रात के 2:37 हो रहे थे। कमरे में गहरा सन्नाटा था, इतना गहरा कि टेबल पर रखी पुरानी अलार्म घड़ी की 'टिक-टिक' किसी हथौड़े जैसी लग रही थी। मेज़ पर कॉफी का मग रखा था, जो घंटों पहले ठंडा हो चुका था।
विक्रम (लेखक) अपनी कुर्सी पर पीछे की ओर झुका हुआ बैठा था। उसके सामने लैपटॉप की स्क्रीन खुली थी। एक कोरा पन्ना (blank page)। और उस पन्ने पर एक काली लकीर (cursor) बार-बार आ रही थी और जा रही थी—जैसे उसे चिढ़ा रही हो। 'ब्लिंक... ब्लिंक... ब्लिंक...'।
वह कन्फ्यूज था। उसके दिमाग में विचारों का बवंडर था, लेकिन उंगलियां कीबोर्ड पर जम गई थीं। उसे अपनी नई किताब का क्लाइमेक्स लिखना था, लेकिन वह कुछ और ही सोचने लगा। तंग आकर उसने अपनी कहानी को छोड़ दिया और सीधे वही टाइप करना शुरू किया जो उस वक्त उसके दिमाग में चल रहा था।
उसने लिखना शुरू किया:
"लोग कहते हैं रात सोने के लिए होती है, पर एक लेखक के लिए रात एक अदालत की तरह होती है। जहाँ वह खुद ही मुजरिम होता है और खुद ही जज।
मैं यहाँ क्यों बैठा हूँ? क्या साबित करना चाहता हूँ? दुनिया सो रही है। वो सब्जी बेचने वाला, वो ऑफिस जाने वाला क्लर्क, वो अमीर बिजनेसमैन—सब अपने सपनों में खोए हैं। और मैं? मैं यहाँ जागकर उन लोगों की कहानियां गढ़ने की कोशिश कर रहा हूँ जिनका कोई वजूद ही नहीं है।
अजीब है न? हम लेखक झूठ बोलकर सच बताने का धंधा करते हैं।
मेरा किरदार 'आदित्य' (उसकी कहानी का हीरो)... मैं उसे मारना चाहता हूँ। कहानी की मांग यही है। लेकिन मेरे हाथ कांप रहे हैं। क्या मैं भगवान हूँ जो उसकी किस्मत तय करूँ? या मैं सिर्फ़ एक माध्यम हूँ? कभी-कभी लगता है ये किरदार मेरे दिमाग की उपज नहीं हैं, ये कहीं ज़िंदा हैं और मैं बस उनकी बायोग्राफी लिख रहा हूँ। अगर मैंने गलत अंत लिखा, तो वो मुझे माफ़ नहीं करेंगे।
और यह सन्नाटा... यह बहुत शोर करता है। इसमें मुझे अपनी पुरानी गलतियां याद आ रही हैं। वो मौका जो मैंने छोड़ दिया, वो बात जो मुझे कह देनी चाहिए थी। क्या हर लेखक असल में अपनी ही जिंदगी को पन्नों पर सुधारने की कोशिश नहीं कर रहा होता? हम फिक्शन नहीं लिखते, हम अपने 'काश' (regrets) लिखते हैं।
मुझे डर लग रहा है। इस बात से नहीं कि कहानी पूरी नहीं होगी। डर इस बात का है कि अगर मैंने सबकुछ लिख दिया, तो मेरे अंदर क्या बचेगा? क्या मैं खाली हो जाऊंगा?
यह कर्सर... यह ब्लिंक करता हुआ कर्सर मेरी दिल की धड़कन जैसा है। जब तक यह चल रहा है, मैं ज़िंदा हूँ। जब यह रुक जाएगा, शायद मैं भी सिर्फ़ एक किरदार बनकर रह जाऊंगा किसी और की कहानी का।"
विक्रम रुका। उसने एक लंबी सांस ली।
उसने जो लिखा था, उसे पढ़ा। यह उसकी किताब का हिस्सा नहीं था। यह किसी 'प्लॉट' में फिट नहीं बैठता था। लेकिन यह सच था। वह सब जो उसके अंदर उबाल मार रहा था, अब स्क्रीन पर था।
उसने ठंडी कॉफी का एक घूँट भरा। कड़वी थी, लेकिन उस कड़वाहट ने उसे नींद से जगा दिया। उसका कन्फ्यूजन अब पन्नों पर उतर चुका था। दिमाग हल्का हो गया था।
उसने 'बैकस्पेस' नहीं दबाया। उसने उस फाइल को सेव किया नाम दिया—"लेखक का कन्फ्यूजन"। फिर उसने एक नया पन्ना खोला। अब वह तैयार था।
रात अभी बाकी थी, और कहानी भी।
विक्रम कुर्सी से उठ खड़ा हुआ। पैरों में थोड़ी अकड़न थी, पर दिमाग अभी भी ब्रह्मांड की गति से दौड़ रहा था। वह धीरे-धीरे चलकर खिड़की के पास गया और पर्दा हटाया।
बाहर शहर सोया हुआ था। दूर सड़क पर जल रही पीली स्ट्रीट लाइटें किसी पुरानी याद की तरह टिमटिमा रही थीं। उस दृश्य को देखकर विक्रम के मन में चल रहा संवाद और गहरा हो गया। उसने अपनी डायरी उठाई—लैपटॉप नहीं, कागज और कलम—और खिड़की के पास ही जमीन पर बैठ गया।
चांदनी उसके पन्नों पर गिर रही थी। उसने लिखना शुरू किया, कहानी नहीं, बल्कि वो दर्शन जो उसे सोने नहीं दे रहा था।
उसने लिखा:
"अजीब है न? हम सब दिन के उजाले में 'जीने' का नाटक करते हैं। हम चेहरे पर मुस्कुराहट का मेकअप लगाते हैं, 'मैं ठीक हूँ' का झूठ बोलते हैं और भीड़ का हिस्सा बन जाते हैं। लेकिन सच यह है कि इंसान अपनी असली शक्ल सिर्फ़ रात के इसी पहर में देखता है।
जब दुनिया की आवाजें बंद हो जाती हैं, तब 'अंतरात्मा' की आवाज शोर मचाना शुरू करती है। शायद इसीलिए लोग रात को देर तक जागने से डरते हैं। उन्हें डर अंधेरे से नहीं लगता, उन्हें डर लगता है उस सन्नाटे से, जो उनसे सवाल पूछता है—'तुम कौन हो?' और 'तुम यहाँ क्यों हो?'
