Maa ki Chuppi - 1 in Hindi Drama by Anurag Kumar books and stories PDF | माँ की चुप्पी - 1

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माँ की चुप्पी - 1

सुबह के चार बजे थे। बाहर अभी भी गहरा अंधेरा छाया हुआ था, और पूरा मोहल्ला गहरी नींद में था। लेकिन, उस पुराने, ईंटों वाले घर के एक कोने में, एक कमरे की बत्ती जल उठी थी। यह शारदा देवी का कमरा था। उनकी नींद हमेशा की तरह सूरज की पहली किरण से पहले ही खुल गई थी।

बिस्तर से उठते ही उनके घुटनों में एक तीखी टीस उठी। शारदा ने अपने होठों को कसकर भींच लिया ताकि मुंह से 'सी' की आवाज़ भी न निकले। अगर आवाज़ हुई, तो शायद बगल के कमरे में सो रहे बेटों की नींद में खलल पड़ सकता था। उन्होंने धीरे से दीवार का सहारा लिया और एक हाथ अपनी कमर पर रखकर खड़ी हो गईं। बदन टूट रहा था, जैसे रात भर आराम नहीं, बल्कि उन्होंने पत्थरों का बोझ ढोया हो। पिछले कुछ महीनों से यह दर्द उनका साथी बन गया था, लेकिन उन्होंने इसे अपनी चुप्पी के आंचल में छिपा रखा था।

रसोई में कदम रखते ही उन्हें अपनेपन का अहसास हुआ, लेकिन साथ ही एक अजीब सी थकान भी महसूस हुई। यह रसोई उनकी दुनिया थी, पिछले पैंतीस सालों से। उन्होंने चूल्हे के पास जाकर माचिस जलाई। गैस की नीली लौ ने अंधेरे को थोड़ा कम किया। पानी उबलने लगा। चाय की पत्ती की महक जैसे ही हवा में घुली, शारदा को थोड़ी राहत मिली। यह दिन का वह इकलौता समय होता था जब वह अपने लिए कुछ करती थीं—सिर्फ एक कप चाय। लेकिन, जैसे ही उन्होंने कप होंठों से लगाया, बड़े कमरे से आवाज़ आई।

"माँ! मेरी चाय तैयार है क्या? मुझे जल्दी निकलना है आज।" यह रामू था, बड़ा बेटा।

शारदा ने अपना कप वहीं स्लैब पर रख दिया। एक घूंट भी नहीं पी पाई थीं। "हां बेटा, बस ला रही हूं," उनकी आवाज़ में हमेशा वाली ममता थी, लेकिन गले में एक भारीपन भी था जिसे रामू ने शायद नोटिस नहीं किया।

उन्होंने जल्दी-जल्दी ट्रे सजाई। दो बिस्कुट रखे और चाय लेकर कमरे में गईं। रामू बिस्तर पर बैठकर मोबाइल में उलझा हुआ था। उसने माँ की तरफ देखा भी नहीं, बस हाथ बढ़ाकर कप ले लिया। शारदा एक पल के लिए वहां खड़ी रहीं। उन्हें लगा शायद रामू पूछेगा, "माँ, तुमने चाय पी?" या शायद कहेगा, "माँ, तुम्हारे पैर कैसे हैं आज?" लेकिन रामू की नज़रें स्क्रीन से नहीं हटीं। वह किसी ई-मेल का जवाब देने में व्यस्त था। शारदा ने एक गहरी सांस ली और चुपचाप कमरे से बाहर निकल गईं। यह चुप्पी अब उनके जीवन का हिस्सा बन चुकी थी।

आंगन में आते ही छोटा बेटा, मोहन, भी अंगड़ाई लेते हुए बाहर निकला। वह गाँव की दुकान संभालता था, थोड़ा लापरवाह था, लेकिन दिल का बुरा नहीं था। फिर भी, माँ की बदलती हुई सेहत देखने के लिए जिस नज़र की ज़रूरत थी, वह उसके पास भी नहीं थी।

"माँ, आज नाश्ते में वो आलू वाले परांठे बना देना, बहुत भूख लगी है," मोहन ने नल पर मुंह धोते हुए कहा।

शारदा को चक्कर सा आ रहा था। उनका अपना पेट खाली था, और घुटनों का दर्द अब पिंडलियों तक उतर आया था। लेकिन 'ना' कहना उन्होंने सीखा ही नहीं था। "ठीक है लल्ला, अभी बनाती हूं," उन्होंने कहा और फिर से रसोई में जुट गईं।

परांठे सेंकते हुए चूल्हे की आंच उनके चेहरे पर पड़ रही थी। पसीना माथे से बहकर गालों तक आ गया। उनका हाथ कांप रहा था जब वह चिमटे से परांठा पलट रही थीं। एक बार तो ऐसा लगा कि शायद वह गिर जाएंगी, उन्होंने स्लैब को कसकर पकड़ लिया। कुछ पल के लिए अपनी आँखें बंद कीं और गहरी सांस ली। जब लगा कि अब खड़ी हो सकती हैं, तो दोबारा काम पर लग गईं।

दोनों बेटे तैयार होकर मेज़ पर आए। नाश्ता करते हुए वे आपस में बातें कर रहे थे।

"भैया, दुकान के लिए थोड़ा पैसा चाहिए था, माल मंगवाना है," मोहन ने कहा।

"अभी पिछले महीने ही तो दिया था मोहन, थोड़ा हिसाब से चला कर," रामू ने झुंझलाते हुए कहा।

