YugMahabharat - 2 in Hindi Mythological Stories by Krayunastra SK Arya books and stories PDF | युगमहाभारत - 2

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युगमहाभारत - 2

अध्याय 2 - आत्म परीक्षा

रात्रि के अंतिम पहर की निस्तब्धता में हस्तिनापुर जैसे किसी अदृश्य प्रतीक्षा में स्थिर था। दीपक की लौ हवा के झोंकों से डोल रही थी, पर महल का विशाल प्रांगण गंभीर और शांत था। 

आरात्रि के पश्चात जब पूर्व दिशा में हल्की सी आभा फैलने लगी, राजा शांतनु अपने कक्ष से बाहर आ गए। उनकी आँखों में जागी रातों का बोझ था, पर मन में एक अजीब सी ऊर्जा थी, जिसे वे समझ नहीं पा रहे थे। 

महल के ऊपर के प्रांगण में खड़े होकर उन्होंने दूर दूर तक नजर दौड़ाई। हवा में अभी भी गंगा की स्मृति बिखरी थी। शांतनु ने गहरी सांस ली और उस स्वच्छ, तीखी गंध को अपने भीतर उतरने दिया। 

उन्होंने धीमे स्वर में कहा, "देवी गंगा!" 

मानो नाम लेने भर से वे उसकी उपस्थिति पाना चाहते हों। पर उत्तर हवा में था, जल में था… सामने फैले अनंत में था, शब्दों में नहीं।

धीरे धीरे सूर्य की पहली किरणें पहाड़ियों के पीछे से उभरने लगी। राजमहल की दीवारें सुनहरी छटा से भर उठीं।

तभी राजपुरोहित सोमदेव तेज कदमों से चलते हुए वहां आए और राजा के सामने प्रणाम करके खड़े हो गए। 

उनकी आवाज़ हल्की पर गंभीर थी, “महाराज! रात्रि में देवदिशा से एक दिव्य प्रकाश के दर्शन हुए हैं। वेदों के अनुसार, ऐसे प्रकाश तब प्रकट होते हैं जब किसी महान आत्मा के मार्ग खुलते हैं।” 

ये सुनकर शांतनु ने उनकी ओर देखा, इस समय शांतनु की आँखों में आशा और अशांति दोनों थी। 

उन्होंने पूछा, “क्या यह संकेत मेरे पुत्र से जुड़ा हो सकता है?”

सोमदेव कुछ क्षण मौन रहे, फिर बोले, “महाराज, ऐसा होना संभव है। गंगा देवी साधारण नहीं हैं। वे लोकों से परे हैं। उनका हर कर्म गूढ़ है, पर लक्ष्य सदैव धर्माचरण ही होता है। यह प्रकाश… यह जरूर किसी दिव्य आरम्भ का संकेत है।” 

शांतनु ने आँखें मूँद ली। उनके सामने गंगा का अंतिम दृश्य फिर उभर आया, उसकी काँपती पलकों के पीछे छिपा हुआ रहस्य, उनका बेटा उन्हें सौंपकर फिर वापस ले जाना और उसके कहे अंतिम शब्द, ‘जब समय आएगा, तब तुम समझोगे।’ 

उस स्मृति ने राजा के भीतर फिर से तूफ़ान मचा दिया। पर उन्होंने स्वयं को सँभालते हुए कहा, “यदि यह समय निकट आ रहा है, तो मुझे तैयार रहना होगा। मेरे पुत्र का भाग्य साधारण नहीं है, यह देवी गंगा का वचन है।” 

सोमदेव ने सिर झुकाया, “निस्संदेह महाराज। और आपकी भक्ति, धैर्य और धर्मपालन ही आपको उस क्षण तक ले जाएंगे। इसलिए अब चिंता करने की कोई बात है ही नहीं।” 

उधर, उन्हें पता नहीं था कि उसी समय, हस्तिनापुर से दूर उत्तर दिशा में, जहाँ हिमालय की पवित्र शृंखलाएँ नीले और सफेद प्रकाश में लिपटी खड़ी थी, वहाँ गंगा अपने दिव्य शिशु को बाहों में लिए बह रही थी। 

