—
एक ट्रक के हेडलाइट्स की।
संजय ने चीखकर हाथ हिलाया।
ट्रक रुक गया।
ड्राइवर ने उसे अंदर चढ़ा लिया।
ट्रक की रोशनी में देखते ही—
मैदान, जंगल, चारों परछाइयाँ…
सब गायब हो चुके थे।
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अध्याय 7 — अंधेरा जो कभी खत्म नहीं होता
संजय शहर पहुँच गया।
उस रात वह घर नहीं गया—
सीधे पुलिस स्टेशन गया, पर…
उस रास्ते पर
न कोई मैदान मिला,
न चारों आदमी,
न गाड़ी की कोई निशानी।
सब कुछ ऐसे गायब था
जैसे कभी था ही नहीं।
लेकिन संजय के मन में
उन चारों की मुस्कान,
उनके नाम,
उनकी चाल—
सब जिंदा थे।
उस दिन के बाद
संजय ने काला घाट का रास्ता
कभी नहीं लिया।
क्योंकि वह जान गया था—
“अंधेरा… सिर्फ़ रोशनी की कमी नहीं होता।
कभी-कभी… अंधेरा भूखा भी होता है।”
और काला घाट का अंधेरा—
अब भी भूखा है।