"अरे, महंगाई बढ़ गई है, तुम शहर में रहते हो, तुम्हें क्या पता गाँव का हाल," मोहन ने जवाब दिया।

उनकी बहस चल रही थी, हंसी-मज़ाक भी हो रहा था। शारदा रोटियां ला-लाकर उनकी थाली में रख रही थीं। किसी ने यह नहीं देखा कि माँ की थाली मेज़ पर है ही नहीं। किसी ने यह नहीं पूछा, "माँ, तुम भी बैठ जाओ, साथ में खा लो।" वे बस अपनी दुनिया में थे, और शारदा उस दुनिया की वो नींव थीं जो ज़मीन के नीचे दबी रहती है, दिखाई नहीं देती।

जब दोनों चले गए, तो घर में सन्नाटा पसर गया। यह सन्नाटा शारदा को अब काटने को दौड़ता था। उन्होंने रसोई समेटी। बर्तनों का ढेर सिंक में पड़ा था। उन्हें मांजते हुए उनकी कमर लगभग जवाब दे गई थी। जब सारा काम खत्म हुआ, तो दोपहर के दो बज चुके थे। अब उनकी बारी थी।

शारदा ने अपनी थाली निकाली। पतीले में देखा तो सिर्फ़ एक सूखी रोटी और थोड़ी सी दाल बची थी, वह भी ठंडी हो चुकी थी। सब्ज़ी खत्म हो गई थी। उन्होंने एक पल के लिए उस ठंडी दाल को देखा। गर्म करने की हिम्मत अब शरीर में नहीं थी। उन्होंने वही ठंडी दाल रोटी पर डाली और रसोई के उसी कोने में ज़मीन पर बैठ गईं।

पहला निवाला मुंह में डालते ही उनकी आँखों में पानी आ गया। यह आंसू भूख के नहीं थे, न ही गरीबी के थे। यह आंसू उस अकेलेपन के थे जो भरे-पूरे परिवार में उन्हें महसूस होता था। वह चबा रही थीं, लेकिन खाना गले से नीचे नहीं उतर रहा था। उन्हें याद आया कि जब बच्चे छोटे थे, तो वह पहले उन्हें खिलाती थीं और खुद भूखी रहती थीं, तब एक अलग सुकून मिलता था। आज भी वह वही कर रही थीं, लेकिन आज सुकून नहीं, सिर्फ़ एक खालीपन था।

शाम होते-होते उनकी तबीयत और बिगड़ने लगी। शरीर तप रहा था। शायद बुखार था। उन्होंने सोचा कि रामू के आने पर बताएंगी। "बेटा, आज दवाई ला देना, तबियत ठीक नहीं लग रही," वह मन ही मन रिहर्सल करने लगीं।

रात को रामू और मोहन घर लौटे। वे दोनों बहुत खुश थे। शायद कोई बड़ा मुनाफा हुआ था या कोई अच्छी खबर थी।

"माँ! आज खाना जल्दी लगा दो, हमें एक दोस्त की शादी में जाना है," रामू ने जूते उतारते हुए कहा।

शारदा जो अभी कहने ही वाली थीं कि 'खाना बनाने की हिम्मत नहीं है', उनके शब्द गले में ही अटक गए। उनकी खुशी देखकर उन्हें अपनी बीमारी बताना एक 'रुकावट' जैसा लगा। उन्होंने फिर वही किया जो वह हमेशा करती थीं—चुप्पी साध ली।

"हां... हां, अभी लगाती हूं," उन्होंने कांपती आवाज़ में कहा।

फिर से वही रसोई, वही धुंआ, और वही दर्द। जब वे दोनों खाकर और तैयार होकर शादी के लिए निकल गए, तो रात के दस बज चुके थे। शारदा ने दरवाजा बंद किया। वह इतनी थक चुकी थीं कि बिस्तर तक जाना भी एक पहाड़ चढ़ने जैसा लग रहा था।

वह धीरे-धीरे चलकर अपने कमरे में आईं और अपने पति की तस्वीर के सामने खड़ी हो गईं। तस्वीर पर चढ़ी माला थोड़ी धूल-भरी हो गई थी।

"तुम तो चले गए," वह तस्वीर से बुदबुदाईं, "मुझे इस सूने घर में, इन बच्चों के बीच होकर भी अकेला छोड़ गए।"

उस रात, लेटने के बाद शारदा को लगा कि उनकी धड़कन बहुत तेज़ हो रही है। सीने में एक अजीब सा भारीपन था। उन्होंने पानी पीने के लिए हाथ बढ़ाया, लेकिन हाथ से लोटा छूट गया और पानी फर्श पर गिर गया। वह उठ नहीं पाईं। अंधेरे कमरे में, फर्श पर गिरे पानी को देखते हुए, उन्हें पहली बार एक डर महसूस हुआ—मौत का डर नहीं, बल्कि इस बात का डर कि अगर आज रात उन्हें कुछ हो गया, तो सुबह तक किसी को पता भी नहीं चलेगा।

बाहर हवा तेज़ चल रही थी और खिड़की का पल्ला बार-बार खट-खट कर रहा था, जैसे कोई कह रहा हो कि अब बहुत देर हो चुकी है...