वह अब साधारण नदी नहीं, एक चमकती, तेजस्विनी रश्मि की तरह दिख रही थी। शिशु देवव्रत शांत था। उसकी आँखें अभी खुली नहीं थी, पर उसके चारों ओर एक अद्भुत तेज था, मानो आकाश भी उसकी रक्षा कर रहा हो। 

गंगा का स्वर गंभीर था, पर उसमें मातृत्व की कोमलता भी छिपी हुई थी, उसने कहा, “देवव्रत… तुम आठवें वसु का रूप हो। सात को मैंने मुक्त कर दिया, परंतु तुम्हें पृथ्वी के लिए संगृहीत किया है। पुत्र, तुम्हारा भविष्य एक राजकुमार का ही नहीं, बल्कि धर्म का आधार हैं। इसलिए मैं तुम्हें अभी वापस नहीं ले जा सकती।” 

जलराशि उसके चरणों को ऐसे छूती रही, जैसे स्वर्ग स्वयं उस शिशु को प्रणाम कर रहा हो। हवा में हल्की कंपकंपी फैल गई, जो एक संकेत था कि देवव्रत की शिक्षा का प्रथम मार्ग खुलने वाला है। 

गंगा ने आकाश की ओर देखा, फिर बोली, “हे दिव्य लोकों… समय आ गया है कि यह बालक अपनी वास्तविक शक्ति पहचाने। मैं इसे वहाँ ले जा रही हूँ जहाँ इसका पहला संस्कार होगा। जहाँ धरती और स्वर्ग का ज्ञान एक साथ दिया जाता है।” 

तभी अचानक गंगा का जल रूपांतरित होने लगा। तरंगों में प्रकाश भर उठा, और कुछ ही क्षणों में गंगा एक चमकदार प्रकाश मार्ग के रूप में परिवर्तित हो गई। देवव्रत को सीने से लगाए गंगा हिमालय की ओर बढ़ी, जहाँ कुछ महान होने वाला था। 

दूसरी तरफ हस्तिनापुर में अब राजा शांतनु का मन और भी बेचैन होता जा रहा था। एक के बाद एक एक दिन बीतने लगे और ऐसे ही 10 वर्ष बीत गए, पर शांतनु का मन समय के प्रवाह से अलग हो गया था। 

वे महल के आँगन, गलियारों और राजकक्षों से गुजरते तो ऐसा लगता जैसे हर दीवार, हर दीपक, हर वस्तु उन्हें गंगा की अनुपस्थिति का आभास करा रही हो। 

एक दिन, चलते चलते वे अचानक रुक गए। उनके सामने यज्ञशाला का प्रवेश द्वार था। उसे देख कर उन्होंने सोचा, “शायद यहाँ मुझे अपने प्रश्नों के उत्तर मिल जाएं।" 

ये सोचकर अंदर प्रवेश करते ही अग्नि की गर्माहट ने जैसे उनकी पीड़ा को छु लिया, सोमदेव ने उन्हें भीतर आते देखकर कहा, “महाराज, क्या आप अपने मन का भार अग्नि पर अर्पित करना चाहेंगे?” 

शांतनु ने अग्नि की ओर देखते हुए धीरे से कहा, “सोमदेव… मुझे ऐसा लगता है कि समय कुछ कह रहा है। नदी… हवा… आकाश… सब जैसे किसी आने वाली घटना के लिए तैयार हो रहे हैं। लेकिन मैं उसे समझ नहीं पा रहा।” 

सोमदेव ने मुस्कुराकर कहा, “यही ब्रह्म संकेत है, महाराज। जो समझ में नहीं आता, वही नियति का मार्ग होता है।” 

राजा घुटनों के बल बैठकर अग्नि की ओर झुके। फिर धीरे से बोले, “हे अग्निदेव… मेरी एक ही विनती है, मेरे पुत्र को सुरक्षित रखना। उसकी रक्षा करना। चाहे वह कहीं भी हो… किसी भी लोक में… उसकी रक्षा करना।” 