मुझे लगता है कि हम लेखक शापित (cursed) हैं। आम इंसान दर्द को भूलना चाहता है, जख्मों को भरना चाहता है। पर हम? हम अपने पुराने जख्मों को कुरेदते रहते हैं, ताकि उससे निकली टीस को शब्दों में ढाल सकें। अगर मैं खुश हो गया, पूरी तरह संतुष्ट हो गया, तो क्या मैं लिख पाऊँगा? शायद नहीं।
'असंतोष' (Dissatisfaction) ही सृजन (Creation) की माँ है।
अभी नीचे सड़क पर एक कुत्ता भौंका। उसकी आवाज गूंजी और खो गई। हम भी तो यही हैं। ब्रह्मांड के इस अनंत कैनवास पर एक छोटी सी गूंज। हम चीखते हैं, लड़ते हैं, प्रेम करते हैं, नफरत करते हैं—सिर्फ़ यह साबित करने के लिए कि 'हम थे'।
मेरे पात्र... वो मुझसे मुक्ति मांगते हैं। पर क्या मैं मुक्त हूँ? मैं भी तो किसी और की लिखी कहानी का एक पात्र हूँ। कोई शक्ति, कोई 'समय' (Time) मेरे पन्ने पलट रहा है। मुझे नहीं पता मेरे अगले अध्याय में क्या है—दुख, सुख या पूर्ण विराम (The End)।
लोग कहते हैं हम 'कहानियां बनाते' हैं। गलत। कहानियां हवा में तैर रही हैं, अधूरी, बेघर रूहों की तरह। वे बस एक शरीर खोजती हैं जो उन्हें कागज पर उतार सके। मैं रचयिता नहीं हूँ, मैं बस एक माध्यम हूँ। मैं एक रेडियो हूँ जो संकेतों को पकड़ रहा है।
और यह कन्फ्यूजन? यह कन्फ्यूजन ही तो जीवन है। जिस दिन मुझे सब कुछ समझ आ गया, जिस दिन मेरे पास हर 'क्यों' का जवाब होगा, उस दिन जीवन का अर्थ ही खत्म हो जाएगा। हम सत्य की खोज में नहीं भटक रहे, हम भटकने में ही सत्य को जी रहे हैं।
यह रात, यह अकेलापन, यह खालीपन... यह मेरा दुश्मन नहीं है। यह मेरा ईंधन है। शून्य में ही तो सब कुछ समाया है।"
विक्रम ने कलम रोकी।
बाहर ठंडी हवा का एक झोंका आया जिसने उसके पसीने को सुखा दिया। उसे महसूस हुआ कि वह अकेला नहीं है। उसके साथ उसके विचार हैं, उसकी पीड़ा है, और उसका अस्तित्व है।
उसने डायरी बंद की। एक अजीब सी शांति उसके चेहरे पर थी। वह समझ गया था कि उसे अपनी कहानी के 'हीरो' को भी इसी दर्शन से गुज़ारना होगा। उसे अपने हीरो को जीत नहीं दिलानी है, उसे अपने हीरो को 'समझ' (Wisdom) देनी है। क्योंकि जीवन में जीतना जरूरी नहीं, खुद को पाना जरूरी है।
विक्रम वापस अपनी कुर्सी पर गया। लैपटॉप की स्क्रीन अभी भी जल रही थी। कर्सर ब्लिंक कर रहा था।
उसने मुस्कुराते हुए टाइप किया:
"और अंत में, उसे समझ आ गया कि वह जिस रोशनी को बाहर तलाश रहा था, वह उसके अपने ही अंधेरे के भीतर छिपी थी..."