यहां से बहुत दूर, गंगा घने बादलों के बीच से ऊपर उठ रही थी। उसके चारों ओर जल कण नहीं, छोटे छोटे प्रकाश बिंदु नृत्य कर रहे थे और देवव्रत उनके साथ ही खड़ा था। 

गंगा बोली, “पुत्र… आज से तुम्हारी यात्रा आरम्भ होती है। कल तुम हस्तिनापुर लौटोगे… पर आज तुम्हें वह ज्ञान मिलेगा जो किसी मनुष्य को जन्म से नहीं मिलता।” 

ये कह कर उनके आगे विशाल आकाश दीपित हो उठा। दूर से ऋषि वशिष्ठ की तपोभूमि दिखाई दे रही थी। सूर्यास्त की लालिमा अब गंगा की तरंगों पर सोने की परत सी तैर रही थी। 

दिन का ताप शांत हो गया था, और आकाश में फैलती मंद नीली छाया मानो किसी अनदेखे मार्ग की ओर संकेत कर रही थी। आश्रम के निकट यज्ञकुंड में रखी आहुतियों से श्वेत धुएँ की हल्की हल्की रेखाएँ उठ रही थी। 

वायु में हवन सामग्री की सुगंध थी, जिसमें घी, गंधरस, तिलोदक और वन फूलों की सुवास घुलकर एक अदृश्य, दिव्य वातावरण बना रही थी। देवव्रत ने उस वातावरण को देख कर एक गहरी साँस ली।

यह संसार उसके लिए बिल्कुल नया था, किन्तु उसके भीतर कहीं एक शांति भी थी, जैसे कोई सुप्त ज्ञान उन्हें धीरे धीरे पुकार रहा हो। 

वशिष्ठ ऋषि अग्नि के पास बैठे थे, मुख पर स्थिरता, नेत्रों में चिंतन। उनके समक्ष एक ताम्र पत्र खुला था, जो शायद किसी प्राचीन गणना या पुरावृत्त का संकेत था। 

आगे बढ़कर देवव्रत उनके समीप पहुँचे और विनयपूर्वक नमस्कार करके बोले, "प्रणाम गुरुदेव।" 

वशिष्ठ ने तुरंत अपनी आंखें खोली और अपने सामने खड़े बालक को देखकर मुस्कुराते हुए बोले, “अभ्युदयस्ते भविष्यति पुत्र! तुम्हारे भीतर वह तेज है, जो केवल क्षत्र का ही नहीं, बल्कि ऋत्विज का भी होता है, शासन का भी और ज्ञान का भी। आज से तुम्हारे संस्कार आरम्भ होते हैं।” 

देवव्रत ने शांत स्वर में उत्तर दिया, “गुरुदेव, मैं स्वयं को आपके मार्गदर्शन में सौंपता हूँ। बताइए, मुझे प्रथम क्या सीखना है?”

वशिष्ठ ने गंगा की दिशा में देखते हुए कहा, “ज्ञान का आरम्भ मौन से होता है। प्रथम यह समझो कि धरा पर जो कुछ प्रकट होता है, वह अदृश्य के आदेश से ही घटित होता है। महर्षि नदी, गंगा का सम्पूर्ण चरित्र इसी सत्य की देह है। उनके जीवन को समझना, स्वयं को समझने का प्रथम चरण है।” 

देवव्रत ने पहली बार ध्यान से गंगा के प्रवाह को देखा। कितनी शांत और फिर भी कितनी विशाल। जैसे किसी गहरी स्मृति को अपने जल में बहा रही हो। 

वशिष्ठ बोले, “गंगा केवल जल नहीं। वे स्वर्ग की धारा हैं, मरुतों की गति हैं, ब्रह्मा का स्पर्श हैं। उनके आने का समय, उनका मौन, उनका विलय, ये सब संयोग नहीं थे। जिस दिन वे नदी के रूप में इस धरती पर उतरीं, उसी दिन इस भूभाग का भाग्य बदल गया। और जिस दिन उन्होंने तुझमें जीवन का बीज रखा, उसी दिन भविष्य का धर्म संकल्प भी अंकुरित हुआ।” 

देवव्रत के हृदय में एक हल्की कंपकंपी सी उठी, उसने पूछा, “लेकिन गुरुदेव, माता ने वह रहस्य क्यों नहीं बताया? मैं क्यों नहीं जान पाया कि वे कौन थीं, क्यों आईं, क्यों चली गईं?”

वशिष्ठ के मुख पर एक गहरी, गंभीर मुस्कान उभरी, “हर सत्य को जानने का समय होता है पुत्र। गंगा का उद्देश्य, गंगा का व्रत, गंगा का त्याग। ये सभी बातें तुम्हारे भविष्य से जुड़ी हैं। यदि तुम समय से पहले इनका ज्ञान पा लेते हो, तो तुम्हारा मार्ग बदल जाएगा। इस कारणवश यह संसार तुम्हारे भाग्य को बदलने की क्षमता अभी प्राप्त नहीं कर सकता।” 

देवव्रत ने सिर झुका लिया, “क्या मेरा भाग्य इतना भारी है गुरुदेव?”

“भाग्य नहीं,” वशिष्ठ ने उत्तर दिया, “कर्तव्य! भाग्य मनुष्य के साथ चलता है, पर कर्तव्य मनुष्य को चलाता है। तुम्हें कर्तव्य ने चुना है भाग्य ने नहीं।” 

कुछ क्षण दोनों मौन रहे। संध्या की सुनहरी लहरें अब नीली हो रही थीं। दूर कहीं क्रौंच का स्वर सुनाई दे रहा था। 

वशिष्ठ आगे बोले, “अब आज की शिक्षा आरम्भ करते हैं। तुम धनुर्वेद में प्रवीण होंगे, तलवार का संचालन भी जानते होंगें। परन्तु क्षत्रिय का प्रथम धर्म केवल युद्ध करना नहीं; धर्म को पहचानना और उसे धारण करना है। आज मैं तुम्हें वही ‘धर्म लक्षण’ का ज्ञान दूँगा।”

ये कह कर उन्होंने शिलाओं पर रखे दो आसनों की ओर संकेत किया। जिसका अर्थ समझते हुए देवव्रत वहां जाकर बैठ गया। 

वशिष्ठ ने अपनी दंडिका भूमि पर रखी और कहा, “चार स्तंभ हैं, जिन पर धर्म स्थिर रहता है। सत्य, दया, तप और शुचिता। इनमें से एक भी डगमगा जाए तो धर्म कमज़ोर हो जाता है। राजा या योद्धा के लिए सत्य प्रथम है क्योंकि सत्य से ही निर्णय उत्पन्न होते हैं।” 

देवव्रत ने ध्यान से सुना। वशिष्ठ आगे बोले, “तुम्हें एक दिन वह निर्णय लेना होगा, जहाँ सत्य और स्नेह दोनों तुम्हें खींचेंगे। तुम्हारे सामने एक ऐसा मार्ग आएगा, जहाँ तुम्हें अपने भीतर का सर्वस्व त्यागकर किसी और के सुख को चुनना होगा। क्या तुम उसके लिए तैयार हो?” 

देवव्रत का हृदय डोल उठा, किन्तु स्वर दृढ़ था। उसने कहा, “जी गुरुदेव! यदि वही धर्म होगा, तो मैं स्वयं को भी उसके लिए अर्पित कर दूँगा।” 

वशिष्ठ ने गहरी श्वास ली, “हह, अच्छा है। मुझे तुमसे यही अपेक्षित रहेगा। क्योंकि यही तुम्हारा पथ है देवव्रत। तुम्हारे इस संकल्प के कारण ही समय तुम्हें अपने इतिहास में एक विशेष स्थान देने वाला है।” 

वशिष्ठ ने फिर संकेत देकर कहा, “अब चलो। आज हम ‘वेद पाठ’ का प्रथम अनुष्ठान करेंगे। तुम्हें समझना होगा कि युद्ध केवल शस्त्रों से नहीं, ज्ञान से जीते जाते हैं। आने वाले समय में तुम्हारा सामना ऐसे लोगों से होगा, जो शक्ति में तुमसे बढ़कर होंगे, पर प्रज्ञा में तुमसे बहुत पीछे। वहाँ विजय ज्ञान से ही होगी शस्त्रों से नहीं।” 

ये जानकर देवव्रत ने प्रणाम किया। और कहा, “गुरुदेव, मैं पूर्ण समर्पण से आज यह मार्ग अपनाता हूँ।” 

अब रात्रि उतरने लगी थी। तारों ने खुले आकाश में झिलमिलाना आरम्भ कर दिया। आश्रम की अग्नि अब अंधकार को चीरती हुई धधक रही थी जैसे ज्ञान का प्रथम दीपक जल उठा हो। रात्रि पूर्णतः उतर आई थी।

आकाश काला मख़मल सा शांत, और उस पर बिखरे अनगिनत तारे मानो देवकुल के दीप हों। आश्रम के मध्य यज्ञकुंड में अग्नि धीमे धीमे जल रही थी, लाल, केसरिया और नीली ज्वालाओं की लय एक अदृश्य संगीत को रच रही थी। 

इस समय देवव्रत उस अग्नि के सम्मुख बैठा था। उसके नेत्रों में उत्सुकता थी और हृदय में एक ऐसी स्थिरता, जो धीरे धीरे किसी महान संकल्प का रूप ले रही थी। 

वशिष्ठ वहीं उसके सामने खड़े थे गंभीर, समाधिस्थ, समय जैसे उनके चरणों में नतमस्तक हो। बाद में उन्होंने धीरे से कहा, “देवव्रत! आज तुम्हें प्रथम मंत्र दीक्षा दी जाएगी। यह वह क्षण है जहाँ से ज्ञान का मार्ग आरम्भ होता है। परंतु ध्यान रहे, मंत्र केवल उच्चारण नहीं, वह अंतर्निहित व्रत है।” 

देवव्रत प्रणाम करते हुए बोला, “गुरुदेव, मैं सिद्ध हूँ।”

वशिष्ठ ने आकाश की ओर देखा, जैसे किसी अदृश्य शक्ति से अनुमति माँग रहे हों। फिर उन्होंने गंगा के बहाव की ओर संकेत किया, “यह धारा आज साक्षी बनेगी। जिस जल से तुम्हारा जन्म हुआ, वही जल तुम्हारे ज्ञान का भी जनक बनेगा।” 

इसके बाद धीरे धीरे वे मंत्रोच्चार करने लगे, “ॐ भूर्भुवः स्वः, तत्सवितुर्वरेण्यं…।” 

इस दौरान गंगा की तरंगें मंद गंभीर रूप से गूँज रही थी मानो जैसे इस मंत्र को प्रतिध्वनित कर रही हों। रात की हवा ठंडी थी, पर देवव्रत के हृदय में एक अग्नि प्रज्वलित हो रही थी जन्मजात तेज, जो अब दिशा पा रहा था। 

वशिष्ठ बोले, “अब हाथ बढ़ाओ पुत्र!” 

देवव्रत ने दोनों हथेलियाँ आगे की। वशिष्ठ ने उनमें गंगा का जल अर्पित किया और बोले, “इस जल में तुम्हारी माता का स्पर्श है। इसमें स्वर्ग का संकल्प है। इसे ग्रहण करने से पूर्व एक वचन दो कि तुम सदैव धर्म का मार्ग चुनोगे, चाहे मार्ग कितना ही कठोर क्यों न हो।” 

ये सुनते ही देवव्रत ने बिना डगमगाए कहा, “मैं व्रत लेता हूँ गुरुदेव। धर्म के लिए अपने सर्वस्व का त्याग भी आवश्यक हो, तो मैं हँसकर अर्पित कर दूँगा।” 

तभी वशिष्ठ ने दीक्षा पूर्ण की और बोले, “अच्छा अब तुम्हारी पहली परीक्षा आरम्भ होती है। यह परीक्षा शस्त्र, बल या कौशल की नहीं बल्कि आत्मबल की है।” 

ये जान कर देवव्रत चकित हो गया, “गुरुदेव, मुझे क्या करना होगा?”

वशिष्ठ ने अपने दंड से समीप की भूमि पर एक वृत्त बनाया, एक पूर्ण गोलाकार चक्र। उसकी ओर देखते हुए वे बोले, “इस वृत्त से बाहर एक भी कदम मत रखना। रात्रि के इस अंतिम प्रहर में प्रकृति की शक्तियाँ जागृत होती हैं। तुम जो सुनोगे, जो देखोगे, वह तुम्हारी स्थिरता को परखने आएगा।” 

देवव्रत ने शांत स्वर में कहा, “जी गुरुदेव, मैं तैयार हूँ।” 

इसके आगे बिना कुछ कहें वशिष्ठ कुछ दूरी पर जाकर ध्यानमग्न हो गए। उनके जाने के कुछ ही क्षणों बाद, एक विचित्र शांति पूरे वातावरण पर छा गई। हवा रुक गई। वृक्षों की पत्तियाँ स्थिर हो गईं, जैसे किसी प्रत्याशा में हों।

और फिर गंगा के जल में हल्की सी चमक उठी, नीली, सौम्य, पर भयमिश्रित कर देने वाली। देवव्रत ने महसूस किया कि जल से कोई ध्वनि आ रही है किसी स्त्री की, कोमल, करुण, और अजीब सी परिचित, “पुत्र… पुत्र... !" 

ये सुन कर देवव्रत चौंक गया। क्योंकि यह वही स्वर था जिसने उसके बचपन को सहलाया था, जिसने एक रात चुपचाप उसे छोड़ दिया था। 

वो आवाज फिर आई, “पुत्र… वृत्त से बाहर आओ… मैं तुम्हें अपने पास बुला रही हूँ… मेरे पास आओ पुत्र! मेरे पास आओ!” 

ये सब सुन कर देवव्रत के पैर काँप उठे। हृदय तेज़ धड़कने लगा। उसकी आँखें नम हो गईं, वो बोला, “माता… क्या यह आप हैं?”

इस बीच गंगा का रूप धीरे धीरे जल धुँधलके में उभरने लगा परछाई, दरारें सी जुड़ी हुई प्रतीति, जैसे स्मृति का स्वरूप शरीर धारण करने को आतुर हो। 

उसने कहा, “आओ पुत्र… तुमसे बहुत दूर नहीं हूँ मैं, अपनी माँ के पास आओ पुत्र!” 

इस बार देवव्रत के पाँव स्वयं आगे बढ़ने को हुए, पर तभी उन्हें वशिष्ठ का वचन स्मरण हुआ, “चरण वृत्त से बाहर न रखना।” 

ये स्मरण करते ही उसकी मुट्ठियाँ कस गईं।हृदय टूट गया, पर संकल्प अडिग रहा। उसने तुरंत अपनी आँखें मूँद लीं और कहा, “यदि आप माता हैं, तो आप चाहेंगी कि मैं धर्म न तोड़ूँ। मैं वृत्त से बाहर नहीं आऊँगा, मुझे क्षमा करें।” 

देवव्रत के इतना कहते ही क्षणभर में वह स्वर शांत हो गया। गंगा फिर से अपनी पुरानी धारा की तरह बहने लगी। 

थोड़ी ही देर बाद, वशिष्ठ धीमे कदमों से देवव्रत के पास लौटे, उनके चेहरे पर गर्व झलक रहा था। 

वे बोले, “असत्य कभी माँ का रूप नहीं धर सकता देवव्रत। तुमने पहला कदम पार कर लिया। तुम सफल हुए, जिसने अपने हृदय पर विजय पा ली, वह संसार पर विजय पा सकता है।”